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“हां ,और कितने साल टिका रहे एक पहाड़
कि उससे पहले कि समंदर उसे डूबा ना दे ?
हां, और कितने साल बचे रह सकते हैं कुछ लोग
कि उससे पहले उन्हें आजाद किया जा सके? ”
(बॉब डिलम, ब्लोविंग इन द विंड)
पतझड़ की हवाएं थमने और सर्दियों से पहले की थोड़ी नरम गरम हवाओं को महसूस करते हुए एस वसंथा ने अपने पति को तुरंत हॉस्पिटल में शिफ्ट करने का प्लान बनाया.
वो 90 फीसदी तक विकलांग और पोलियो की वजह से 19 क्रॉनिक कंडीशन को झेल रहे हैं. व्हीलचेयर पर रहने के लिए मजबूर हैं, इसलिए हर कोई जानता है कि सर्दियां ऐसे शख्स के लिए परेशानी ही लेकर आएंगी अगर उन्हें वक्त रहते चिकित्सा देखभाल ना मिले.
वसंथा ने एक न्यूजपेपर से कहा था कि वो उन्हें इलाज के लिए या तो हैदराबाद या फिर दिल्ली ले जा रही है. लेकिन ऐसा हो ना सका. क्योंकि दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईबाबा को नागपुर जेल से बाहर आने का मौका ही नहीं मिला, जहां वो अपने कथित माओवादी लिंक की वजह से उम्रकैद की सजा काट रहे हैं.
जब बॉम्बे हाईकोर्ट का आदेश 14 अक्टूबर को आया और UAPA के सभी आरोपों से बरी करते हुए उन्हें रिहा किया गया तो वसंथा ने दे टेलिग्राफ से कहा:
लेकिन मुश्किल से 24 घंटे भी नहीं गुजरे थे कि सुप्रीम कोर्ट की स्पेशल बेंच ने मामले की सुनवाई की और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को निलंबित करते हुए साईबाबा की रिहाई पर रोक लगा दी.
बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने साईंबाबा और दूसरे आरोपियों को रिहा करते हुए यह माना कि ट्रायल के लिए जो वैध कानूनी मंजूरी ली जाना चाहिए वो इस केस में पर्याप्त नहीं है. हाईकोर्ट ने माना कि निचली अदालत ने वैध मंजूरी के अभाव में भी आरोपियों को दोषी मान लिया.
UAPA की धारा 45(1) में साफ साफ लिखा है कि इस धारा में किसी को अपराधी मानकर केस चलाने के लिए केंद्र सरकार से मंजूरी लेना अनिवार्य है. हाईकोर्ट ने कहा कि इस वजह से और सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले को देखते हुए पूरा ट्रायल ही बिगड़ गया है.
बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने आगे माना कि महाराष्ट्र राज्य के अभियोजन निदेशक ने एक "संक्षिप्त और विचित्र" रिपोर्ट दायर की थी जिसमें तर्क नहीं थी.
UAPA की सेक्शन 45(2) में यह अनिवार्य किया गया है कि “जांच प्रक्रिया के दौरान जो सबूत जुटाए जाते हैं उसकी स्वतंत्र समीक्षा होनी चाहिए और सरकार की ओर से तय समयसीमा में ही रिपोर्ट की सिफारिश की जानी चाहिए.
हाईकोर्ट ने कहा कि वो यह नहीं सुझाव दे रहे हैं कि यह रिपोर्ट काफी विस्तृत और न्यायिक आदेश जैसा हो लेकिन रिपोर्ट निश्चित तौर पर स्पष्ट होना चाहिए और इसमें साक्ष्य सामग्री की समीक्षा को भी जरूर शामिल किया जाना चाहिए. ”.
हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “हाईकोर्ट ने सिर्फ केस की मेरिट पर ध्यान दिया. हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट से पारित जजमेंट और सजा के आदेश पर ही अपना पूरा ध्यान फोकस किया.”
आगे अपना तर्क देते हुए बेंच ने कहा :
आरोपियों को सजा सबूत के आधार पर उनका विस्तार से विश्लेषण करने के बाद दिया गया .
आरोपियों को ट्रायल कोर्ट ने जिस अपराध में सजा दिया वो अपराध बहुत गंभीर प्रकृति के हैं.
हाईकोर्ट ने किसी और चीज को ध्यान में नहीं रखा और अपना आदेश सिर्फ ट्रायल कोर्ट के फैसले के मेरिट को ध्यान में रखते हुए दिया.
हाईकोर्ट ने इस आधार पर साईंबाबा को रिहा करने का आदेश दिया कि ट्रायल के लिए मंजूरी नहीं ली गई थी और इसके बिना ही ट्रायल कोर्ट ने सजा सुना दिया ...लेकिन ‘ इस सवाल पर विस्तार से ध्यान देने की जरूरत है
इसलिए कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के लिए सवाल रख दिए हैं और जिन पर सुप्रीम कोर्ट अपनी सुनवाई करेगा. 'लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि हाईकोर्ट का फैसला पहली नजर में गलत था '
द इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखे आर्टिकल में वरिष्ठ वकील कॉलिन गॉन्साल्विस लिखते हैं :
गोन्साल्विस के मुताबिक ऐसा इसलिए है क्योंकि ,“ अगर शुरुआती प्रक्रिया गलत है तो फिर इसमें आगे कोई कार्यवाही किए जाने की जरूरत नहीं और आरोपी को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए .”
बैजनाथ प्रसाद त्रिपाठी बनाम स्टेट ऑफ भोपाल केस में हाईकोर्ट ने अपना रुख साफ किया हुआ है. कोर्ट ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा हुआ है कि अगर शुरुआत में जो कानूनी पक्रिया है अगर उसका पालन ठीक से नहीं हुआ है तो पूरे ट्रायल को ही गैरकानूनी करार दिया जाएगा. .
बैजनाथ प्रसाद त्रिपाठी बनाम भोपाल केस का जिक्र करते हुए अपने आर्टिकल में गोन्साल्विस कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले को पहली नजर में गलत नहीं माना है.
गॉन्सॉल्विस कहते हैं कि ‘ उन्होंने ये नहीं कहा है कि कानून यह नहीं कहता कि मंजूरी लेना ही सबकुछ है और यह पहली नजर में सब गड़बड़ है. वो आगे कहते हैं ,
“जब तक कि कोई बड़ी अदालत यह नहीं कह देती कि निचली अदालत का फैसला सही नहीं है, आप आदेश पर रोक नहीं लगा सकते. सिर्फ इसलिए किसी फैसले को रोका नहीं जा सकता कि कोर्ट कानून की बारीक पहलुओं पर नजर डालना चाहता है.”
गॉन्साल्विस यह भी कहते हैं कि यह कोई दीवानी यानि सिविल मामला नहीं है बल्कि आपराधिक केस है , जहां कोई जेल से रिहा होने वाला था, लेकिन अब बदले हालात में रिहाई नहीं हो सकती
सवाल इस पर भी उठे हैं कि आखिर ऐसी क्या हड़बड़ी थी जो इसको लेकर सुनवाई इतनी आनन फानन में हुई और सुप्रीम कोर्ट की विशेष बेंच बैठी. LiveLaw वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख में सुप्रीम कोर्ट का शनिवार को एक्सटाऑर्डिनेरी स्पेशल सुनवाई करने का जिक्र है. वेबसाइट के फाउंडिंग एडिटर मनु सेबेस्टियन ने लिखा
वो लिखते हैं कि हां कई बार बेहद विशेष हालात में सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी सुनवाई की है – जैसे कि याकूब मेमन की फांसी और निर्भया के मामले में और पत्रकार को गिरफ्तार किए जाने से बचाने के लिए . ऐसा किया जाता रहा है क्योंकि यह निजी आजादी के अधिकार का सवाल और बड़े संवैधानिक संकट से बचाव के लिए सुनवाई होती है. “
गॉन्साल्विस भी अपने आर्टिकल में लिखते हैं और हैरत जताते हैं कि “आखिर सुप्रीम कोर्ट इस मसले को इतनी हड़बड़ी में सुनवाई करने के लिए क्यों तैयार हुआ जैसे कि अगर राज्य सरकार की अपील पर सुनवाई नहीं होती तो कोई बड़ी आफत आ जाती..और किसी आम दिन में सुनवाई होने से इस मामले में कुछ बिगड़ नहीं जाता. ”
और ऐसा भी नहीं है कि कानून में कुछ और विकल्प नहीं बचा था.
वो उन्हें महीने और दो महीने या फिर तीन महीने के लिए रिहा कर देते और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई पूरी होने तक कुछ शर्त लगा देते. और फिर अगर उन्हें लगता कि यह सही नहीं है तो फिर जेल में आने का आदेश दिया जा सकता था.
अभी अब जब तक मामले की सुनवाई नहीं होती है कई हफ्ते ऐसे ही जाएंगे .. आदेश में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के नोटिस पर जवाब के बाद मामले पर सुनवाई 8 दिसंबर को होनी है.
शुक्रवार को जब हाईकोर्ट ने साईबाबा की रिहाई के आदेश दिए थे तो साईंबाबा की पत्नी ए एस वसंथा ने कहा कि फैसले से उनको थोड़ी उम्मीद जगी थी और जेल में बंद सभी लोगों के लिए भी यह रोशनी की किरण जैसी थी .. वो साईबाबा के इलाज की तैयारियां कर रही थीं ..हालांकि वो एक सहआरोपी पांडु नारोटे की मौत से नाराज भी थीं. जानकारी के मुताबिक 25 साल के नरोटे की एक संक्रामक स्वाइन फ्लू से 25 अगस्त को मौत हो गई थी. उसे सरकारी मेडिकल हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था. उनकी मौत से जेल में कैदियों की सेहत और हाईजीन कंडीशन पर भी सवाल उठ रहे हैं.
“...हां, और कितनी बार एक शख्स ऊपर देखे
कि वो आसमान को देख पाए ?
हां, कितने कान हो एक आदमी के
कि वो लोगों का रोना सुन सके?
हां कितनी मौतें होंगी कि वो जान सके
कि काफी ज्यादा लोग मर चुके हैं ?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब , हवा में उड़ रहा है ”
(बॉब डिलन, ब्लोइंग इन दि विंड)
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