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सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में रविवार, 16 अप्रैल को केंद्र सरकार ने एक बार फिर समान-लिंग विवाह को कानूनी मंजूरी देने का विरोध किया. केंद्र ने दायर की गई याचिकाओं को "सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल शहरी अभिजात्य विचार" करार दिया. केंद्र का यह बयान चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच-जजों की बेंच द्वारा मंगलवार, 18 अप्रैल को समान-लिंग विवाह मामले में दलीलें सुनने के दो दिन पहले आया है.
केंद्र ने तर्क दिया कि अदालत द्वारा समान-लिंग विवाह के अधिकार को मान्यता देने का अर्थ "कानून की एक पूरी शाखा का आभासी न्यायिक पुनर्लेखन" होगा. इसके अलावा केंद्र ने कहा कि अदालत को इस तरह के सर्वव्यापी आदेश पारित करने से बचना चाहिए.
केंद्र ने तर्क दिया कि समलैंगिक विवाह जैसी नई सामाजिक संस्था को बनाना या मान्यता देना विधायी नीति का विषय होना चाहिए और उपयुक्त विधायिका द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिए. आगे कहा गया कि व्यक्तिगत स्वायत्तता के अधिकार में न्यायिक फैसले के जरिए समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का अधिकार शामिल नहीं है.
आवेदन में कहा गया कि पारंपरिक और सार्वभौमिक रूप से अपनाए गए सामाजिक-कानूनी रिश्ते जैसे विवाह, "भारतीय समाज का एक अहम हिस्सा है और वास्तव में हिंदू कानून की सभी शाखाओं में एक संस्कार माना जाता है. यहां तक कि इस्लाम में यह एक पवित्र कॉन्ट्रैक्ट है और एक वैध विवाह केवल एक बायोलॉजिकल पुरुष और एक बायोलॉजिकल महिला के बीच होता है.
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से जोर देते हुए कहा कि ग्रामीण, अर्ध-ग्रामीण और शहरी आबादी के साथ-साथ धार्मिक संप्रदायों, व्यक्तिगत कानूनों और विवाह को नियंत्रित करने वाले रीति-रिवाजों की मान्यताओं पर विचार करना जरूरी है.
सुप्रीम कोर्ट की पांच-जजों की बेंच में मुख्य न्यायाधीश और जस्टिस एसके कौल, रवींद्र भट, हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा शामिल हैं. बेंच, मंगलवार को समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने वाली याचिकाओं के एक बैच पर सुनवाई करने के लिए तैयार है.
उनमें से, केवल मुख्य न्यायाधीश पांच जजों की संविधान पीठ का हिस्सा थे, जिसने 2018 में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 को पढ़ा, जिससे समलैंगिकता को कम कर दिया गया.
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