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भले ही सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर अब जाकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया हो, लेकिन मुस्लिम महिलाओं की यह लड़ाई काफी पहले ही शुरू हो गई थी. इस लड़ाई में पहला कदम इंदौर की शाह बानो ने रखा था. शाह बानो को उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने साल 1978 में तलाक दे दिया था.
तीन तलाक पर आए फैसले के बाद द क्विंट ने शाह बानो के बेटे जमील अहमद से बात की और जानने की कोशिश की कि इनके लिए क्या है इस फैसले का मतलब.
जमील अहमद बताते हैं:
एमए खान इंदौर के जाने-माने वकील थे. 1979 में तलाक के बाद शाह बानो ने भरण-पोषण के लिए निचली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. कोर्ट ने सभी दलीलें सुनने के बाद एमए खान को हुक्म दिया कि वे हर महीना शाह बानो को गुजारे के लिए 79 रुपये दें.
शाह बानो के सबसे छोटे बेटे जमील अपनी मां को याद करते हुए बताते हैं, "मेरी मां एक साधारण औरत थी. उन्हें घर में रहना पसंद था, लेकिन 60 साल की उम्र में उन्हें तलाक मिलने से वो बहुत सदमे में थीं. वो बीमार रहने लगी थीं.'' शाह बानो की मौत ब्रेन हेमरेज की वजह से 1992 में हो गई.
जमील कहते हैं,
जमील अहमद ने 1985 के उन दिनों को याद करते हुए बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरे देश में विरोध हुआ. विरोध कर रहे लोगों का कहना था कि शरियत के हिसाब से तलाक के बाद भरण-पोषण का कोई रिवाज नहीं है.
मामला इतना बढ़ा कि प्रधानमंत्री तक को दखल देना पड़ा. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाह बानो को मिलने बुलाया. जमील बताते हैं कि वे अम्मी के साथ राजीव गांधी से मिलने दिल्ली गए थे. मुलाकात करीब आधे घंटे तक चली. राजीव गांधी ने कहा था कि आप भरण पोषण की रकम लेना छोड़ दीजिए.
तीन तलाक पर आए फैसले पर जमील कहते हैं कि ये फैसला मुस्लिम औरतों को नई जिंदगी देगा. साथ ही अब उन्हें डर के साये में नहीं जीना होगा. हालांकि अब न तो शाह बानो जिंदा हैं, न ही एमए खान.
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