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एक था राजा. एक थी रानी. दोनों मर गए खत्म कहानी. लेकिन कुछ कहानियां वक्त के साथ खत्म नहीं होतीं.
कहते हैं किस्से और कहानियां इतिहास के रेगिस्तान से रूखे नहीं होते. इनमें पुरखों की रूहें समाई होती हैं, जो किस्से सुनने-सुनानेवालों को किस्सों के जरिए अपना अाशीष देती हैं. ऐसी ही है मुगल बादशाह शाहजहां और मल्लिका-ए-हिंदुस्तान मुमताज महल की मुहब्बत की कहानी.
मशहूर शायर शकील बंदायुनी ने शाहजहां और मुमताज की मुहब्बत पर ये शेर लिखा है -
साल 1631 की बात है. दक्कन का पठार विद्रोह की आग में भड़क रहा था और मुमताज महल शहंशाह के साथ इस आग को दबाने के लिए युद्ध पर गईं थीं. लेकिन बादशाह ने इसी युद्ध में मुमताज को महल को खो दिया. मुमताज अपने 14वें बच्चे को जन्म देने वाली थीं और 17 जून, 1631 को मल्लिका-ए-हिंदुस्तान ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
शहंशाह ने ताप्ती नदी के किनारे बुरहानपुर में एक तालाब पटवाकर उसमें तलघर बनवाया. इस तलघर में मुमताज महल को दफनाया गया. इस कब्रगाह में दिये रखने की जगह बनवाई गई.
कहते हैं कि मुमताज को खोने के गम में गिरफ्तार बादशाह कई दिनों तक बाहर नहीं निकले. जब वे बाहर निकले, तो बेगम के गम में उनके पूरे बाल सफेद हो चुके थे.
कहा जाता है बादशाह जब तक बुरहानपुर में रहे, तो वे हर जुमेरात को नदी में उतरकर मुमताज की कब्र पर दिये जलाने जाते थे.
एक दिन बादशाह ने कसम खाई कि बेगम की याद में वे एक ऐसी इमारत बनवाएंगे, जैसी पूरे जहां में दूसरी नहीं होगी. फिर शाहजहां ने ईरान, मिस्र, इटली से बड़े से शिल्पकारों को जैनाबाद बुलवाया.
लेकिन शिल्पकारों ने ताप्ती के आसपास की जमीन देखने के बाद उसपर इतनी बड़ी इमारत बनाने से इनकार कर दिया.
शिल्पकारों के इनकार के बाद शाहजहां ने अागरा का रुख किया और यमुना के किनारे पर मुमताज महल की याद में ताजमहल बनाकर दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी.
लेकिन ये बादशाह शाहजहां की मुहब्बत ही थी कि उन्होंने ताजमहल बनने के बाद मुमताज की कब्र को बुरहानपुर से लाकर ताजमहल में जगह दी. हर साल शाहजहां के उर्स के मौके पर तीन दिनों के लिए ताजमहल में शाहजहां और मुमताज की असली कब्र को जनता के लिए खोला जाता है. लेकिन मुमताज महल की असली कब्र आज खस्ताहाल है.
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