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लिज़ मैथ्यू और रवीश तिवारी की रिपोर्ट है कि एनआरसी पर बीजेपी ने 17 बार प्रस्ताव पारित किए थे और जो नतीजा सामने आया है, उससे उन सभी दावों की कलई खुल गयी है. 2003 में जब पहली बार बीजेपी ने घुसपैठिए के मुद्दे पर प्रस्ताव पारित किया था, तब लालकृष्ण आडवाणी ने दावा किया था कि देश में 20 लाख घुसपैठिए हैं. 2016 में किरण रिजिजू ने 2 करोड़ घुसपैठिए होने का दावा किया था. अमित शाह ने इन घुसपैठियों को दीमक करार दिया था. मगर, एनआरसी की अंतिम रिपोर्ट इन तमाम दावों को खारिज करती है.
खास बात ये है कि भारत सरकार ने अब तक बांग्लादेशी घुसपैठियों को बांग्लादेश भेजने के बारे में वहां की सरकार से एक बार भी औपचारिक बातचीत नहीं की है. सरकार ने साफ किया है कि जिनके नाम एनआरसी में नहीं हैं उनके बारे में कोई निर्णय नहीं लिया गया है. माना जा रहा है कि 19 लाख से ज्यादा लोगों के नाम छूटे हैं उनमें से आधे से ज्यादा किसी न किसी तरह से इस सूची से बाहर हो जाएंगे. असली तादाद 6 से 7 लाख ही रहने वाली है. ऐसे में पूरी कवायद निर्रथक बनकर रह गयी है.
चाणक्य ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को मिली शानदार जीत के बाद अब महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में चुनावी मंच तैयार है. इन राज्यों में पांच कारणों से यह चुनाव महत्वपूर्ण है.
लेखक का मानना है कि महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस चुनाव अभियान में आगे हैं. आदित्य ठाकरे पहली बार चुनाव लड़ेंगे तो कांग्रेस-एनसीपी गठबधन में उत्साह की कमी है. इसी तरह हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर की समग्र छवि ठीक-ठाक है. चौटाला परिवार में टूट और कांग्रेस में गुटबाजी से बीजेपी को फायदा होगा. झारखंड में गैर आदिवासी वोटों के ध्रुवीकरण की नीति बीजेपी के लिए फायदेमंद रही है. विपक्ष एकजुट होकर भी लोकसभा चुनाव हार गया. ऐसे में विपक्ष का नैतिक बल गिरा हुआ है.
तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि विदेशी मीडिया बता रहा है कि कश्मीर घाटी में हर किस्म का जुल्म ढाया जा रहा है. उनके पास पाकिस्तान से जो ह्वाट्सअप मैसेज आ रहे हैं, उसमें सेना की ओर से कथित ज्यादती की छेड़छाड़ की गयी तस्वीरें हैं. खुद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान हर दिन किसी न किसी बहाने से युद्ध की धमकी दे रहे हैं. वे मोदी की तुलना हिटलर से और आरएसएस की सोच को नाजी सोच से प्रभावित बता रहे हैं.
लेखिका का मानना है कि कश्मीर घाटी में झूठे प्रचार का दौर लंबे समय से चलता रहा है. मगर, जब तक घाटी में कर्फ्यू नहीं हटाया जाता. तब तक पाकिस्तान इसका फायदा उठाता रहेगा. वह लिखती हैं कि राज्यपाल सत्यपाल मलिक हर दूसरे दिन विकास योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं, नौकरियां बांट रहे हैं. फिर भी, यह बात साफ है कि जब तक घाटी में जनजीवन सामान्य नहीं होंगे, इन सबका कोई मतलब नहीं है. अनुच्छेद 370 को हटाना जरूरी था. मगर, अब घाटी में शांति जरूरी हो गयी लगती है.
साजिद ज़ेड चिनॉय ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि आरबीआई ने जो अधिशेष रकम भारत सरकार को दी है उसका इस्तेमाल किस रूप में होता है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा. यह रकम जीडीपी का 1 प्रतिशत है. फिलहाल यह माना जा रहा है कि इसका इस्तेमाल सार्वजनिक आधारभूत संरचना पर यह खर्च होगा.
लेखक का मानना है कि टैक्स वसूली में कमी आयी है. वहीं, विनिवेश से 1 लाख करोड़ की रकम जुटाने का लक्ष्य है, जो अधूरा रहने पर सरकार को राजस्व घाटा पूरा करने में दिक्कत आएगी. संंभव है कि यह रकम उसमें ही इस्तेमाल हो जाए. केंद्र सरकार ने खर्च में जो कटौती पिछले वित्तीय वर्ष में की है उसे बढ़ाना मुश्किल होगा. लेखक का मानना है कि आरबीआई की रकम से देश की अर्थव्यवस्था में सुधार या उछाल में 0.3 प्रतिशत का प्रभाव ही दिखेगा.
ट्विंकल खन्ना ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में बच्चों में घर कर जाने वाली उस फोबिया की ओर ध्यान दिलाया है, जिसमें वह हमेशा अपनी मौत के बारे में सोचा करते हैं. “अगर मैं मर जाऊं तो क्या तुम मुझे फिर से जिन्दा कर सकती हो?”- यह सवाल किसी भी मां-बाप को परेशान कर सकती है. लेकिन, समस्या से भागने के बजाय उससे जूझने में ही इसका समाधान है. पेशेवर सलाह ही कारगर होती है और उससे कतई नहीं बचना चाहिए.
लेखिका ने सलाह दी है कि जिस बच्चे के मन में ऐसे सवाल पैदा होते हों, उन्हें नजरअंदाज नहीं कीजिए और न ही सवाल से पीछा छुड़ाइए. बल्कि, उससे अधिक से अधिक इसी विषय पर बात की जानी चाहिए. अपने और दूसरों के अनुभवों को साझा किया जाना चाहिए. अपने अनुभव से लेखिका ने इस मुद्दे को पूरी गंभीरता के साथ अपने आलेख में रखा है. वह लिखती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य प्राथमिकता में होना चाहिए.
मुकुल केसवन ने द टेलीग्राफ में इस विषय पर मंथन किया है कि किसे सार्वजनिक भारतीय जीवन का बौद्धिक कहा जाए. यह न किसी खास भाषा, जाति, उम्र, क्षेत्र के आधार पर तय हो सकता है और न ही इस आधार पर कि कोई व्यक्ति अखबारों में या टेलीविन में कितना चर्चित है. लेखक लिखते हैं कि सलमान रुश्दी ने विदेश में रहकर भारत विषयक ऐसी रचना कर डाली कि वह अमिट हो गयी. वह लिखते हैं कि द टेलीग्राफ में प्रकाशित होने वाले लेख बहुत छोटे वर्ग में चर्चित रहते हैं. ऐसे में किसी सार्वजनिक भारतीय जीवन का बौद्धिक माना जाए.
लेखक का कहना है कि गोविन्द पनसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश एक्टिविस्ट भी थे और स्थानीय भाषा में लिखा करते थे. लोगों के बीच पसंद किए जाते थे. इन सबकी हत्या कर दी गयी. हालांकि इसका इस बात से कोई संबंध नहीं है कि ये लोकप्रिय चेहरा थे. सार्वजनिक आंदोलनों से भी ये जुड़े रहे. वे लिखते हैं कि चर्चा तो अरुन्धति रॉय, राणा यूब, प्रिया रमानी और मेनका गुरुस्वामी की भी खूब हुई है. मगर, वास्तव में क्या वे भारतीय बौद्धिक समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं?
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