मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू : PM मोदी को याद हैं अपने वादे? मुद्दों पर हावी राजनीति

संडे व्यू : PM मोदी को याद हैं अपने वादे? मुद्दों पर हावी राजनीति

संडे व्यू में पढ़िए देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपे लेख

क्विंट हिंदी
भारत
Published:
संडे व्यू में पढ़िए देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपे लेख
i
संडे व्यू में पढ़िए देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपे लेख
(फोटोः istock)

advertisement

राजनीति ही राहुल को बना रही है भक्त

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वपन दासगुप्ता लिखते हैं कि चुनाव के दौरान राहुल गांधी का गोत्र सामने आने से कुछ लोगों को आश्चर्य हो सकता है लेकिन यह कांग्रेस अध्यक्ष की प्रोफाइल को एक श्रद्धालु हिन्दू के तौर पर बनाने की योजना का हिस्सा है. वे लिखते हैं कि आजादी के बाद से ही कांग्रेस मुसलमानों की पहली पसंद रही. मगर, इसकी हिन्दू पहचान को खतरा अयोध्या मुद्दे के बाद से आया. इन्दिरा गांधी ने भी उदारवादी सोच रखने के बावजूद समय-समय पर कांग्रेस को हिन्दुओं के साथ जोड़े रखा.

राजीव गांधी ने राम मंदिर परिसर का ताला खोला था. मगर, नरसिंह राव और सोनिया गांधी के नेतृत्व में चली कांग्रेस में पार्टी की धार्मिक पहचान नए सिरे से होने लगी. राहुल गांधी के युग तक पहुंचते-पहुंचते कांग्रेस की आज स्थिति ऐसी हो गयी है कि तेलंगाना में मुसलमानों को खुश करने में लगी है पार्टी और मध्यप्रदेश से लेकर राजस्थान में हिन्दुओं को. यह देश की राजनीति ही है जो राहुल गांधी को भक्त बना रही है.

पेट्रोलियम पर दबाव में रही सरकार, सुधारों को झटका

टाइम्स ऑफ इंडिया में एसए अय्यर ने स्वामीनॉमिक्स में लिखा है कि अल्पकालिक संकट के लिए ऐसे फैसले नहीं लिए जाने चाहिए जिससे दीर्घकालिक सुधारों को झटका लगे. कच्चे तेल के दामों का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं कि 2018 की शुरुआत में यह 62 डॉलर प्रति बैरल था, जो अगस्त में बढ़कर 70 डॉलर प्रति बैरल हो गया. अक्टूबर में यह 86 डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंचा. इसके साथ ही अमेरिका में ब्याज दर बढ़ गये और विदेशी निवेशक भारत समेत उभरते बाजारों से अपना निवेश खींचने लगे. नतीजा स्टॉक मार्केट क्रैश होने के रूप में दिखा. जनवरी में 63 रुपये में मिल रहा डॉलर 74 रुपये में मिलने लगा.

अय्यर लिखते हैं कि भारत सरकार को सख्त रहना चाहिए था और सख्त तरीकों पर अमल से बचना चाहिए था. मगर, सरकार राजनीतिक दबाव में आ गयी. उसने न सिर्फ पेट्रोलियम उत्पाद पर एक्साइज ड्यूटी कम कर दिए बल्कि राज्य सरकारों को भी ऐसा करने को कहा. सार्वजनिक उपक्रमों की तेल कंपनियों को भी सब्सिडी बढ़ाने के लिए मजबूर किया गया. यहां तक कि आरबीआई ने मैन्यूफैक्चरिंग कम्पनियों के लिए 50 मिलियन डॉलर तक का उधार देने की अनुमति एक साल के लिए दे दी.

अब एक बार फिर बाज़ार पलटा है. ऐसे में सरकार को चाहिए कि जैसे ही दिसम्बर में चुनाव खत्म होते हैं वो सारे पहल वापस ले लें जो पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत स्थिर बनाए रखने के नाम पर लिए गये थे. ऐसा करके ही राजकोषीय घाटे को सरकार नियंत्रित रख सकती है जो दीर्घकालिक सुधार के लिए बहुत जरूरी है.

लालकिले से पीएम मोदी का पहला भाषण : क्या हुआ तेरा वादा?

इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदम्बरम ने लिखा है कि जिस बाजार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को मौका दिया था, वही बाजार नोटबंदी के बाद उनसे नाराज हो गया. कारोबारी परेशान हैं, हर तरफ अनिश्चितता है. उन्होंने लिखा है कि 31 फीसदी अतिरिक्त वोटरों ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर उन्हें वोट दिया, अच्छे दिन आएंगे की उम्मीद में साथ दिया. इसके अलावा हर साल 2 करोड़ नौकरियां, किसानों की आय दोगुनी करने, 40 रुपये प्रति डॉलर के विनिमय स्तर लाने, पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब जैसे सपने पर भी लोगों ने विश्वास किया था. इतना ही नहीं जब प्रधानमंत्री ने अपना पहला भाषण लालकिले से दिया था उन्होंने नफरत फैलानी वाली सभी गतिविधियों को 10 साल तक रोक देने की अपील की थी. ऐसा लगा था मानो वे सही मायने में देश के प्रधानमंत्री हों, सबके पीएम हों.

चिदम्बरम लिखते हैं कि हुआ ठीक उल्टा. गो रक्षक बेलगाम रहे, एंटी रोमियो और घरवापसी गैंग सक्रिय रहे. मॉब लिचिंग जैसी घटनाएं होती रहीं. मीडिया पर दबाव बनाया गया. अहम मौकों पर पीएम चुप्पी साधे रहे. नोटबंदी के बाद जीएसटी थोप दी गयी. इन सब कारणों से पूंजी निवेश उड़नछू होने लगा, कर्ज बढ़ने लगे, आयात स्थिर हुआ, खेती पर दबाव बढ़ा और बेरोजगारी बढ़ती चली गयी. चिदम्बरम मानते हैं कि जनता ने बिहार, मणिपुर, गोवा, पंजाब समेत सभी उपचुनावों में सत्ताधारी दल को हराकर संकेत भी दिया, मगर मोदी सरकार नहीं बदली. वह लिखते हैं कि राम मंदिर मुद्दे पर अध्यादेश लाने की बात जब से मोहन भागवत ने कही है, तभी से हिन्दूवादी संगठनों का इस विषय पर शोर तेज हो गया है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

मुद्दों पर हावी हो गयी छोटी राजनीति

इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह ने लिखा है कि पांच राज्यों के चुनावों में बड़े मुद्दों पर क्षुद्र राजनीति हावी हो गयी.राहुल गांधी बीजेपी प्रवक्ताओं के दबाव मे आ गए और अपने गोत्र तक को सार्वजनिक कर बैठे. वह, अपने मां-बाप पर कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नजरअंदाज नहीं कर सके.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि राजस्थान के चुनाव में पानी का मुद्दा गायब दिखा, जो उन्हें ग्राउंड जीरो से महसूस हुआ. वहीं,मध्यप्रदेश में सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी पर नेता चुप रहे. इन मुद्दों के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हास्यास्पद रूप से नेहरू-गांधी वंशवाद पर राजनीति करते दिखे, जो विगत चार साल से सत्ता से बाहर है. वे ‘मौन’मोहन सिंह को याद करते दिखे.

देश के किसान दिल्ली आकर अपना दुख बता रहे हैं. मगर, चुनाव में वह भी मुद्दा बनता नहीं दिखा. तवलीन सिंह लिखती हैं कि राज्य के चुनाव में मुख्यमंत्री का कामकाज गौण हो गया और दूसरे मुद्दे हावी हो गये, इस पर आश्चर्य होता है. ऐसा लगता है कि जानबूझकर गैरजरूरी मुद्दे उठाए गये, ताकि जरूरी मुद्दों पर बात न हो सके.

‘नेबरहुड’ फर्स्ट की ओर भारत?

द हिन्दू में सुहासिनी हैदर ने सवाल उठाया है कि क्या भारत की विदेश नीति में ‘नेबरहुड फर्स्ट’ का समावेश होता दिख रहा है? मालदीव में इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथग्रहण समारोह में नरेंद्र मोदी की मौजूदगी और मंच के बजाए दर्शक के तौर पर मौजूदगी की ओर उन्होंने इशारा किया है. वह लिखती हैं कि कुछ समय पहले तक अब्दुल्ला यामीन के राष्ट्रपति रहते अपना दौरा रद्द करने वाले पीएम नरेंद्र मोदी के लिए यही एक मात्र दक्षिण एशियाई देश था जहां वे नहीं आए थे।.

सुहासिनी हैदर ने भूटान, बांग्लादेश और नेपाल तक में भारत की सॉफ्ट नीतियों का ज़िक्र किया है. अब श्रीलंका के प्रति भी भारत का रुख कुछ उदार है. अफगानिस्तान में तालिबान की मौजूदगी में हुई बैठक में पूर्व भारतीय राजनयिकों को भेजने को भी लेखिका ने भारतीय रुख में बदलाव और नरम बदलाव माना है. वुहान समिट में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ मुलाकात हो या फिर सोची रिट्रीट में व्लादिमिर पुतिन के साथ हुई मुलाकात, इन्हें भी भारतीय रुख में परिवर्तन के तौर पर देखा जा रहा है.

पाकिस्तान में करतारपुर कॉरिडोर को भी लेखिका इसी नज़रिए से देख रही हैं कि सितम्बर 2016 में उरी हमले के बाद पहली बार भारत के मंत्रियों ने पाकिस्तान में किसी समारोह में हिस्सा लिया है. हालांकि अब दोनों देशों के बीच रिश्ते में बड़ा बदलाव भारत में चुनाव होने तक नहीं देखतीं, मगर वह इशारा करती हैं कि भारत का रुख पड़ोसियों के लिए बदल रहा है.

सिविल सोसायटी को लोकतंत्र में जगह मिले

हिन्दुस्तान टाइम्स में इनग्रिड श्रीनाथ लिखते हैं कि सिविल सोसायटी को लोकतंत्र में और अधिक जगह देने की जरूरत है. ये लोग नागरिकों को और जवाबदेह बनाने, विभिन्न संस्थानों को लोकहित में काम करने के लिए प्रेरित करने जैसे मकसद में बहुत कारगर हो सकते हैं. देश में 31 लाख एनजीओ होने का जिक्र करते हुए लेखक का कहना है कि इनमें से कई बेकार हो चुके हैं और ज्यादातर के बारे में समझना ही मुश्किल है कि कौन क्या कर रहा है. अगर सिविल सोसायटी को सक्रिय कर दिया जाए तो ऐसे एनजीओ की पहचान करने और उनसे बेहतर नतीजे मिलने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगी.

लेखक का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सिविल सोसायटी की भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है. वे दक्षिण एशियाई मानवाधिकार मैकेनिज्म को बनाने में कारगर हो सकते हैं. वे उन संगठनों के लिए भी मददगार हो सकते हैं जो अंतरराष्ट्रीय फोरम में सक्रिय हैं.सार्वजनिक और निजी गतिविधियों को जनता के हित में मजबूत करने में सिविल सोसायटी का उपयोग किया जा सकता है.

स्वतंत्र अफगान नीति की जरूरत

अमर उजाला में अवनीश पालीवाल ने लिखा है कि भारत को अफगानिस्तान में वास्तविक सामाजिक सुलह प्रक्रिया का समर्थन करना चाहिए और अफगान संघर्ष खत्म करने के लिए दीर्घकालिक रणनीति के बारे में सोचना चाहिए. पालीवाल ने लिखा है कि मॉस्को की बैठक में भारत का अपने अनुभवी, सेवानिवृत्त राजनयिकों को भेजने का फैसला समझदारी भरा कदम था.

पालीवाल लिखते हैं कि कभी भारत की अफगान नीति सोवियत संघ की अफगान नीति के अनुरूप थी. अब, यह अमेरिका की अफगान नीति के अनुरूप हो चुकी लगती है. भारत की एकमात्र कोशिश इसी रूप में थोड़ी अलग दिखती है कि किसी भी सूरत में पाकिस्तान इस बात में सफल ना हो कि अफगानिस्तान में अपनी मनमानी कर सके.

पालीवाल लिखते हैं कि ऐसा लगता है कि नयी दिल्ली अफगान संघर्ष को खत्म करने के प्रति बहुत अनजान हो गयी है. वे सोवियत संघ-अफगान युद्ध से सबक लेने की जरूरत बताते हैं. तब भारत युद्ध खत्म करने के प्रति सोवियत संघ की गम्भीरता या उसकी संरचनात्मक समस्या को समझने में विफल रहा था.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT