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पी चिदम्बरम ने जनसत्ता में लिखा है कि राफेल मामले का सच संसदीय जांच से ही आ सकता है. उन्होंने 14 दिसम्बर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कई खामियों को गिनाया है. उन्होंने लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर खुद ही यह स्पष्ट कर दिया कि वह न राफेल के दाम, न तकनीकी पक्ष पर कोई सुनवाई कर सकता है और न ही 36 विमानों की खरीद के फैसले के विवेक पर कोई फैसला दे सकता है. इसके अलावा वह सौदा भी रद्द नहीं कर सकता.
पहला सवाल है कि दसॉ और एचएएल के बीच साझेदारी समझौता रद्द क्यों किया गया जबकि इनके दरम्यान 95 फीसदी बातचीत हो चुकी थी? दूसरा सवाल है कि अगर कीमत 9 फीसदी कम है तो वायु सेना की जरूरत के अनुरूप 126 विमानों की खरीद क्यों नहीं हुई? तीसरा सवाल है कि ऑफसेट अनुबंध के लिए एचएएल के नाम को क्यों नहीं आगे बढ़ाया गया?
द हिंदू में जी सम्पत ने ‘थ्री वेडिंग्स एंड ए ढोकला’ में देश के राजनीतिक माहौल को गपशप बनाते हुए चुटीले अंदाज में बयां किया है. पीएम के साथ सेल्फी खिंचाने वाले पत्रकारों से खुद को अलग दिखाते हुए वे अंग्रेजी के इस मुहावरे का भी जिक्र करते हैं जिसमें पहाड़ मोहम्मद के पास नहीं जाता, मोहम्मद को पहाड़ के पास जाना होता है. यह बात लेखक अम्बानी की बेटी की शादी में शरीक होते वक्त भूल जाते हैं. वह कहते हैं कि अगर उन्हें इसमें सम्मानित अतिथि के तौर पर नहीं भी बुलाया जाता है तो नौकर बनकर भी वहां जाने को तैयार रहते. लेखक इसे देशभक्ति मानते हैं.
लेखक का कहना है कि जिस परिवार की दौलत भारतीय रक्षा बजट के तकरीबन बराबर है, जो चाहे तो 800 राफेल कभी भी खरीद ले या फिर देश के 5 लाख 97 हज़ार 464 गांवों का कभी भी उद्धार कर दे, ऐसा परिवार अपनी आमदनी का 0.3 फीसदी भी अपनी बेटी की शादी पर खर्च न करे तो यह हैरानी की बात होगी.
आम भारतीय परिवार तो अपनी दौलत का 7 से 12 प्रतिशत तक बेटी की शादी में खर्च कर लेता है, बल्कि कर्ज लेकर संतान की शादी करता है. इसी पृष्ठभूमि में लेखक मानते हैं कि एक मजदूर के तौर पर ऐसी शादी में जाना देशभक्ति है. वे उस वीडियो क्लिप की याद दिलाते हैं जिसमें कई पत्रकार व्यंजनों का आनंद ले रहे हैं और फिल्मस्टार उन्हें परोस कर खिला रहे हैं. खासकर अमिताभ बच्चन और आमिर खान ढोकला परोस रहे हैं. लेखक का लाख टके का सवाल ये है कि जो ढोकला वे परोस रहे थे उसे बनाया किसने होगा?
तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि नारे लगाने वालों से देश के टुकड़े नहीं होंगे, बल्कि देश के टुकड़े होंगे योगी आदित्यनाथ जैसे राजनेताओं के कार्यों से जिन्होंने भय का माहौल बना रखा है. तवलीन सिंह ने जेएनयू कैम्पस की घटना को याद करते हुए लिखा है कि तब उन्हें भी कन्हैया कुमार को जेल भेजने पर कुछ बुरा नहीं लगा था. तब संसद में स्मृति ईरानी का भाषण भी उन्हें याद है जब उन्होंने ऐसे छात्रों की जगह जेल में बतायी थी. लेकिन, वही स्मृति ईरानी बुलन्दशहर से जुड़े सवालों पर निरुत्तर हैं.
लेखिका कहती हैं कि 20 करोड़ की आबादी अगर कहीं जाएगी, तो भारत के टुकड़े किए बगैर नहीं जा सकती. वह सवाल करती हैं कि क्या प्रधानमंत्री को देश के टुकड़े करने वाले ये सहयोगी नेता दिखायी नहीं पड़ते? लेखिका ने लिखा है कि देश के टुकड़े करने वाले दो तरह के लोग हैं- एक, जो सिर्फ नारे लगाते हैं और दूसरे जो अपनी करनी से देश के टुकड़े करने में जुटे हुए हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया में राजीव भार्गव ने ‘जस्टिस, फॉरगिवनेस एंड द कॉल टु फॉरगेट’ में बंटवारे के बाद से तीन बड़े वाकयों को याद किया है-1983 का असम में नेल्ली नरसंहार, 1984 में दिल्ली में हुआ सिखों का खौफनाक नरसंहार और 2002 में गुजरात की शैतानी करतूत. वे कहते हैं कि कोई भी सभ्य समाज ऐसे अत्याचारों की अनुमति नहीं देता.
फिर भी अगर ऐसी घटनाएं होती हैं तो इनका प्रतिशोध न्यायिक प्रक्रिया के जरिए ही लिया जाता है. लेखक ने लिखा है कि जब इस न्यायिक प्रक्रिया को भी राजनीतिक रूप से प्रभावित करने की कोशिश होती है तो वह बहुत बुरी बात होती है. इसी लिहाज से सज्जन कुमार को लेकर आया फैसला उस घटना में बचे हुए लोगों के लिए सुकुन देने वाला है.
लेखक को यह बात हैरान करती है कि देर से हुए न्याय को भी आज न्याय के रूप में ही स्वीकृति मिली हुई है। लेखक इस मौके पर भी अपराधी को माफ करने की मांग से हैरान दिखते हैं. जिनकी आंखों ने इन घटनाओँ को देखा है वे इसे आजीवन भूल नहीं पाते. हम उन्हें सांत्वना भी देते हैं तो घटना भूलने के लिए कतई नहीं कहते.
लेखक का मानना है कि सजा दिलाने की लड़ाई आत्मसम्मान के लिए होती है. जब अपराधी अपनी गलती को कबूल करता है या फिर जिनके प्रति अपराध हुआ है उनके प्रति क्षमा भाव में आता है तब क्षमा देने या करने की परिस्थिति भी बनती है. यह ईमानदार भावना होती है, अंतरात्मा की आवाज होती है. क्षमा किसी पर थोपी नहीं जा सकती. लेखक का मानना है कि क्षमा का मतलब दया भी नहीं होता है. न्याय भी वही है जो गलतियों को पकड़े, समझे और पीड़ितों के आंसू पोंछे. क्षमा न्याय की पूरक हो सकती है, न्याय का विकल्प कभी नहीं होती.
मेघनाद देसाई ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सलाह दी है कि राहुल गांधी भले ही उन्हें चैन से न सोने दें, लेकिन वे देश के किसानों की कर्जमाफी कतई ना करें. उन्होंने भारतीय राजनीति की तुलना बॉलीवुड की फिल्मों से की है जहां गरीब किसान के लिए सहानुभूति को स्वाभाविक मान लिया जाता है.
देसाई लिखते हैं कि आप चाहे कितने गरीब हों, कम आमदनी वाले शिक्षक हों, ईएमआई नहीं दे पा रहे हों, छोटे-मझोले उद्यमी हों, आपसे राजनीतिज्ञों की सहानुभूति नहीं होती. वहीं, अगर आप किसान हैं, आपकी आंखों में आंसू हैं तो आपको सीधे चेक मिल जाएगा.
उनका जोर कृषि के बजाय सोवियत संघ की मदद से चलने वाले मशीनी कल-कारखानों पर होता था. इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीयकरण कर इसे आगे बढ़ाया. 70 के दशक के बाद सरप्लस मजदूरों का उपयोग गैर कृषि कार्यों में शुरू हो पाया, जो अगर पहले होता तो यह समस्या पैदा नहीं होती.
मेघनाद देसाई ने कपड़ा उद्योग की तबाही के लिए भी भारतीय ट्रेड यूनियनों को जिम्मेदार बताया है जहां अब मॉल खुल चुके हैं. किसानों को भारतीय अर्थव्यवस्था का बीमार व्यक्ति और बोझ बताते हुए लेखक का मानना है कि कर्ज से यह समस्या और बढ़ेगी. अच्छा ये होगा कि ऐसी नीति बनायी जाए जिससे लोगों को रोजगार मिले और लोग मृतप्राय खेती को छोड़कर नौकरियों की ओर बढ़ें.
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि एमके स्टालिन ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर बड़ी गलती की. उन्हें विपक्ष की मौजूदगी में ऐसा नहीं कहना चाहिए था. खास कर तब जब कई बार राहुल गांधी ऐसे सवालों का जवाब देने से बचे हैं.
करन लिखते हैं कि विपक्ष में मायावती, ममता बनर्जी, एन चंद्र बाबू नायडू, शरद पवार सरीखे कई ऐसे नेता हैं जो खुद को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर देखते हैं और राहुल से बेहतर दावेदार समझते हैं. निस्संदेह ऐसे लोगों में स्टालिन नए हैं और इसलिए शायद वे ऐसी बात कह सके हैं.
करन थापर ने हाल में चंद्रबाबू नायडू के बयान की याद दिलायी है जिसमें उन्होंने पत्रकारों के सवालों के जवाब में कहा था, ‘आपकी चिन्ता चेहरा है, हमारी चिन्ता है देश.’ खुद राहुल गांधी ने भी कहा है कि पहला चरण बीजेपी को सत्ता से हटाना है और दूसरे चरण में ये तय होगा कि आगे क्या करना है.
करन थापर लिखते हैं कि कांग्रेस जब मैजिक फिगर 272 का आधा यानी 136 लाएगी, तभी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी रख सकेगी. यह लक्ष्य भी विगत 2014 के आम चुनाव में मिली सीटों का तिगुना है. अगर यह लक्ष्य हासिल नहीं होता है तो 40 सीटें लाकर भी ममता बनर्जी या फिर मायावती का दावा मजबूत होगा क्योंकि उनके पास अनुभव है.
पाकिस्तानी पत्रकार खालिद अहमद ने इंडियन एक्सप्रेस में ‘हिन्दुत्व एंड इंडियन नेबर्स’ में लिखा है कि भारत की सरकार राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में सत्ता से बाहर होने को पचा नहीं पा रही है. वे मानते हैं कि अब अल्पसंख्यकों को लेकर बीजेपी सरकार के नजरिए पर भी आत्मचिंतन होगा और इसका भारतीय उपमहाद्वीप पर भी असर पड़ेगा.
उन्होंने भारतीय विद्वान भरत कर्नाड को उद्धृत किया है, ‘विडम्बना ये है कि जिस मोदी युग में पाकिस्तान की ओर से आतंकवाद को बढ़ावा देने तक बातचीत नहीं करने की बात की जा रही थी वह पाकिस्तान की चाल में फंस गया लगता है...कर्नाड बीजेपी के हिन्दुत्व के अभियान का असर मालदीव समेत मुस्लिम पड़ोसी देशों पर भी पड़ रहा बताते हैं. वे बांग्लादेश का खासतौर पर जिक्र करते हैं जो चीन से मिल रही आर्थिक मदद का बढ़चढ़ कर स्वागत कर रहा है.
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