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संडे व्यू: न्यायपालिका ने खुद को बेनकाब किया, आधार हुआ निराधार

क्या है अर्थव्यवस्था का पोस्ट ट्रुथ, नौजवानों का है यह दौर, संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल

दीपक के मंडल
भारत
Published:
सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. (फोटो: iStockphoto)  
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. (फोटो: iStockphoto)  
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न्यायपालिका ने खुद को बेनकाब किया

सुप्रीम कोर्ट के चार जजों का चीफ जस्टिस के तौर-तरीकों लेकर प्रेस कांफ्रेंस करना पूरे देश को स्तब्ध कर गया. अमर उजाला में इस मामले में टिप्पणी करते हुए एन के त्रिपाठी लिखते हैं- सुप्रीम कोर्ट में जो हो रहा था इन सबकी जानकारी हमें पहले से थी.

हमारे लिए यह कोई सहस्योद्घाटन नहीं है. इसमें नई बात नहीं. नई बात यह कि यह आवाज सुप्रीम कोर्ट के ही चार सम्मानित जजों ने ही यह बात उठाई है. लेकिन उन्होंने जिस तरह से प्रेस कांफ्रेंस करके यह बात कही वह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है.

ये सम्मानित जज अपने दृष्टिकोण किसी संदर्भित फैसलों के जरिये या फिर जनहित याचिका के जरिये भी सामने रख सकते थे. जरा कल्पना कीजिये कि किसी युद्ध के समय चार लेफ्टिनेंट जनरल सेना प्रमुख के खिलाफ किसी जायज मुद्दे को लेकर इसी तरह प्रेस कांफ्रेंस करते हैं तो क्या होगा.

1970 के दशक में कांग्रेस ने प्रतिबद्ध न्यायपालिका की रचना की. मौजूदा परिस्थितियों में इसका असर यह हुआ कि प्रधान न्यायाधीश सत्तारूढ़ वर्ग की कथित तौर पर तरफदारी करते दिखते हैं. ध्यान रहे यह सब धारणा है और एक लोकतंत्र में तथ्यों से अधिक धारणाओं का असर होता है. विवादास्पद प्रश्न यह है कि क्या हमारा राजनीतिक वर्ग कभी न्यायिक सुधार की इच्छाशक्ति दिखाएगा.

उस रात का राजनीतिक सपना

दैनिक अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने आम आदमी पार्टी के ताजा हालात का जिक्र करने लिए खुद को आए दो सपनों को जिक्र किया है, जिनमें दो शिक्षाविद आकर उन्हें राजनीति में आने की सलाह दे रहे हैं. एक तरह से वे आम आदमी में शामिल होने के निमंत्रण दे रहे हैं.

यह रामचंद्र गुहा की ओर से लिखी किताब इंडिया आफ्टर गांधी के बाद का वक्त था. गुहा किताब के प्रमोशन के सिलसिले में अमेरिका में थे. वहीं से उन्होंने पत्नी को फोन किया और सलाह मांगी. इस पर पत्नी ने कहा कि लेखक का मिजाज राजनीति के मुताबिक नहीं है.

गुहा लिखते हैं- मैं तमाम राजनीतिक पार्टियों से स्वतंत्र राय रखता हूं. अवचेतन में कहीं न कहीं मैं यह मानने लगा था कि आप अलग तरह की राजनीतिक पार्टी है. बेशक अब हम जानते हैं कि ऐसा नहीं है. अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से योगेंद्र यादव को पार्टी से बाहर निकाला वह बताता है कि वह भी नरेंद्र मोदी या ममता बनर्जी की तरह अहंकारोन्मादी हैं.

और अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से अपनी पार्टी से राज्यसभा सदस्यों का चयन किया है उससे यह भी पता चलता है कि वह भी भाजपा, कांग्रेस की तरह थैलीशाहों के प्रति सम्मोहित हैं. बहरहाल, ह्यूस्टन की उस रात को मैंने जो सपना देखा उसे देखे साढ़े तीन साल हो गए. और फिर मैंने कभी राजनीतिक में उतरने का मन नहीं बनाया.

अर्थव्यवस्था का पोस्ट ट्रुथ

दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम अर्थव्यवस्था के हालात से रूबरू कराते हुए मोदी सरकार की खिंचाई की है- विलंब से शुरू हुआ संसद का सत्र जैसे ही समापन के करीब पहुंचा, वित्तमंत्री ने खुद को एक अजीब स्थिति में पाया. राज्यसभा ने 4 जनवरी, 2018 को अर्थव्यवस्था की हालत पर अल्पावधि चर्चा के लिए सूचीबद्ध किया था और अपेक्षा थी कि वित्तमंत्री चर्चा का जवाब देंगे.

बजट से सत्ताईस दिन पहले यह विचित्र था कि वित्तमंत्री अर्थव्यवस्था की स्थिति पर विस्तार से बोलें या कोई आश्वासन दें. अर्थव्यवस्था की हकीकत सबको मालूम है. जेटली का जवाब ‘उत्तर-सत्य’ था. मैं यह जरूरी समझता हूं कि हकीकत एक बार फिर बयान की जाए.

चिदंबरम ने विकास दर, राजकोषीय घाटे, व्यापार सुगमता, निर्यात, निवेश और बैंकों को एऩपीए का जिक्र करता हुए लिखा है-
यह हकीकत है कि अर्थव्यवस्था को ठीक से संभाला नहीं जा रहा है, न तो निवेशक आकर्षित हो रहे हैं न रोजगारों का सृजन हो पा रहा है. 2018-19कीमतों, निवेश और रोजगार के लिहाज से चुनौती-भरा साल होगा, और लोग यह पूछेंगे कि आखिर ‘हमने पिछले पांच साल में क्या पाया?’

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आधार निराधार

तवलीन सिंह ने दैनिक जनसत्ता के अपने कॉलम में आधार का रियल्टी चेक किया है. वह लिखती हैं- पिछले हफ्ते जब आधार कार्ड को लेकर खूब हल्ला मचने लगा देश भर में निजता पर और पत्रकारों और टीवी एंकरों में भी खेमे बंट गए, मैं एक ऐसे गांव में जा पहुंची जहां कुछ भी नहीं है.

इस गांव में किसी के पास न स्मार्टफोन था, न सेलफोन. न ही कुछ और था, लेकिन सरकारी राहत के तौर पर उनको तकरीबन कुछ नहीं मिला है अभी तक मनरेगा के तहत कुछ काम हुआ था कोई तीन साल पहले, लेकिन उस मजदूरी के भी पैसे नहीं मिले हैं. सो, आधार कार्ड ऐसे लोगों के लिए राहत का साधन नहीं, एक नई मुसीबत बन गया है.

मैंने शुरू से इस कार्ड का विरोध किया है. जब नंदन निलेकणी के इस विचार को राहुल गांधी ने ऐसे अपनाया जैसे कि इसके आने से भारत में गरीबी दूर हो जाएगी तब भी मैंने कहा था कि ऐसे देश में जहां बिजली भी नहीं है, जहां आम लोगों के पास डिजिटल समझ नहीं है, इस किस्म के बायोमेट्रिक कार्ड की कोई जरूरत नहीं है. इस आधार कार्ड से लेकर अगर सबसे बड़ी चिंता है तो यह कि कोई तानाशाह अगर प्रधानमंत्री बन जाए कभी तो इस कार्ड को वापस लेकर हमारी नागरिकता समाप्त कर सकता है

नौजवानों का यह दौर

आकार पटेल ने टाइम्स ऑफ इंडिया में उस नई पीढ़ी के नौजवानों को चिट्ठी लिखी है, जो 2018 में 18 साल के हो रहे हैं और पहली बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल करेंगे.

वह लिखते हैं- आपने हमें डेमोग्राफिक डिविडेंड दिया है, जो आखिरकार इस देश की गरीबी दूर करने की क्षमता रखती है. आप पूछेंगे कि हमने आपको बदले में क्या दिया. तो सुनिये- पहले थोड़ा मौजूदा हालात का विश्लेषण करने दीजिये.

आर्थिक मोर्चे पर हम जितनी बहादुरी भरी बातें कर रहे हैं वैसा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं. हमारी जीडीपी चीन की जीडीपी का पांचवां हिस्सा है. आज हम इकोनॉमी में रिकवरी शब्द का इस्तेमाल करते हैं. आखिर हम किस चीज से रिकवरी कर रहे हैं. न तो इस बारे में पूछा जाता है और न बताया जाता है. हमें बताया जाता है कि सिर झुका कर रखो.

सवाल न पूछो. आज आपके पास हमारी तुलना में अभिव्यक्ति के कई रास्ते हैं लेकिन पूरी आजादी के साथ अपनी बात करने की जगह बहुत कम. आप किससे मिलते हैं और किसे अपने घर बुलाते हैं इस पर भी नजर है. ऐसा करने पर आप विरोध के शिकार हो सकते हैं.

आखिरकार हमने आपको किसके संरक्षण में छोड़ा है. अफसोस कि संस्थागत तौर पर आपके पास काफी कम सुरक्षा. आज हमारी ज्यूडिशियरी इस बात पर अपना वक्त जाया करती है फिल्म देखने से पहले कौन सा कोड ऑफ कंडक्ट बनाया जाए.

राजनीतिक तौर हमने बहुसंख्यकवाद का दामन पकड़ा है. पाकिस्तान ,बांग्लादेश और श्रीलंका की तरह. देश के सामने तमाम चुनौतियों और हालात का जिक्र करते हुए पटेल कहत हैं- हम कहते हैं कि युवा हमारे भविष्य हैं. आपके पास चीजों से प्रभावित होने और इन्हें बदलने का मौका है. गुड लक.

सदन में भाईचारा बनाए रखें

और आखिर में कूमी कपूर की बारीक नजर. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में वह लिखती हैं- संसद में लोगों ने गौर किया कि लोकसभा और राज्यसभा के गलियारों में आते-जाते अमित शाह और राहुल गांधी के बीच दुआ-सलाम नहीं होती. नमस्कार आदि की बात तो दूर रही दोनों एक दूसरे की तरफ तक देखना भी पसंद नहीं करते.

संसद में यह परंपरा रही है कि भले ही सदन में आपस में कितना भी विरोध रहे सदन के बाहर उनके बीच सौम्यता भरा व्यवहार ही दिखने को मिलता है. कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने राज्यसभा में अरुण जेटली को ट्रिपल तलाक बिल लाने से रोक दिया.

लेकिन जेटली ने इस पर निजी कड़वाहट नहीं दिखाई. आनंद के जन्म दिन पर उन्होंने मुंबई से खास ऑर्डर देकर केक मंगवाया. केक पीयूष गोयल लेकर आए.

एक वक्त था जब लालकृष्ण आडवाणी सोनिया गांधी को नमस्कर करते थो वह अपना सिर दूसरी ओर घुमा लेती थीं. लेकिन बाद में दोनों के रिश्ते सामान्य हुए और वे एक दूसरे से बातें करते हैं. राहुल और अमित शाह भी सदन में भाईचारे की भावना का ख्याल रख एक दूसरे से संवाद करें. निजी रंजिश को सदन में भाईचारे की भावना के आड़े न आनें दें.

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