Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू: हरियाणा में हार, राहुल जिम्मेदार, सोनिया की दरकार? BJP की जीत के पीछे धर्मेंद्र प्रधान!

संडे व्यू: हरियाणा में हार, राहुल जिम्मेदार, सोनिया की दरकार? BJP की जीत के पीछे धर्मेंद्र प्रधान!

पढ़ें इस इतवार आदिति फडणीस, प्रभु चावला, तवलीन सिंह, करन थापर और आर राजगोपाल के विचारों का सार.

आशुतोष कुमार सिंह
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू</p></div>
i

संडे व्यू

(फोटो: क्विंट)

advertisement

हरियाणा में जीत के पीछे धर्मेंद्र प्रधान

आदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि हरियाणा में 90 में से 48 सीटें बीजेपी ने जीत लीं और अब उसे निर्दलीय विधायकों की कोई आवश्यकता नहीं. यह बात अलग है कि जीतने वाले तीन निर्दलीयों ने बीजेपी के लिए समर्थन का ऐलान किया है. इनमें कम से कम देवेंद्र कादियान के लिए यह घर वापसी है. बहादुरगढ़ से कांग्रेस के बागी उम्मीदवार राजेश जून विधायक बन जाने के बाद बीजेपी का समर्थन कर रहे हैं. यह सब संभव हुआ है तो इसके पीछे केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान हैं जो हरियाणा में बीजेपी के चुनाव प्रभारी थे. अपने दल में बागी नहीं होने देना, होने पर उन्हें डरा कर या ललचा कर साथ रखने की कोशिश सफल रही. वहीं, स्पर्धी दल में बागियों को जमकर बढ़ावा भी देना सफल रणनीति रही.

आदिति लिखती हैं कि कांग्रेस ने सभी 28 विधायकों को दोबारा टिकट दे दिया. उनमें से 14 हार गये. वहीं बागियों से जूझ रही बीजेपी ने कई से बातचीत और सौदेबाजी की, जिसकी बागडोर प्रधान के ही हाथ में थी. उन्होंने एक महीने से भी ज्यादा वक्त तक हरियाणा में डेरा डाला और साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल कर बागियों को अपने पाले में रखने की पुरजोर कोशिश की. नायब सिंह सैनी सरकार में मंत्री रहे रंजीत चौटाला जैसे बीजेपी के ज्यादातर बागी हार गये. यह ऐसा हुनर है जो प्रधान ने ओडिशा की राजनीति में लंबा समय बिताते हुए सीखा है.

धर्मेंद्र प्रधान मध्य ओडिशा के तलचर से हैं. उनके पिता देवेंद्र प्रधान राजनीति में सक्रिय थे और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहे थे. धर्मेंद्र तलचर कॉलेज में पढ़ते समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता बन गये थे और कॉलेज के पहली वर्ष में छात्र संघ के अध्यक्ष भी बन गए. हरियाणा से पहले अशोक प्रधान कर्नाटक, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, ओडिशा में भी पार्टी के लिए चुनाव का काम कर चुके हैं. यह सच है कि धर्मेंद्र प्रधान को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ेगा लेकिन आने वाले महीनों में अगर उन्हें जेपी नड्डा के बाद बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए तो आश्चर्य नहीं होगा. वैसे भी पार्टी में पूर्वी भारत का कोई नेता अध्यक्ष नहीं बन पाया है.

हार के लिए राहुल जिम्मेदार, सोनिया की दरकार

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि हरियाणा में कांग्रेस की हार व्याख्या से परे है. देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अब जीत के बजाए चुनाव में हार के लिए मशहूर हो गयी है. पेंडुलम पोलस्टर्स कांग्रेस को विजेता के रूप में देख रहे थे. घुटने टेक चुके राजनीतिक पंडित और मीडिया मसाला क्रिएटर्स अब कांग्रेस के अस्तित्व के संघर्ष की थकी हुई कहानी दोहरा रहे हैं. हमेशा की तरह फ्लॉप शो का खलनायक स्थानीय नेताओं को बताया जा रहा है. जुझारू कमांडर इन चीफ राहुल गांधी का मजाक उड़ाया गया है और उन्हें जलेबियां भी खिलाई गई हैं. गुटबाजी, गलत उम्मीदवार चयन, अनियमित वोटिंग मशीन, सामूहिक नेतृत्व की अनुपस्थिति और जातिगत ध्रुवीकरण जैसे सामान्य बहाने इस बात के स्पष्टीकरण के रूप में पेश किए गये कि राज्य में लगातार तीसरी बार एक सुनिश्चित जीत अपमानजनक हार में कैसे बदल गयी.

प्रभा चावला लिखते हैं कि पार्टी का एक वर्ग भूपेंद्र सिंह हुड्डा को हार का जिम्मेदार बता रहा है तो अन्य लोग पूर्व केंद्रीय मंत्री शैलजा कुमारी पर यह तोहमत डाल रहे हैं. हरियाणा का चुनाव कांग्रेस बनाम बीजेपी न होकर कांग्रेस बनाम कांग्रेस हो गया. यह स्थानीय जाति और समुदाय के सरदारों के बीच खुली लड़ाई थी. राहुल गांधी की अगुवाई वाले केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें एक साथ लाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. विद्रोहियों पर लगाम लगाने में असमर्थता के कारण एक दर्जन से अधिक सीटें कांग्रेस ने खो दीं. कांग्रेस में चुनाव के अभाव में गांधी के अनुयायी या फिर उनके गुट के चुने हुए लोग ही राज्यों पर फर्जी बॉस के रूप में थोपे जाते हैं.

2005 में आधे से अधिक राज्यों में शासन करने वाली पार्टी अब केवल तीन राज्यों में सत्ता में है. कांग्रेस की शक्ति का विरोधाभास यह है कि यह अपनी गहरी ग्रामीण जड़ों और गांधी के साथ जुड़े होने के कारण बची हुई है. उनके वफादार पार्टी को प्रॉक्सी के रूप में नियंत्रित करते हैं. सोनिया गांधी पार्टी में एकजुटता लाती हैं. राहुल ने खुद को पार्टी के भविष्य के रूप में रणनीतिक रूप से स्थापित करने के बजाए अपने वफादारों का समूह बनाने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है. उनकी दुर्गमता और आत्मभोगी अभिजात्यवाद ने कांग्रेस को विफल कर दिया है. अब संसद और राज्य विधानसभाओं में कांग्रेस के पास 25 प्रतिशत से भी कम सीटें हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का विश्वास है कि केवल सोनिया ही पार्टी को एकजुट रख सकती हैं और सामंजस्यपूर्ण ढंग से काम कर सकती हैं.

गांधी परिवार से अलग होकर ही फलेगी-फूलेगी कांग्रेस

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में एक पुराने कांग्रेसी मित्र से मुलाकात के हवाले से लिखा है कि कांग्रेस को गांधी परिवार की छाया से निकालने की जरूरत है. बीजेपी के समांतर राजनीति तभी खड़ी हो सकती है. सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस राजनीतिक दल न रहकर एक परिवार की निजी जायदाद बन गयी है. वह लिखती हैं कि कांग्रेस का हाल बिगड़ना शुरू हुआ डॉक्टर मनमोहन सिंह के दूसरे शासनकाल में जब सोनिया गांधी ने तय किया कि अब राहुल गांधी अपनी ‘विरासत’ संभाल सकने लायक हैं. जब राहुल गांधी ने मनमोहन सरकार का अध्यादेश पत्रकारों के सामने फाड़कर फेंक दिया था तो सबको समझ आ गया था कि राहुल की हैसियत देश के प्रधानमंत्री से बड़ी है और उनकी माताजी का राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भारत सरकार के मंत्रिमंडल से ज्यादा महत्वपूर्ण.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस दो लोकसभा चुनावों को बुरी तरह हार चुकी है और पिछले लोकसभा में भी केवल 99 सीटें आईं. राहुल गांधी की बातों और भाषणों में नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद से अहंकार आ गया है. वे ऐसे पेश हो रहे हैं जैसे प्रधानमंत्री बन गये हों. विदेश में कह चुके हैं कि लोकसभा चुनाव में धांधली न होती तो मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री न बनते. प्रधानमंत्री के 56 ईंच की छाती सिकुड़ जाने की बात भी राहुल लगातार कह रहे हैं. मोहब्बत की दुकानें खोलकर मोदी को किसी न किसी तरह हटाना ही ‘नीति’ है. जो मोदी ने अरबपतियों को दिया है वह सारा पैसा मजदूरों, किसानों और गरीबों को दे देने की बात करने को ही वे नीति समझ रहे हैं. ये नीति नहीं नारे हैं. लेखिका मानती हैं कि दस साल में अब तक राहुल यहीं पहुंच सके हैं तो समय आ गया है कि कांग्रेस गांधी परिवार के दरबार से निकल कर दोबारा राजनीतिक दल बनने की कोशिश करे.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

गाजा नरसंहार से खराब हुई इजराइल की छवि

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 7 अक्टूबर 2023 को हमास ने जो किया वह भयानक था. 1200 से अधिक इजराइली मारे गये. 250 बंधक बना लिए गये और देश सदमे में था. हालांकि तब इजराइल के प्रति दुनिया की सहानुभूति थी. वह पीड़ित था. हालांकि बदले में इजराइल ने बीते एक साल में जो किया है वह कहीं ज्यादा भयानक है. महिलाएं और बच्चों समेत 42 हजार फिलीस्तीनी मारे गये हैं. लगभग 1 लाख घायल हुए हैं. गाजा की पूरी 23 लाख की आबादी विस्थापित हो गयी. इजराइल के इस आक्रमणकारी तेवर से उसके लिए दुनिया की सहानुभूति खत्म हो गयी. इजराइली इच्छा के विरुद्ध हमास मिटा नहीं, बच गया. फिलीस्तीन का मुद्दा अब अंतरराष्ट्रीय एजेंडे पर आ चुका है. वाशिंगटन में भी यह मुद्दा है और दुनिया के विश्वविद्यालयों में भी. नेतन्याहू ऐसा हरगिज नहीं चाहते थे.

करन थापर लिखते हैं कि बीते एक साल में आयरलैंड, स्पेन और नॉर्वे ने फिलीस्तीन को मान्यता दी है. सऊदी अरब ने खुले तौर पर घोषणा की है कि फिलीस्तीन समस्या का समाधान इजराइल के साथ किसी भी राजनयिक समझौते के लिए एक शर्त है. बाइडन और कमला हैरिस की जुबान पर भी फिलीस्तीन एक देश के रूप में है. यहूदियों को एक देश के रूप में फिलीस्तीन अस्वीकार्य हो गया है. इसकी वजह यह डर है कि फिलीस्तीन यहूदी देश को हमेशा के लिए मिटा देना चाहते हैं. यह स्थिति इसलिए विडंबनापूर्ण है क्योंकि दुनिया फिलीस्तीनी लोगों के लिए न्याय की बात उठा रही है. पश्चिमी देश इजराइल के प्रशंसक हुआ करते थे लेकिन अब वह तिरस्कृत होता दिख रहा है. उसकी पहचान नरसंहार करने वाले देश के रूप में बनी है. खास बात यह है कि इजराइली इसे नहीं समझते. वे खुद को नरसंहार का दोषी नहीं मानते. यहूदी आज जो फिलीस्तीनियों के लिए कर रहे थे कभी हिटलर ने इन्हीं यहूदियों के लिए किया था.

शीशे का दिल

आर राजगोपाल ने टेलीग्राफ में ऑस्कर वाइल्ड से हैपी प्रिंस की कहानी सुनाते हुए लिखा है कि जिसे दुनिया हैपी समझती रही वह स्वयं कभी हैपी नहीं महसूस कर सका. दुनिया के दुख से दुखी उसकी सूजी हुई आंखें, गालों पर ठहरकर ओठो को चूमने वाला आंसुओं का सैलाब जब उसके पैरों पर गिरता है तो हैपी प्रिंस की मूर्ति से दरार की आवाज आती है मानों कुछ टूट गया हो. सच यह है कि शीशे का दिल दो टुकड़ों में टूट गया था. लेखक को विश्वास है कि स्टूडेंट्स के लिए तनाव मुक्त करने वाली किताब के लेखक नरेंद्र मोदी ने भी हैपी प्रिंस की कहानी जरूर पढ़ी होगी. छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा के ढहने से 17वीं शताब्दी के महान मराठा और आधुनिक हिंदू हृदय सम्राट के स्मारक का हृदय टूट गया है.

30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “मेरे लिए, मेरे सहयोगियों और सभी के लिए, शिवाजी महाराज सिर्फ एक राजा नहीं बल्कि एक पूजनीय व्यक्ति हैं...आज मैं उनके चरणों में अपना सिर झुकाता हूं और अपने देवता से क्षमा मांगता हूं.” मोदी ने कई बार यह सबूत पेश किया है कि उनका दिल शीशे से नहीं बना है. अपनी मां और रोहित वेमुला का जिक्र करते हुए वे अपने आंसू रोक नहीं पाए. फिर भी कभी नरेंद्र मोदी ने अपने दिल पिघलने का कोई संकेत नहीं दिया. न्यूयॉर्क स्थित ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान सभी 173 भाषणों का विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकाला कि कम से कम 110 भाषणों में मोदी ने इस्लामोफोबिक टिप्पणियां कीं.

मुसलमानों के लिए अलग सोच के आरोप से भी मोदी यह कहते हुए इनकार करते हैं, “जिस दिन मैं हिन्दू-मुस्लिम के बारे में बात करना शुरू करूंगा, मैं सार्वजनिक जीवन के लिए अयोग्य हो जाऊंगा. मैं हिन्दू-मुस्लिम नहीं करूंगा. यह मेरा संकल्प है.” 29 अगस्त को बंगाल के 22 वर्षीय मजदूर साबिर मलिक की हरियाणा में पीट-पीट कर इस संदेह में हत्या कर दी गयी कि वह गोमांस खा रहा था. महाराष्ट्र में गोमांस ले जाने का आरोप लगाकर ट्रेन में हमला किया गया. आर्यन मिश्रा की हत्या की भी खूब चर्चा रही. लेखक ने प्रिंस के शहर जानने की इच्छा को सामने रखते हुए बड़ा सवाल उठाया है कि ऐसी घटनाएं आम हैं.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT