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चेतन भगत ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि बजट को लोग अपने-अपने नजरिए से देखेंगे, मगर मूल बात यह है कि चीजों को देखने का हम कैसा नजरिया रखते हैं. लेखक दो उदाहरण देते हैं. एक में एक आंटी अपनी आया से छिपाकर फ्रीज में दूध और बटर रखती हैं कि कहीं वो चोरी न हो जाए. अविश्वास के माहौल में आया काम नहीं कर पाती. कई दिन आंटी की गैरमौजूदगी में चाय तक नहीं बन पाती. दूसरे उदाहरण में बिल गेट्स बताते हैं कि उन्हें परवाह नहीं रहती कि उनके दिए दान के कुछ हिस्सों का दुरुपयोग हो रहा है. आखिरकार बड़ा हिस्सा अपनी भूमिका निभा रहा है.
वह कहते हैं कि मुसलमानों के लिए जो नफरत पैदा हो रही है उसकी वजह भी यही है कि सोच बड़ी नहीं है. वह लिखते हैं कि चौकीदारी से बड़ी जम्मेदारी है भागीदारी. तभी बनेगा हमारा देश शानदार.
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने या विकास दर को तेज करने का इरादा छोड़ दिया है. निजी निवेश को बढ़ावा देने, नौकरियों का सृजन करने जैसी कोशिश भी सरकार ने नहीं दिखाई है. वह लिखते हैं कि एक बार फिर नाकाफी विकास दर के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार हो जाएं.
चिदंबरम ने लिखा है कि राजकोषीय घाटा 3.3 फीसदी के बजाए 3.8 फीसदी होना, विनिवेश से वांछित रकम नहीं जुटा पा सकना और खर्च करने के अपने ही लक्ष्य से पीछे रह जाना सरकार की बड़ी विफलता है. उनका कहना है कि टैक्सपेयर्स को 40 हजार करोड़ की राहत जरूर दी गई है लेकिन दो टैक्स व्यवस्था ने टैक्स को जटिल बना दिया है. कॉरपोरेट जगत के दबाव में डीडीटी भी हटा देने को उन्होंने गंभीर माना है. चिदंबरम मानते हैं कि आम बजट से पता चलता है कि सरकार ने सुधारों को पीछे छोड़ दिया है.
मेघनाद देसाई ने अमर उजाला में लिखा है कि बजट में कई चीजें अच्छी हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि भारत की विकास दर कैसे बढ़े, निवेश कैसे आए? मगर, बजट में इन सवालों के जवाब नहीं दिए गए हैं.
निवेशक आगे नहीं आ रहे हैं और बैंकों से लोन भी आसानी से नहीं मिल पा रहे हैं. देसाई ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के उस दावे को भी गलत बताया है कि सामान्य विकास दर 10 फीसदी रहने वाला है. लेखक का आकलन 8 फीसदी का है.
वह लिखते हैं कि टैक्स का सरलीकरण ऐसा होना चाहिए था कि आम लोगों को विशेषज्ञ के पास नहीं जाना पड़े. मगर, ऐसा नहीं हो सका. कृषि विकास दर के कम रहते हुए भी किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादे पर उन्होंने सवाल उठाए. वह सुझाते हैं कि किसानों के पास पैसे नहीं हों तो सरकार उन्हें पैसा दे तो वे पैसे से पैसा बना लेंगे जिससे कारोबार भी देश में चल पड़ेगा.
हिन्दुस्तान टाइम्स में रौशन किशोर ने लिखा है कि बजट उम्मीद के अनुरूप है. राजकोषीय घाटा 3.8 फीसदी पहुंच गया तो सरकार खर्च और आमदनी दोनों मामलों में लक्ष्य से भटक गई. अगर एलआईसी का विनिवेश घोषणा के अनुरूप हो पाता है तो यह देश में अब तक का सबसे बड़ा विनिवेश होगा.
2016-17 के बाद से ही भारतीय अर्थव्यवस्था नीचे की ओर बढ़ने लगी. बीते साल के बजट में विकास और राजस्व का गलत आकलन पेश किया गया था. स्थिति सुधर सकती है अगर भारत सरकार इस बात पर ध्यान दे कि भारत में गरीब अपनी आय का अधिकतम खर्च करता है. ऐसे में उनकी आमदनी बढ़ने से अर्थव्यवस्था में जान आ सकती है.
तवलीन सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि विश्वविद्यालयों में जो अशांति है उसकी वजह डर है. पढ़ाई खत्म होने के बाद नौकरी नहीं मिलने का डर. इसलिए पीएम नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती मंदी के काले बादल को दूर करना है.
तवलीन सिंह ने नोटबंदी और इंस्पेक्टर राज की भी याद दिलाई है. उन्होंने लिखा है कि अधिकारियों ने ऐसा माहौल बनाया कि उद्योगपतियों ने देश छोड़ना शुरू कर दिया. बड़ी संख्या में करोड़पतियों ने सऊदी अरब जाना पसंद किया. लेखिका का मानना है कि माहौल बदले जाने की जरूरत है, इसके बगैर मंदी का संकट दूर होता नहीं दिख रहा है.
शोभा डे टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं कि सरकार कह रही है- ऑल इज वेल, मगर ऐसा नहीं है. हम छात्रों पर निर्भर हो गए हैं कि वही स्थिति सुधार सकते हैं. बेचारे छात्र. हम क्यों उन पर इतना बोझ डाल रहे हैं? वे कब तक संघर्ष करेंगे? शोभा डे का मानना है कि दिल्ली में छात्रों के सड़क पर उतरने की परंपरा रही है, लेकिन मुंबई में नहीं. देश के अलग-अलग हिस्सों में छात्रों ने जिस तरह से विरोध जताया है वो अलग मिसाल है.
शोभा डे का कहना है कि सरकार मान रही है कि छात्र माहौल को अस्थिर कर रहे हैं. वह लिखती हैं कि तकनीक के इस युग में असंतोष को दबाना प्रशासन के लिए कहीं ज्यादा आसान है. मगर, छात्रों का असंतोष देशव्यापी है और स्वत: स्फूर्त है. वह लिखती हैं कि हमारे छात्र महत्वाकांक्षी हैं बेवकूफ नहीं. हमें भी उनकी आवाज के साथ अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए. उनकी आवाज किसी भी सूरत में अकेली नहीं पड़नी चाहिए.
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