संडे व्यू: नोटबंदी से लेकर क्रिसमस पर विशेष लेख

रविवार को पढ़िए आज के सबसे खास लेख

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भारत
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बदले वक्त का सामना

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने बीत रहे साल पर एक नजर डाला है.

फासीवाद और साम्यवाद पर उदार लोकतंत्र की जीत का युग 2016 में खत्म हो गया. ब्रेग्जिट और अमेरिका में ट्रंप की जीत ने इस परिवर्तन को पुख्ता कर दिया. पूरी दुनिया में वोटरों ने अब उदार लोकतंत्र के खिलाफ विद्रोह कर दिया है. अब यह उनकी आकांक्षाएं पूरी करने में समर्थ नहीं रहा. साफ तौर पर यह सभ्यता का संकट है. भारत में केजरीवाल (और शायद मोदी का) का उदय पुरानी भ्रष्ट राजनीति के खिलाफ विद्रोह था. हालांकि, ये नए नेता लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने का कोई फौरी तरीका नहीं ला पाए हैं. यही वजह है कि महत्वाकांक्षी जातियों - मसलन पटेल, मराठा , जाट और अहोम (असम) की ओर से नौकरियों में आरक्षण की मांग को इस असफलता के सबूत के तौर पर देखा जा सकता है. स्वामी लिखते हैं- 20वीं सदी में उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों में लोगों का जीवनस्तर ऊंचा उठा. लेकिन दशकों बाद ठहरे पारिश्रमिक और आर्थिक विकास दर ने लोगों में बेचैनी भर दी है. जब सरकारें बदलने के बाद भी चीजें नहीं बदलें तो सभ्यता की चमक खो जाती है. अब ग्लोबलाइजेशन एक अवसर नहीं खतरे के तौर पर देखा जा रहा है. और इस वजह से संरक्षणवादी प्रवृति तेजी से उभर रही है. बहरहाल पूरी दुनिया और चीन की तुलना में देखें तो भारत के पास तरक्की के ज्यादा अवसर हैं. लेकिन क्या यह वोट बैंक की राजनीति, ठहरी हुई पुलिस और न्यायिक प्रणाली और दुर्दांत राजनीतिक और कारोबारी अनैतिकता से ऊपर उठ सकेगा.

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नोटबंदी की मरीचिका

हिंदी दैनिक अमर उजाला में छपे कॉलम में चिदंबरम ने एक बार फिर नोटबंदी को निशाना बनाया है. इसमें उन्होंने रिजर्व बैंक की ओर से रोज नए-नए नियम, नोट बदलने और नए नोटों को लेकर भ्रष्टाचार, सरकार की बेचैनी और घबराहट का जिक्र तो किया ही है.

इसके साथ ही डिजिटल भुगतान और इससे जुड़ी मरीचिका का भी जिक्र किया है. खास कर चिदंबरम ने डिजिटल भुगतान में निजता के हनन का मुद्दा बड़े सलीके से उठाया है.

किसी युवा नागरिक को यह बताने की जरूरत क्यों नहीं पड़नी चाहिए वह अपने लिए अधोवस्त्र या जूते खरीद रही है या वह शराब खरीद रहा है? किसी जोड़े को यह बताने के लिए क्यों मजबूर किया जाए कि उन्होंने नितांत निजी छुट्टियां कहां बिताईं? किसी बुजुर्ग को इस बात का रिकार्ड रखना पड़े कि उसने एडल्ट डायपर्स और दवाएं कहां खरीदी थीं? सरकार और उसकी एजेंसियों को बिग डाटा के जरिये हमारी जिंदगी तक पहुंच होनी चाहिए? मुझे लगता है कि हर तरह के धन संबंधी लेन-देन को डिजिटल तरीके में बदलने से पहले देश में इन प्रश्नों पर बहस होनी चाहिए.

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अर्थव्यवस्था में ठहराव की छाया

इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने देश की आर्थिक भविष्य पर चिंता जताई है.

मेहता लिखते हैं- अगर मौजूदा आर्थिक हालातों की सुर्खियां बनाई जाए तो पहली हेडलाइन होगी- आर्थिक ठहराव की छाया. भले ही जीडीपी ग्रोथ हुई हो लेकिन निजी निवेश ठहर सा गया है. किसी भी अन्य संदर्भ में अगर निजी निवेश इस कदर रुक जाता तो हम हंगामा मचा देते. भारत में हम अक्सर यह मजाक करते हैं कि भारत, सरकार (राज्य) के बिना भी विकास कर सकता है. लेकिन दशक में यह पहली बार है जब चल रही परियोजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश निजी क्षेत्र के निवेश से ज्यादा बढ़ गया है. और लगता है कि आगे आने वाले कुछ वक्त तो ऐसा ही चलेगा. संक्षेप में कहें तो भारत ऐसी अर्थव्यवस्था बनता जा रहा है जो राज्य के रहने के बावजूद नहीं बढ़ रहा है बल्कि यह दिनों दिन इस पर ज्यादा निर्भर होता जा रहा है. इधर विदेश नीति के बारे में बात करें तो, यूपीए सरकार में हम अमेरिका से नजदीकियों पर बढ़ा-चढ़ा कर डर व्यक्त करते थे लेकिन अब अमेरिकी हितों से पूरी तरह सहयोग को भी विमर्श का विषय नहीं बनाया जा रहा है. जो हालात हैं उसमें प्रेस यूपीए सरकार के खिलाफ तलवारें लेकर पिल पड़ता लेकिन अब मोदी सरकार के जमाने में उसकी फुसफुसाहटें ही सुनाई देती हैं.  

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उलट-फेर का मुश्किल दौर

इंडियन एक्सप्रेस में मेघनाद देसाई ने लिखा यह वह साल है, जिसे नोटबंदी की जगह कई अन्य घटनाओं ने ज्यादा प्रभावित किया.

यह वह साल है, जिसे नोटबंदी की जगह कई अन्य घटनाओं ने ज्यादा प्रभावित किया. ब्राजील में पहली महिला राष्ट्रपति पर अभियोग चलाया गया और उन्हें हटाया गया. यही हाल दक्षिण कोरिया की राष्ट्रपति ज्यून हाई का हुआ. ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ब्रेग्जिट पर रेफरेंडम हार गए. थेरेसा मे ब्रिटेन की दूसरी महिला राष्ट्रपति बनीं. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया. क्या ही उलट-फेर माहौल है. उन्होंने कहा था कि अगर वे चुनाव हारते हैं तो वे चुनाव में गड़बड़ी का आरोप लगाएंगे. इसके उलट डेमोक्रेट्स ने चुनाव में गड़बड़ी का आरोप लगाया. जब उन्होंने रूस से दोस्ती की वकालत की तो विदेश नीति प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों ने कहा कि उसके साथ पुराने समीकरण के तौर पर ही व्यवहार किया जाए. इस बीच, उन्होंने ताइवान फोन कर उलटफेर का परिचय दिया. दूसरी ओर नजर दौड़ाएं. अलेप्पो बरबाद हो चुका है. न वहां संयुक्त राष्ट्र के प्रावधानों का इस्तेमाल हो रहा और न सीरिया के राष्ट्रपति पर कोई फर्क पड़ रहा है. अमेरिका को वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक को उलझ कर बाहर निकलना पड़ा है. यही वजह है कि ट्रंप एक बार फिर अमेरिका को महान बनाना चाहते हैं. इऩ अराजकताओं को बीच यह देखना दिलचस्प है कि भारत जैश-ए-मोहम्मद को यूएन से आतंकी संगठन घोषित कराना चाहता है. क्या फर्क पड़ता वह आतंकी संगठन घोषित हो या नहीं. यूएन के नियमों का पालन कहां हो रहा है. वैसे भी यह दुनिया अब नियमों से कहां चल रही है. आगे आने वाले दशक सिर्फ ताकत की होगी. न सिर्फ सैन्य ताकत बल्कि साइबर ताकत का प्रभाव होगा. यह सिर्फ ऐसी दुनिया होगी जहां सिर्फ शारीरिक और भौतिक ताकत ही नहीं मानसिक ताकत की भी जरूरत होगी. भारत के पास ये हैं लेकिन उसे दोस्तों की भी जरूरत होगी. 

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क्रिसमस – खुशियां मनाने, करुणा जगाने का वक्त

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने अनोखे अंदाज में क्रिसमस की खुशियों को याद किया है.

ब्रिटेन में क्रिसमस का स्वागत उसी तरह होता है जैसे भारत में दीवाली का. खाना-पीना और कैरल सिंगिंग का दौर चलता है. शॉपिंग की बहार रहती है. जरूरत से ज्यादा खाने पर भी कोई न कोई आपको यह कह कर उकसाता है कि थोड़ा और..... इट्स क्रिसमस. भारत में शादियों की तरह इंग्लैंड में क्रिसमिस में लोग झिझक छोड़ देते हैं. मेरी आवाज बेहद कर्कश है फिर भी इंग्लैंड में रहने के दौरान मैं कैरल सिंगिंग में खुल कर हिस्सा लेता था. ब्रिटेन में क्रिसमस परिजनों और रिश्तेदारों को मिलने का समय होता है. खास कर दादा-दादी और नाना-नानी के साथ समय बिताने का अवसर. इंग्लैंड में महारानी की स्पीच एक जरूरी चीज हुआ करती है. पांच मिनट के इस संक्षिप्त भाषण में क्या कहा गया यह शायद ही कोई याद रखता है. लोग बाद में महारानी के हाव-भाव की नकल उतार कर उनका मजाक भी बनाते हैं. लेकिन महारानी के प्रति प्रेम और आदर बना हुआ है. इंग्लैंड में क्रिसमस चेतनाओं को जगाने का भी वक्त होता है. बीबीसी ने ठीक क्रिसमस से पहले इथोपिया के अकाल की रिपोर्ट दिखाई थी जिसने बॉब जेलडॉफ को उनकी मदद के लिए कंसर्ट करने के लिए प्रेरित किया. आपके लिए इससे ज्यादा हृदय विदारक और क्या हो सकता है कि आप भोजन लिये हुए हों और आपके सामने भूख से मरता कोई बच्चा दिख जाए. लेकिन अफसोस पता नहीं देने की प्रवृति हमारे यहां कहां चली गई है. अभी भी हमें देने की कला सीखनी है. हम लेने वाले लोगों के देश की तरह हैं.  

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एक महान पर्यावरणकर्मी का महाप्रयाण

अमर उजाला में वरिष्ठ पत्रकार कुमार प्रशांत ने मशहूर पर्यावरणकर्मी अनुपम मिश्र को याद किया है. मिश्र का पिछले सप्ताह पहले कैंसर से निधन हो गया था.

पर्यावरण की चिंता में उन्होंने (अनुपम मिश्र) कभी युद्ध घोषित नहीं किए, हालांकि पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनाने और उसे जमीन पर उतारने का उनका काम किसी से कमतर नहीं था. आज इतने अधिक लोग, इतनी आक्रामकता से पर्यावरण की रक्षा करने में जुटे हैं कि उनसे ही पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है. अनुपम इस भीड़ से एकदम अलग और अपने काम में मन भर डूबे, तन्मय नजर आते थे तो इसलिए कि वह पर्यावरण के विनाश को मनुष्य से अलग करके नहीं देखते थे. राजस्थान की रजत बूंदें, फिर आज भी खरे हैं तालाब ने एक के बाद एक हमें अचंभित भी किया और मोहित भी. इन किताबों के इर्द-गिर्द जैसा लोक जागरण हुआ- हजारों की संख्या में नए-पुराने तालाब तैयार हो गए- वैसा किताबों से संभव हो सकता है यह सत्य का पुनराविष्कार सरीखा था.  

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