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संडे व्यू: चार दशक में 16 गुणा मजबूत हुआ भारत, चुनावी वादे क्यों न करें दल?

जरूर पढ़ें इस रविवार टीएन नाइनन, पी चिदंबरम, तवलीन सिंह, चाणक्य और संजय कुमार के विचारोत्तेजक लेखों का सार.

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भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें बढ़े अखबारों में छपे के आर्टिकल

(फोटो: Altered by Quint)

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चार दशक में 16 गुणा मजबूत हुआ भारत

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने लिखा है कि आईएमएफ की ओर से जारी ताजा आंकड़ों के हवाले से लिखा है कि 2011-21 के दशक में चार सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले देश हैं बांग्लादेश, चीन, वियतनाम और भारत. इन चार देशों में केवल दो ही बीते दशक में बेहतर आर्थिक प्रदर्शन किया. इनमें चीन पहले नंबर पर है. भारत ने उस समय असाधारण रूप से बेहतर प्रदर्शन किया जबकि बाकी देश भी ऐसा ही प्रदर्शन कर रहे थे. इससे पहले के दशकों यानी 1991-2001 और 1981-1991 के बीच भारत ने या तो उभरते बाजारों के औसत से बेहतर प्रदर्शन किया या उसका प्रदर्शन उनसे कुछ ही कमजोर रहा.

टीएन नाइनन लिखते हैं कि 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्ता के 6.8 प्रतिशत की दर से विकसित होने की बात कही जा रही है, जबकि अन्य सभी उभरते बाजारों की वृद्धि दर 3.7 फीसदी होने का अनुमान है. उभरते बाजारों के औसत से 3 फीसदी से ऊपर का यह औसत अगले साल भी 2.4 फीसदी पर बना रहेगा. लेखक का मानना है कि चीन में आयी मंदी के कारण उभरते बाजारों का औसत कम हुआ है.

नाइनन लिखते हैं कि आईएमएफ शायद डिकपलिंग का संकेत दे रहा है. यह वह परिस्थिति होती है, जहां दो संपत्ति वर्ग एक साथ विपरीत दिशा में बढ़ने लगते हैं. इस स्थिति में भारत के आर्थिक प्रदर्शन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. 1981 से 2021 के चार दशकों को एक साथ गिना जाए तो आईएमएफ के आंकड़े बताते हैं कि केवल तीन देश ही भारत बेहतर प्रदर्शन कर सके हैं. इनमें चीन, दक्षिण कोरिया और वियतनाम शामिल हैं. मिस्र, श्रीलंका, बांग्लादेश और ताइवान जैसे देशों के साथ भारत रहा जिसकी अर्थव्यवस्था का आकार इस दौरान 16 गुणा बढ़ा है.

हिन्दी, हिन्दू है हिन्दुस्तान?

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते 11 अक्टूबर को उज्जैन के महाकाल मंदिर में थे और जय -जय महाकाल का उद्घोष कर रहे थे. भगवा वस्त्र में माथे पर तिलक के साथ हिन्दू इंडिया का संदेश दिया जा रहा था. करीब उसी समय में गृहमंत्री अमित शाह हिंदी को देशभर में सरकारी कामकाज की भाषा बनाने का संकल्प जता रहे थे.

चिदंबरम लिखते हैं कि उन्हें खुशी होती अगर प्रधानमंत्री किसी मस्जिद या चर्च में भी जाते. वे दूसरे धर्म की धार्मिक यात्रा पर भी जाते. हिन्दू श्लोकों का उच्चारण करने वाले पीएम अगर दूसरे धर्म के उद्धरणों का भी उच्चारण करते तो उन्हें खुशी होती.

केंद्रीय विद्यालय, आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी को निर्देश देने वाली अनिवार्य भाषा बनाने पर लेखक पूछते हैं कि क्या गैर हिन्दी भाषी राज्यों में भी ऐसा ही होगा? जिन्हें हिन्दी नहीं आती क्या उन्हें सरकारी नियुक्तियों से वंचित कर दिया जाएगा? क्या बंगाल, ओडिशा या तमिलनाडु में आधिकारिक काम करने के लिए हिन्दी सीखने को मजबूर किया जाएगा?

ऐसे ही सवालों की फेहरिस्त के साथ चिदंबरम लिखते हैं कि अगर वे असमी या मलयाली होते तो उन्हें लगता कि वे आधे नागरिक हैं. अगर वे मुसलमान और ईसाई होते तो उन्हें महसूस होता मानो वे नागरिक ही नहीं हैं.

एक बुरा धार्मिक विचार क्यों स्वीकार हो?

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि हिजाब पर सुप्रीम कोर्ट के विभाजित फैसले ने इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया है. शिक्षा पाने के लिए मुस्लिम लड़कियों को हिजाब में रहना चाहिए या नहीं- यह विमर्श का सवाल बन चुका है. एक कॉलेज में हिजाब प्रतिबंधित हो जाने से बच्चियां किसी और जगह पढ़ने को जाएंगी- यह तर्क गले नहीं उतरता. अब बड़ी संवैधानिक बेंच इसकी सुनवाई करेगी.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि वह लड़कियों पर हिजाब थोपने के खिलाफ हैं और इसकी कई और भी वजह हैं. लेखिका का मानना है कि सभी धर्मो के नियमों और परंपराओं पर चर्चा समय-समय पर होती रहनी चाहिए. भारत इस्लामिक देश नहीं है. किसी भी धर्म को एकतरफा अभियान चलाने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. आश्चर्य होता है इस सोच पर कि अगर लड़कियां हिजाब पहन कर नहीं निकलेंगी तो लड़के मनमानी करेंगे. क्यों नहीं कभी पुरुषों को तमीज सिखाने की जरूरत महसूस की जाती है?

लेखिका इस बात का भी खंडन करती हैं कि हिजाब पहनना ठीक वैसे ही जैसे सिख का पगड़ी पहनना. ऐसा कभी नहीं सिखाया जाता है कि पगड़ी नहीं पहनने पर लड़कियां लड़कों के लिए उत्तेजित हो जाएंगी. लेखिका जज के इस फैसले से सहमत नहीं हैं कि किसी रूढ़िवादी परिवार को धार्मिक प्रचलन के हिसाब से हिजाब पहनाने का अधिकार दिया जाए.

लेखिका का मानना है कि 9/11 हमले के बाद से आम मुसलमानों में धारणा यह है कि जानबूझकर इस घटना को अंजाम दिया गया ताकि दुनिया भर में मुसलमानों पर हमले किए जा सकें. भारत में भी नफरती नारों के बीच मुसलमानों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है. यही कारण है कि हिजाब के नाम पर वे अपनी असुरक्षा के खिलाफ लड़ते दिख रहे हैं.

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नये कांग्रेस अध्यक्ष की चुनौतियां

चाणक्य ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 136 साल पुरानी कांग्रेस के 24 अकबर रोड स्थित मुख्यालय के एक मंजिला सफेद भवन में अध्यक्ष के लिए वोटिंग की तैयारी चल रही है. ऐसी ही तैयारी देशभर के 28 प्रदेशों की राजधानियों के कांग्रेस मुख्यालयों पर है जहां मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर के लिए 9000 वोटर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. दोनों में से कोई एक सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी का स्थान लेंगे. कांग्रेस इस चुनाव को कांग्रेस के मजबूत अंदरूनी लोकतंत्र के रूप में पेश कर रही है. वहीं जनता से जुड़ने के लिए राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जारी है.

चाणक्य लिखते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के दौरान राजस्थान में अभूतपूर्व स्थिति पैदा हुई और पार्टी आलाकमान को चुनौती पेश की गयी. ऐसे में नये कांग्रेस अध्यक्ष के सामने भी कई चुनौतियां होंगी जिन्हें तीन हिस्सों में बांटकर देख सकते हैं- तात्कालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक.

तात्कालिक चुनौती हिमाचल प्रदेश और गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं, जहां कांग्रेस मुश्किल हालात का सामना कर रही है. नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ उत्तराखंड की तरह हिमालचल में भी बारी-बारी से सत्ता बदलने के इतिहास को बदलने में बीजेपी जुटी है. वहीं गुजरात में भी बीजेपी के सामने कांग्रेस की चुनौती स्पष्ट नहीं है. कई कांग्रेसी नेता बीजेपी में जा चुके हैं. आम आदमी पार्टी पूरे दमखम के साथ चुनाव मैदान में है और विपक्ष का स्थान लेने को आतुर है.

मध्यकालिक चुनौती नये कांग्रेस अध्यक्ष की यह रहने वाली है कि वह जमीनी स्तर पर संगठन को इस रूप में खड़ा करें कि क्षेत्रीय क्षत्रपों के रहते पार्टी का संदेश आम जनता तक जा सके. दीर्घकालिक चुनौती है संगठन के आदर्शों को जनता तक पहुंचाना. विभिन्न मुद्दों पर कांग्रेस कहां खड़ी है. विकास का मॉडल, हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, लोककल्याणकारी सोच जैसे मुद्दों पर अधिक स्पष्टता के साथ जनता के बीच जाना होगा.

चुनावी वादे क्यों न करें दल?

संजय कुमार ने दैनिक भास्कर में लिखा है कि कई बार राजनीतिक दल ऐसे वादे कर बैठते हैं जो विवेक संगत नहीं मालूम पड़ते. लेकिन, इसका निर्णय मतदाताओं के विवेक पर छोड़ देना बेहतर होगा. चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के वादों पर मूकदर्शक नहीं बना रहना चाहता है. इसलिए उसने आदर्श आचार संहिता के आठवें भाग में एक मानकीकृत प्रोफोर्मा जोड़ने का प्रस्ताव रखा है. इसमें दलों को यह उल्लेख करना होगा कि चुनावी वादों को पूरा करने के लिए पैसा कहां से आएगा, वह पैसा किस माध्यम से प्राप्त किया जाएगा और इसका सरकार की वीत्तीय दशा पर क्या असर पड़ेगा.

संजय कुमार लिखते हैं कि चुनाव आयोग के कदम से राजनीतिक दलों की जवाबदेही बढ़ेगी और वे मनमाना वादा करके जनता को मूर्ख नहीं बना पाएंगे. लेकिन, राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाने का यह यह प्रबंधकनुमा तरीका ज्यादा कारगर साबित होगा, इसमें संदेह है.

भारत जैसे लोक कल्याणकारी देश में राजनीतिक दल वेलफेयर गतिविधियों में सम्मिलित हों, यह जरूरी है. लेखक का सवाल है कि अगर राजनीतिक दल वादे नहीं करेंगे तो सरकार की ओर से कौन यह काम करेगा? यह बात वोटरों से छुपने वाली नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां झूठे वादे कर लोगों को मूर्ख बना रही हैं. इस तरह चुनाव आयोग की मंशा भले ही सही हो, लेकिन उसके तौर-तरीके सही मालूम नहीं पड़ते. वोटर केवल वादों के आधार पर किसी को वोट नहीं दे देता है. चुनावी वादे अधूरे रहने के बावजूद कई दल दोबारा सत्ता में चुनकर आते रहे हैं.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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