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इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि कुछ हादसे ऐसे होते हैं जिनके मलबे में दिखती हैं भारत की राजनीतिक और प्रशासनिक कमजोरियों की तस्वीरें. मोरबी (Morbi Accident) के टूटे पुल के मलबे को टटोलने से ऐसा ही आईना नजर आता है. इसमें दिखता है कि मारे गये 135 लोग जिनमें बच्चे और महिलाएं शामिल थीं. मोरबी के अधिकारी की बात झूठ और शर्मनाक है कि भगवान की मर्जी से यह हादसा हुआ. मरने वालों को किसी ने नहीं रोका या किसी ने नहीं बताया कि नगरपालिका ने इस पुल के सुरक्षित होने का सर्टिफिकेट नहीं दिया है.
हादसे के कुछ घंटे बाद ही बीजेपी के आईटी सेल ने कहना शुरू कर दिया कि घटना में ‘अर्बन नक्सलियों’ का हाथ है. निशाना आम आदमी पार्टी पर था जिसे सर्वेक्षणों में बीजेपी का नुकसान करता बताया जा रहा है. राजनीतिक रोटियां सेंके जाने के आरोप लगे. लेखक पूछती हैं कि क्यों नहीं रोटियां सेंकीं जानी चाहिए? 27 साल से जिस गुजरात मॉडल का ढोल पीटा जा रहा था उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये मोरबी के पुल में. कैसा ‘न्यू इंडिया’ बन रहा है मोदीजी आपके राज में?
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मोरबी की घटना में किसी ने माफी नहीं मांगी, किसी ने इस्तीफे के पेशकश नहीं की और इस बात की पूरी संभावना है कि कोई जवाबदेह नहीं ठहराया जाएगा. छह साल पहले बंगाल में पुल गिरने की घटना में कुछ लोगों की गिरफ्तारी और भ्रष्टाचार की बात सामने आने के बावजूद आज तक मुकदमा नहीं चल सका है. मोरबी में भी कहानी दोहरायी जाती दिख रही है. छोटे स्तर के कामगारों की गिरफ्तारियां इसका प्रमाण है.
इनमें टेंडर जारी करने, ठेकेदार की नियुक्ति की जिम्मेदारी, पुल के जीर्णोद्धार की योजना, ठेकेदार की योग्यता, वाकई मरम्मत और जीर्णोद्धार का काम हुआ या नहीं, जनता के लिए पुल खोलने से पहले मंजूरी लेने और कारोबारी बंदोबस्त से जुड़े सवाल उठाए हैं. लेखक का मानना है कि कोलकाता और मोरबी की घटना एक जैसी होने के बावजूद छह साल में कोई बदलाव नजर नहीं आता. जिम्मेदारी लेने के लिए शासन-प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व तैयार नजर नहीं आता.
करन थापर ने है कि टेलीग्राफ में लिखा है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने न सिर्फ बीआर अंबेडकर को आइकॉन माना है बल्कि उन्हें अपना विशेष नायक भी स्वीकार किया है. 2015 में प्रधानमंत्री ने कहा कि अंबेडकर न सिर्फ एक समुदाय के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणास्रोत थे. 2016 में उन्होंने खुद को अंबेडकर भक्त बताया. अंबेडकर कहा करते थे “अगर हिन्दू राज वास्तविकता होगी तो यह देश के लिए निस्संदेह सबसे बड़ी त्रासदी होगी.“ वास्तव में अंबेडकर हिन्दूवाद के घोर विरोधी थे. सवाल यह है कि क्या बीजेपी अंबेडकर के इन विचारों को नहीं जानती थी? या फिर वह मानती थी कि दुनिया इन बातों से अनजान रहेगी या फिर उन्हें पता नहीं चलेगा?
थापर लिखते हैं कि 1948 में अंबेडकर ने आगाह किया था, “अल्पसंख्यक विस्फोटक ताकत है जो अगर फट पड़ा तो देश के समूचे ताने-बाने को नष्ट कर दे सकता है.” आज अंबेडकर सबसे चिंतित व्यक्ति होते. लेकिन क्या बीजेपी इसे साझा करेगी? लेखक को संदेह है कि भारत को लेकर बीजेपी की सोच के साथ अंबेडकर होते. वे सवाल करते हैं कि नरेंद्र मोदी जैसे भक्त पाकर क्या अंबेडकर गर्व महसूस करते? क्या वे विश्वास करते कि उनके नक्शेकदम पर चल रहे हैं मोदी?
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में सवाल उठाया है कि क्या भारत में आंकड़ों को लेकर गोपनीयता बरती जा रही है? रोजगार को लेकर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकॉनमी (सीएमआईई) के आंकड़ों का इंतजार रहता या है तो शिक्षा पर गैर लाभकारी संस्थान ‘प्रथम’ के आंकड़े विश्वसनीय रहे हैं. आईएचएस मार्किट का परचेजिंग मैनेजर इंडेक्स, कंपनियों की क्रेडिट से जुड़े ‘क्रिसिल’ के आंकड़े और तकनीक के क्षेत्र में सेंटर फॉर टेक्नॉलजी, इनोवेशन एंड इकनॉमिक रिसर्च के आंकड़े अहम रहे हैं. मॉनसून का पूर्वनानुमान लगाने में सरकारी आंकड़ों पर स्काइमेट ने बढ़त हासिल की है.
जीडीपी के आंकड़ों में बारंबार संशोधन संदिग्ध माने गये हैं. नियमित होती रही जनगणना 2021 में होनी थी, अब तक नहीं हो पायी है. हालांकि जीडीपी के तिमाही, कारोबार और राजकोषीय आंकड़ों की स्थिति सुधरी है. फिर भी आर्थिक मामलों पर पुराने और अप्रासंगिक आंकड़े ही मंत्रालयों की वेबसाइट पर नजर आते हैं. लेखक का मानना है कि विश्वसनीय, संपूर्ण और तेज गति और आवृत्ति से हासिल होने वाले आंकड़ों के बिना न तो सरकार सही ढंग से काम कर सकती है, न ही योजना बना सकती है.
फॉरेन पॉलिसी (एफपी) में रामचंद्र गुहा ने नरेंद्र मोदी के कद की ऐतिहासिक संदर्भ में तुलना की है. उन्होंने लिखा है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. जबकि, बीजेपी का दावा है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी है. मोदी के व्यक्तित्व का जो ताना बाना बुना गया है वह उल्लेखनीय है. सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में फरवरी 1956 में निकिता ख्रुश्चेव ने अपने मशहूर भाषण में ‘कल्ट ऑफ पर्सनालिटी’ का इस्तेमाल किया था.
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि स्टालिन अकेला उदाहरण नहीं थे. वियतनाम में होची मिन्ह, क्यूबा में फिडेल कास्ट्रो, अल्बानिया में एनवर होक्ज़ा, उत्तर कोरिया में किम इल जोंग, चीन में माओत्से तुंग जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं. इससे पहले इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर का कद उतना ही बड़ा था. मुसोलनी और हिटलर के उदय के सौ साल बाद दुनिया ऐसे ही तानाशाहों के उदय को देख रही है.
रूस के व्लादिमिर पुतिन, तुर्की के रिसेप तैय्यप एर्डोगान, हंगरी के विक्टर ओरबान, ब्राजील के जैर बोल्सानारो, नरेंद्र मोदी ऐसे ही उदाहरण हैं. इन सबके व्यक्तित्व के गिर्द सरकार घूम रही है और इन्हें देश के रक्षक के तौर पर देखा जाता है जो अत्यन्त शक्तिशाली हैं. लेखक लिखते हैं कि शत फीसद लोकतंत्र जैसा कुछ नहीं होता लेकिन दुनिया के कई देशों में अगर 70-30 फीसदी वाला लोकतंत्र है तो भारत में 50-50 फीसदी वाला लोकतंत्र है.
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