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स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया ने टाइम्स ऑफ इंडिया में भारतीय और दुनिया के शेयर बाजारों में आई तेजी का जिक्र किया है और कहा है कि यह गुमराह करने वाला है. अंकलसरैया ग्लोबल अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार का जिक्र करते हुए लिखते हैं- ग्लोबल इकोनॉमी अब 2003 से 2008 के बीच तेज रफ्तार दौर में नहीं है. चीन की अर्थव्यवस्था जो उस दौरान खुद 12 से 14 फीसदी की की दर से बढ़ रही थी अब सिर्फ 6.5 फीसदी की दौर से बढ़ रही है. अमेरिका, यूरोप और जापान की अर्थव्यवस्था में रिकवरी हो रही है लेकिन पहले की तुलना में विकास दर बेहद कम है.
फिर इन कमजोर हालातों में दुनिया के शेयर बाजार क्यों चढ़ रहे हैं. यह इसलिए कि पश्चिमी देशों के केंद्रीय बैंकों ने पिछले सात सालों में खरबों डॉलर प्रिंट किए हैं ताकि अपनी अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर ला सकें. इन बैंकों खरबों डॉलर के बांड और फाइनेंशियल असेट्स खरीदें हैं. इसने भी शेयर बाजार को चढ़ाया है. शेयर मार्केट का यह बुलबुला अभी थोड़े दिन और बढ़ेगा. फूटने की स्थिति में भारत जैसी अर्थव्यवस्था क्या होनी चाहिए. सबसे पहले इसे अपनी मार्जिन जरूरत को एडजस्ट करना चाहिए और फाइनेंशियल असेट्स में अपना निवेश कम करना चाहिए. आरबीआई को विदेशी मुद्रा रिजर्व मजबूत करना चाहिए ताकि एफपीआई की बड़ी निकासी से निपटा जा सके.
इंद्रजीत हाजरा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में नोएडा की महागुन मॉर्डन सोसाइटी में रहने वाले और उनके यहां काम करने वाले घरेलू नौकरों के बीच टकराव का जिक्र करते हुए भारतीय शहरों में तेजी से बढ़ रहे मध्यवर्गीय मानसिकता पर करारी चोट की है. महागुन मॉर्डन में काम करने वाली महिला जोहरा बीबी को उसके मालिक ने इसलिए बंधक बना लिया था कि उसने उनके पैसे चुरा लिए थे. इससे नाराज, सामने की झुग्गी में रहने वाले उसके परिवार और साथियों ने सोसाइटी पर हमला कर दिया था.
इन नौकरों, आया और ड्राइवरों से सोसाइटी में रहने वाले कैसा व्यवहार करते हैं, इसका एक उदाहरण का जिक्र करते हुए हाजरा लिखते हैं-
हाजरा को कोलकाता के एक क्लब में साफ लिखा मिला – आया, नौकरों और ड्राइवरों का पूल (स्वीमिंग पूल) साइड में आना मना है. शहर के एक रेस्तरां में एक महिला के ड्राइवर को खाना खाने से इसलिए रोक दिया कि वह ड्राइवर जैसा दिख रहा था.
बहरहाल, महागुन मॉर्डन में सामने की झोपड़पट्टी से काम करने आने वाले लोग इसलिए भी आंख की ज्यादा किरिकरी बने कि इनमें से ज्यादातर मुसलमान थे. भारत में दलितों या मुसलमान जैसे दिखने वाले ट्रेन में बैठे यात्री पर हो रहे हमलों से ज्यादा एक और खतरनाक चीज अंदर ही अंदर घातक रूप लेती जा रही है. और वह है कि इस देश के बहुसंख्यकों के बीच ही बढ़ता वर्ग विभाजन. अमीर जिस तरह से अपने से नीचे के लोगों को हिकारत और हीन भावना से देख रहा है, उसमें ज्यादा विकल्प नहीं बचता.
हिंदी अखबार जनसत्ता में पी चिदंबरम ने कश्मीर समस्या के लगातार जटिल होते जाने पर चिंता जताई है. वह लिखते हैं- केंद्र सरकार- वह किसी भी पार्टी की रही हो या कोई भी प्रधानमंत्री रहा हो- उसने हमेशा संबंधित पक्षों में से किसी एक या कई पक्षों से संवाद करने की कोशिश की.
उग्रवादियों ने अतिवादी रुख अख्तियार कर रखा है, जो पूरी तरह अस्वीकार्य है. दूसरी तरफ सरकार का रुख भी अतिवादी है जिससे समस्या और विकट हुई है. कश्मीर घाटी के लोग दो अतिवादी रुखों के बीच फंस गए हैं. नतीजतन, दिन-ब-दिन जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक तथा सुरक्षा की स्थिति और बिगड़ती जा रही है.
हम कुछ भी कहें या लिखें उससे उग्रवादियों का निर्मम (और गलत) रुख नहीं बदलेगा; उनसे फौजी ताकत से ही निपटना होगा. लेकिन हमारे बोलने या लिखने से सरकार के कठोर (और गलत) रुख पर कोई फर्क नहीं पड़ता, तो इससे यही लगता है कि हम स्थायी समाधान के रास्ते पर नहीं, बल्कि स्थायी व्यवधान के रास्ते पर हैं.
वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने दैनिक जनसत्ता में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के बावजूद सरकार की आलोचनाओं का जिक्र किया है. उन्होंने लिखा है कि मोदी ने जब कहा था कि वह अनावश्यक हस्तक्षेप की नीति खत्म करेंगे तो उन्हें अच्छा लगा था लेकिन अब सरकार दखल देने की नीति पर चल रही है. याद है कि कितनी बार उन्होंने कहा था कि उनकी राय में सरकार को बिजनेस में होना ही नहीं चाहिए? याद है कि कितनी बार उन्होंने कहा कि अगर वे प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो प्रशासनिक हस्तक्षेप उन क्षेत्रों में बिल्कुल होने नहीं देंगे, जहां हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है?
रही बात सरकारी हस्तक्षेप को हमारे निजी जीवन में कम करने की, तो हुआ उलटा है पिछले तीन वर्षों में. जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, वहां सरकारी अफसर हमारे घरों के अंदर घुस कर यह भी जांच कर रहे हैं कि हम गोश्त पका रहे हैं तो वह किसका है. प्रशासनिक दखल की हद हमने पिछले हफ्ते देखी, जब सेंसर बोर्ड ने अमर्त्य सेन पर बनी एक फिल्म को रोका, सिर्फ इसलिए कि निर्देशक उसमें से गाय, हिंदू, हिंदुत्व और गुजरात शब्द निकालने को राजी न हुआ. चलिए इस बहाने अगर प्रधानमंत्री सेंसर बोर्ड और सूचना प्रसारण मंत्रालय को समाप्त करके दिखाते हैं, तो इस मोदीभक्तन का विश्वास फिर से उनमें जाग उठेगा.
दैनिक अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने खुशवंत सिंह और उनके हास्य बोध को याद किया है. उन्हें एक सरल सरदार जी के तौर पर याद करते हुए उन्होंने उन्हीं के लेखन का जिक्र किया है.
लोकतंत्र और बहुलतावाद के प्रति खुशवंत सिंह की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है लेकिन उनका भोलापन उसे लगभग निष्प्रभावी बना देता है. कुछ दूसरे लेखकों की तरह वह खुशामद या चापलूसी से तात्कालिक तौर पर प्रभावित हो जाते थे. मगर ताकतवर व्यक्ति उनसे मधुर स्वर में बात करते थे तो वह उनके क्रियाकलापों पर ध्यान दिए बगैर उन पर विश्वास कर लेते थे. वर्ष1971 में उन्होंने सोचा था कि वह गोलवलकर को हिंदू-मुस्लिम एकता का पैरोकार बना देंगे. कुछ वर्षों बाद उन्होंने एक और अहितकारी व्यक्ति संजय गांधी को देखा.
एशियन एज में आकार पटेल ने बिहार में आरजेडी और जेडीयू की राजनीति पर टिप्पणी की है. पटेल लखते हैं एक दौर था जब आरजेडी और जेडीयू जैसी लोहियावादी दल कांग्रेस की संस्कृतिक के खिलाफ दिखते थे. इनमें वंशवाद और भ्रष्टाचार शामिल था. लेकिन अब इन दलों ने यह संस्कृति ओढ़ ली है.
आरजेडी और एसपी जैसी कथित समाजवादी पार्टियां खुद को सांप्रदायिकता विरोधी मंच पर खड़ा कर चुनाव गंवा देंगी. साफ है कि 2014 की तरह 2019 में भी मोदी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाएंगे. खास कर वह समाजवादी पार्टियों के भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता के प्रति इनके कथित नरम रुख को निशाना बनाएंगे. ये दल अब तक सिर्फ सरकार पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाते रहे हैं. यह पर्याप्त नहीं है. उन्हें लोगों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह भ्रष्टाचार रहित शासन चला सकते हैं.
और अंत में कुमी कपूर का खुलासा. इस सप्ताह इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती हैं. इस सप्ताह सबसे दिचलस्पी जगाने वाली घटना रही- भारत और चीन के तनातनी के बीच चीन के राजदूत लाउ झाउही का राहुल गांधी से मिलना.
उन्होंने सिर्फ राहुल से ही मुलाकात नहीं की बल्कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, केरल के सीएम पी विजयन, असम के पूर्व सीएम तरुण गोगोई और उनके पुत्र गौरव गोगोई से भी मुलाकात की. वह पूर्व सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन से भी मिले. और यहां तक कि दार्जिलिंग के डीएम से भी मुलाकात की. सबसे दिलचस्प रहा उनकी पत्नी और काउंसलर डॉ. जियांग यिलि का भूटान के राजपरिवार से मिलना. यह अभूतपूर्व था क्योंकि चीन का भूटान से राजनयिक संबंध नहीं है.
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