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उपचुनावों में बीजेपी की हार के तमाम तरह से विश्लेषण हो रहे हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया में वरिष्ठ पत्रकारऔर स्तंभकार स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया ने कैराना में वोटिंग पैटर्न की ओर इशारा करते हुए कहा है कि बहुकोणीय मुकाबलों में कोई भी पार्टी 28 फीसदी वोट लेकर जीत सकती है.
चुनावी अर्थमैटिक में माना जाता है कि किसी पार्टी के सपोर्टर उस गठबंधन के उम्मीदवार को अपना वोट ट्रांसफर करेंगे जो इस गठजोड़ का सहयोगी है. हालांकि ट्रांसफर काफी अधूरा भी होता है और वोट दूसरी तरफ छिटक जाते हैं. पार्टी के कट्टर समर्थक इसे नापसंद भी कर सकते हैं. गठबंधन जितना बिखरा होगा वोट ट्रांसफर का अनुपात भी उतना ही कम होगा.
बहरहाल, 2019 का चुनाव कुछ-कुछ 1971 जैसा होगा. इसमें नरेंद्र मोदी जैसे करिश्माई नेता होंगे, जिनकी वोटरों से केमिस्ट्री इंदिरा गांधी जैसी है.क्या 2019 का विपक्षी गठबंधन 1971 के विपक्षी गठबंधन से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पाएगा?
वोट ट्रांसफर हाल के चुनावों का हॉट टॉपिक रहा है. हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने गोरखपुर, फूलपुर और अब कैराना चुनाव में दोहराए गए इस वोटिंग ट्रेंड का जिक्र करते हुए लिखा है- चुनावी गठबंधन भारत के लिए नया नहीं है. लेकिन आपसी सहमति से खड़े किए किसी पार्टी के कैंडिडेट के लिए गठबंधन की सहयोगी पार्टी के मतदाताओं का समूह में वोट ट्रांसफर पर उतना यकीन नहीं था. लेकिन अब वोटरों की इस क्षमता पर सवालिया निशान हट गया है. कम से कम यूपी के हाल के चुनावों में तो यह दिख ही गया.
चाणक्य लिखते हैं- आखिर बीजेपी और विपक्ष दोनों के लिए इसके क्या मायने हैं. इसका मतलब यह है कि अब 50 फीसदी वोट जादुई नंबर है. पालघर में बीजेपी बहुकोणीय मुकाबले में 31.4 फीसदी वोट लेकर जीत गई लेकिन कैराना में जहां बीजेपी और संयुक्त विपक्ष में टक्कर थी वहां वह 46.7 फीसदी वोट लेकर हार गई. चाणक्य लिखते हैं- चुनाव लड़ने के इस ढर्रे में खामी ये है कि चुनाव अब वोटों के गणित की कवायद बन चुके हैं और मुद्दे से जुड़ी राजनीति से काफी दूर हट गए हैं.
देश में हायर एजुकेशन बदहाल है. देश और समाज की वास्तविकता से हायर एजुकेशन का अलग-थलग होना इसकी एक बड़ी वजह है. वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में देश में हायर एजुकेशन की इसी बदहाली का जिक्र किया है.
टुली लिखते हैं-
टुली ने बीए के बाद सिविल सर्विस की परीक्षा के खोखलेपन का भी जिक्र किया है. लिखा है - आईएएस,आईपीएस बनने वालों को कोई प्रैक्टिकल अनुभव या जानकारी नहीं होती है. एमबीए की पढ़ाई भी वास्तविकताओं से महरूम करने वाली पढ़ाई है. टुली लिखते हैं- एमए, यूपीएससी की सिविल सर्विस परीक्षा और एमबीए में एक चीज कॉमन है. तीनों भारत की वास्तविकता से कटे हुए हैं.
देश में अल्पसंख्यकों की बीच असुरक्षा की भावना को अपने कॉलम का विषय बनाते हुए पी चिदंबरम ने लिखा है कि अगर धार्मिक अल्पसंख्यकों को लगता है कि उनका दिल बैठ रहा है. और उनकी जगह दूसरे दर्जे के नागरिकों की होती जा रही है तो हम गणराज्य तो क्या लोकतंत्र कहे जाने लायक भी नहीं हैं.
दैनिक जनसत्ता के अपने कॉलम में पी चिदंबरम ने आर्कबिशप काउटो की चिट्ठी और रिटायर्ड आईपीएस जूलियो रिबोरो की ओर से लिखे लेख का जिक्र करते हुए लिखा है- आर्कबिशप का पत्र गैर राजनैतिक था और इसमें प्रार्थना की अपील की गई थी. उन्होंने कहा था कि हम 13 मई 2018 से एक प्रार्थना अभियान शुरू करे. लेकिन प्रार्थना के इस अभियान को कुछ अक्लमंदों ने बगावत के लिए अभियान समझ लिया. उनके खिलाफ भाजपाई ट्रोल्स ने सोशल मीडिया पर एक विषैला अभियान छेड़ दिया.
रिबेरो ने आर्कबिशप पर हमले के बाद शरारती तत्वों को पहले के उनके बयानों और कामों को याद दिलाते हुए एक अखबार में लेख लिखा- प्रधानमंत्री मोदी की सरकार वाजपेयी सरकार से अलग है. यह अल्पसंख्यकों को पर संदेह करती है और सवाल उठाती है. यह पूरी तरह अस्वीकार्य है. रिबेरो का यह कहना कि अगर हमारे देश में यह होता है तो यह इसे भगवा पाकिस्तान बनाने जैसा होगा.
टाइम्स ऑफ इंडिया में आकार पटेल ने आरएसएस की ओर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को अपने स्वयंसेवकों के बीच भाषण देने के लिए बुलावे को अपने कॉलम का विषय बनाया है. अपने लेख में पटेल ने हिंदू धर्म के लचीलेपन और बीजेपी और आरएसएस की ओर से प्रचारित हिंदुत्व का जिक्र किया है. उन्होने उस लेख का भी जिक्र किया है, जो पीएम ने गोलवलकर के लिए अपनी किताब में लिखा है. इस लेख में पीएम ने हिंदू धर्म के लोगों की 1000 साल की गुलामी का जिक्र किया है, जिसकी वजह से कथित तौर पर कई खामियां हिंदू संस्कृति में घुस आई.
पटेल लिखते हैं,
आरएसएस के साथ संवाद में कोई दिक्कत नहीं है. बहुत से लोग ऐसा नहीं सोचते हैं. लेकिन मेरा मानना है कि मुखर्जी जैसे और भी लोगों को वहां बुलाया जाए और वे निमंत्रण स्वीकार करें. इससे उस फीडबैक के लूप को तोड़ने में मदद मिलेगी, जो आरएसएस सदस्यों को यह बताती है वे कौन हैं और यह कि इस देश में क्या गलत हो रहा है.
अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने पर्यावरण के दोहन की कीमत समझाई है. वह लिखते हैं कि देश में 1980 के दशक में पर्यावरण के मामले में जो उपलब्धियां हासिल की गई थीं, उन्हें हाल के दशक में रही यूपीए और एनडीए दोनों सरकारोंं के साथ ही राज्य सरकारों ने गंवा दिया है.
गुहा तूतिकोरिन में वेदांता ग्रुप की तांबा पिघलाने और प्रदूषण फैलाने वाले प्लांट के विरोध में मारे गए लोगों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि प्रदर्शन के पीछे पर्यावरण दोहन से पीड़ित कामकाजी वर्ग था. इसका अंत जिस त्रासदी से हुआ उससे तो पर्यावरण के प्रति जागरुकता की शुरुआत होनी चाहिए थी. लेकिन लगता है कि हमारी नीति नियंता और उन्हें संंचालित करने वाले सबक सीखने को तैयार नहीं हैं.
इस मामले में जहां कुछ अच्छी मैदानी रिपोर्टिंग आई वहीं जमीनी हकीकत से नावाकिफ संपादकीय लेखक चाहते थे कि वेदांता की कंपनी स्टरलाइट को बख्श दिया जाए. तूतिकोरिन में राज्य की ओर से की गई नागरिकों की हत्या एक पारदर्शीऔर जवाबदेह लोकतंत्र में चेतावनी होनी चाहिए. लेकिन मुझे भय है कि हमारी दोषपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में इसे जल्द ही भुला दिया जाएगा. खास कर इसलिए क्योंकि आम चुनाव नजदीक हैं और राजनीतिक दलो के अपने खजाने भरने हैं.
और आखिर में कूमी कपूर की बारीक नजर. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती हैं- सड़क परिवहन और हाईवे मिनिस्टर नीतिन गडकरी एक मात्र मंत्री हैं, जिन्हें पीएम मोदी की छवि पूरी तरह ढक नहीं पाई है.
एक्सप्रेस वे समय से पूछा करने के श्रेय गडकरी को दिया जा रहा है. हालांकि इसे पूरा करने के दौरान दो एनएचएआई चेयरमैनों से इस्तीफा लिया जा चुका है. इसे 500 दिनों में पूरा करने का टारगेट रखा गया था. लेकिन छह महीनों तक काम नहीं हुआ तो इसके पहले इसके पहले चेयरमैन राघव चंद्रा का तबादला कर दिया गया.
कुछ महीनों पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने लोगोंं के लिए क्यों नहीं खोला जा रहा है कि तो सरकारी वकील ने कहा कि उद्घाटन के लिए पीएम का सूटेबल डेट नहीं मिला है. यह जानकारी गलत थी. दरअसल रेलवे ओवरब्रिज न बनने से इसका उद्घाटन नहीं हो पा रहा था. पीएम के लिए यह काफी असहज करने वाली बात थी. लिहाजा मौजूदा एनएचएआई चीफ को दफा कर दिया गया .
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