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संडे व्यू: इंदिरा ने पहुंचाया संघवाद को नुकसान,विपक्ष बदले रणनीति

आखिर जमीन के लिए क्यों परेशान हैं असमिया जनजातियां, आने वाले समय में आप का राष्ट्रीय दल बना पाना मुश्किल

द क्विंट
भारत
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. (फोटो: iStockphoto)  
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स. (फोटो: iStockphoto)  
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आने वाले वक्त में आप का राष्ट्रीय दल बन पाना मुश्किल

हिंदुस्तान टाइम्स में लिखे आर्टिकल में चाणक्य बताते हैं कि क्यों उन्हें लगता है कि आम आदमी पार्टी ने न केवल दिल्ली एमसीडी चुनाव हारा है, बल्कि लोगों का भरोसा भी खोया है. उन्हें लगता है इसका कारण केजरीवाल की सत्ता की चाहत और सिस्टम के खिलाफ उनकी नफरत, वजह है. चाणक्य ने सवाल किया है कि आखिर कब तक जनता केजरीवाल को दूसरा मौका देती रहेगी, जबकि केजरीवाल खुद को एक आक्रामक इंसान से नेता नहीं बना पाए हैं.

लेकिन जहां तक मुझे लगता है, ‘आप’ के नेताओं को जमीनी लोगों से संबंध मजबूत रखने थे. कई नेता अपनी जनता से जुड़े रहने के लिए बहुत कुछ कर सकते थे. वो लोग मोहल्ला क्लीनिक और उनके स्कूलों को सुधारने के कदमों को जनता के बीच ले जा सकते थे. इनसे पार्टी के सार्वजनिक जीवन में सादगी और पारदर्शिता को बल मिलता.

लेकिन खुद को सबसे ज्यादा ईमानदार दिखाने के चक्कर में केजरीवाल ने जनता की उम्मीदों को इतना ऊपर उठा दिया कि सरकारी बंगले में जाने के फैसले पर लोगों ने केजरीवाल की नैतिकता पर सवाल खड़े कर दिए. चाहे वह केजरीवाल के किसी नेता की फर्जी मार्कशीट का कांड हो या किसी का घरेलू हिंसा का मामला. ऐसे कारनामों ने केजरीवाल की साख खराब की है.

इंदिरा गांधी ने हमारे संघवाद को नुकसान पहुंचाया

वकील ए जी नूरानी ने एशियन ऐज में पंजाब के मुख्यमंत्री की उस बात की आलोचना की है जिसमें उन्होंने राहुल गांधी द्वारा पंजाब कैबिनेट चयन की बात कही थी. उन्होंने साफ शब्दों में इस कदम को ‘संसदीय लोकतंत्र और संघवाद का मजाक बनाने’ जैसा बताया. संघीय लोकतंत्र से इस तरह के व्यवहार के लिए उन्होंने इंदिरा गांधी को दोष दिया. उनके मुताबिक इंदिरा गांधी ने राज्यो में कैबिनेट नियुक्तियों में दखल के जरिए मुख्यमंत्री की सत्ता को नीचा दिखाया.

इंदिरा गांधी ने इसके जरिए मुख्यमंत्रियों को काबू में रखना चाहा. वो इस तरीके से मंत्रियों की नियुक्तयां करती थीं जिससे कैबिनेट हमेशा बंटा रहे. इसके जरिए उनका साम्राज्य बिना किसी चुनौती के बना रहा. लोकतंत्रात्मक संसदीय प्रणाली के अनुसार राज्य सरकार केवल विधानपरिषद के प्रति उत्तरदायी होती है. बेसिक पॉलिसी का निर्धारण केंद्र करता है.

जबकि उसे जमीन पर लागू करने का काम मुख्यमंत्री का होता है. वह अपने हिसाब से मंत्री चुनता है. इससे केंद्रीय नियंत्रण से स्वतंत्रता मिलती है. यह जरूरी है कि पार्टी द्वारा टिकट बंटवारे में उसकी राय भी ली जाए.

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जमीन के लिए परेशान असम की जनजातियां

इंडियन एक्सप्रेस में उरखाओ ग्वारा ब्रह्मा ने असम के दो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को उठाया है. पहला है जनजातियों द्वारा अलग राज्य की मांग, दूसरा बाहर से आने वाले लोगों के खिलाफ मुहिम.

ब्रह्मा ने इस बारे में अंग्रेज काल की एक नीति का भी हवाला दिया है. इस नीति में अंग्रेजों ने बड़ी संख्या में बंगाली किसानों को असम भेजा. इसके चलते सोसायटी में दरार आई और आजादी के बाद जनजातियों का, सरकार में उनकी पहचान और जमीन को सुरक्षित रख पाने का विश्वास घट गया.

लेकिन मूल जनजातीय असमिया लोगों और गैर जनजातीय असमिया लोगों के बीच के कुछ विवादों को अलग रख दिया जाए तो दोनों के राजनैतिक और जमीन से जुड़े अधिकार, गैरकानूनी प्रवासी लोगों के चलते खतरे में हैं. इसलिए सुप्रसिद्ध ‘सर्बानंद सोनोवाल केस वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया’ के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था- 'इस बात में कोई भी शक नहीं है कि बड़े पैमाने पर गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासियों के आने से असम बाहरी आक्रामकता और आंतरिक व्यवधान महसूस कर रहा है'

‘सेकुलर विपक्ष’ बदले अपनी रणनीति

इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं 'पिछले कुछ दिनों से मोदी के नाम पर हर बार बीजेपी की चुनाव में जीत पर मैं चिंतित हो जाती हूं.' तवलीन सिंह अपने विचारों की उस श्रंख्ला पर ध्यान दिलाती हैं, जिसमें वो बताती हैं कि किस तरह मोदी को निशान, नारे और कैंपेन के तौर पर इस्तेमाल किया गया. यूपी में ये स्ट्रेटजी काम कर गई.

लेकिन दिल्ली में कैसे बीजेपी ने ठीक इसी स्ट्रेटजी के दम पर चुनाव जीत लिया? इसके पीछे क्या राज है? सिंह आखिर में इस नतीजे पर पहुंचती हैं कि ऐसा कोई राज है ही नहीं. दरअसल यह तो सेकुलर विपक्ष की सोच की गलती है. ईवीएम और संप्रदायिकता जैसे मुद्दों पर हायतौबा मचाने के बजाए उन्हें अब किसी ठोस बिंदु पर सरकार को घेरना चाहिए. तवलीन सिंह के मुताबिक पहलू खान की मौत का मामला एक अहम मुद्दा हो सकता है.

‘आखिर क्यों सेकुलर होने का चोला पहने विपक्ष के नेता उनकी उर्जा प्रधानमंत्री को ये याद दिलाने में नहीं लगाते कि उनके सबका-साथ, सबका-विकास के नारे के बावजूद इसका पालन नहीं हो रहा है. वो प्रधानमंत्री को क्यों याद नहीं दिलाते कि उनके राज में हिंदुत्व के नाम पर गुंडागर्दी अपने चरम पर पहुंच गई है.’

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