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पिछले दिनों अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स यूनियन दफ्तर में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर टंगे होने का मुद्दा छाया रहा.टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने सवाल किया है कि मुद्दा ये नहीं है कि जिन्ना की तस्वीर वहां मंजूर है या नहीं . सवाल यह है कि क्या कोई हिंसक तरीके से किसी संस्थान को यह कह सकता है कि मुझे आपके यहां लगी एक तस्वीर पसंद नहीं है, उसे तुरंत हटाइए.
मैं लेनिन, स्टालिन और माओ को नर संहारक मानता हूं. उनकी भर्त्सना होनी चाहिए. लेकिन क्या इससे मुझे यह अधिकार मिल जाता है कि मैं किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर पर हमला कर दूं या वहां लगे इन लोगों की तस्वीरों को हटाने की मांग शुरू कर दूं.
अपनी पसंद की तस्वीर लगाना पूरी तरह कानूनी है. उसी तरह किसी संस्थान पर हमला कर उसके सदस्यों की पिटाई गैरकानूनी है. लेकिन असली सवाल ये है कि क्या सरकार गुंडा ब्रिगेड के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी या उन्हें यूं हो छोड़ देगी.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर पर हिंदू युवा वाहिनी के हंगामे और हिंसा पर अंकलसरैया ने सवाल करते हुए लिखा है सिर्फ बीजेपी ही गुंडों का इस्तेमाल नहीं करती. दूसरी पार्टियों ने भी ऐसा किया है. लेकिन दिल्ली और लखनऊ में बीजेपी की सरकार होने की वजह से इसकी खास जिम्मेदारी बनती है.
20 साल पहले 1998 में 11 और 13 मई को भारत ने पांच न्यूक्लियर टेस्ट किए थे. आकार पटेल ने एशियन एज में लिखे अपने लेख में पूछा है कि क्या इस टेस्ट से भारत एक एटमी ताकत बन गया. बिल्कुल नहीं, क्योंकि पहले टेस्ट के बाद ही भारत को सजा मिली और न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी तक इसकी पहुंच रोक दी गई.
पटेल लिखते हैं कि न तो न्यूक्लियर टेस्ट से हमारी न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी सुधरी और न ही भारत का कद बढ़ा और न ही इससे बिजली के उत्पादन बढ़ाने में मदद मिली.
बिजली उत्पादन के लिए भारत अब सोलर टेक्नोलॉजी पर फोकस कर रहा है. सवाल ये भी है कि क्या इससे दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन भारत के पक्ष में हो गया. बिल्कुल नहीं. यह सब देखते हुए भी क्या अब भी हम न्यूक्लियर टेस्ट करेंगे.1998 में पोखरण टेस्ट के बाद विदेशी निवेश निगेटिव जोन में चला गया था. क्योंकि विदेशी पूंजी अस्थिरता पसंद नहीं करती. भारत के लिए ये तथ्य सबक हैं.
कर्नाटक का चुनाव खत्म हो चुका है. नतीजे का इंतजार है. हालांकि एग्जिट पोल के नतीजे आ चुके हैं.करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि कर्नाटक में चाहे जिसकी सरकार बने लेकिन बड़ा सवाल यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में क्या होगा.
ज्यादातर लोगों के इन दोनों अनुमानों पर गौर किया जा सकता है. पहला, कांग्रेस को बहुमत नहीं मिलेगा और राहुल गांधी सहयोगी दलों की मदद से पीएम नहीं बनेंगे. दूसरा, बीजेपी को 2014 जितनी सीटें नहीं मिलनी जा रही हैं. यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा में बीजेपी की हार पश्चिम बंगाल नॉर्थ ईस्ट, बंगाल और ओडिशा की जीत की भरपाई नहीं कर सकेगी.
2019 के चुनाव में अगर बीजेपी 210 या 220 सीटें लाती हैं तो सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते यह सरकार बना सकती है लेकिन इसके सहयोगी दल मोदी को छोड़ कर किसी दूसरे पीएम पर राजी हो सकते हैं. क्या यह हमारी कल्पना है. अभी इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. हो सकता है 1989 जैसा कोई मोर्चा बने. हालांकि अंदरूनी खींचतान में यह टूट सकती है.
करन लिखते हैं- मेरा अनुमान यह है कि अगर बीजेपी 200 से कम सीटें लाती हैं तो यह सरकार बनाने के बजाय अपोजिशन में बैठना पसंद करेगी. मोदी जी दोबारा ताकत हासिल करने से पहले थोड़ा सुस्ताना चाहेंगे.
जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजी में एक सैलानी युवक की मौत के बाद पी चिदंबरम ने मोदी सरकार की सूबे को लेकर नीतियों पर सवाल उठाए हैं. दैनिक जनसत्ता के अपने कॉलम में राज्य से जुड़े कुछ मुद्दों का विश्लेषण करने के बाद वह लिखते हैं- राज्य की अखंडता बनाए रखनी होगी. हालांकि कई लोग यह नहीं मानते कि जम्मू-कश्मीर एक बना रहेगा. कई लोग गलती से यह तक मानते हैं कि तीनों क्षेत्रो को तीन रास्तों पर अलग-अलग जाना चाहिए. जम्मू का ऐसा ध्रुवीकरण हो गया है, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था.
चिदंबरम लिखते हैं- घालमेल भरी नीति ने जम्मू-कश्मीर के तीनों हिस्सो में अलगाव का भाव पैदा किया किया है. बड़े दुख के साथ स्वीकार करना पड़ रहा है कि कश्मीर घाटी में अघोषित युद्ध चल रहा है. पीडीपी-बीजेपी सरकार की रत्ती भर वैधता वहां नहीं है. महबूबा मुफ्ती इस विद्रूप को खत्म नहीं करेंगी जो कि त्रासदी में बदलता जा रहा है.
जम्मू-कश्मीर को लेकर हर रोज मेरी निराशा बढ़ती जा रही है. एकता, अखंडता, बहुलतावाद, धार्मिक सहिष्णुता, जनता के प्रति जवाबदेह सरकार, बातचीत से मतभेद सुलझाना, आदि वह सब जो एक राष्ट्र् के तौर पर भारत के सरोकार रहे हैं वे कसौटी पर हैं. जम्मू-कश्मीर कसीटौ पर है. एक राष्ट्र के रूप में भारत इस परीक्षा में असफल रहा है.
उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों को तीन श्रेणी में बांटने की मंशा के खुलासे के बाद इसकी चर्चा काफी गर्म है. सरकार का तर्क है कि कुछ जातियों ने आरक्षण का ज्यादा लाभ ले लिया है और कुछ को नहीं मिला है. अमर उजाला के अपने लेख में दिलीप मंडल ने लिखा है कि 2011 में हुई जाति जनगणना के आंकड़े ही जब सार्वजनिक नहीं किए गए हैं तो कैसे पता चलेगा कि किन जातियों को आरक्षण का ज्यादा लाभ मिला है और कौन वंचित रह गया है. बगैर पुख्ता सबूत और आंकड़ो के सरकार की सबको बराबर हिस्सेदारी की मंशा कैसे पूरी होगी.
साथ ही सरकार से यह मांग की जानी चाहिए कि 2021 की जनगणना में जातियों से जुड़ी जानकारी जुटाई जाए. अगर सरकार 2011 की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करे और अगली जनगणना में जातियों के आंकड़े जुटाए तो अगली बातचीत तर्कों के आधार पर हो सकती है. सरकार की बांह मरोड़ कर मांगें मनवाने का चलन खत्म होना चाहिए.
हिन्दुस्तान टाइम्स में ललिता पणिकर ने मुफीद सवाल उठाया है. उनका कहना है कि सिर्फ कानून का डर बलात्कारियों का कुछ नहीं बिगाड़ेगा. रेप जैसे अपराधों के खिलाफ लड़ाई में ज्यादा से ज्यादा पुरुषों को शामिल करना होगा. अपने कॉलम मे वह लिखती हैं कि रेप की घटनाओं पर हर कोई टिप्पणी कर रहा है. कोई पारिवारिक मूल्यों को दोषी ठहरा रहा है तो कहीं धर्मगुरु इस पर बयान दे रहे हैं.
निर्भया मामले में बलात्कारी समाज के हाशिये पर रह रहे लोग थे. वे खुद क्रूरता और हिकारत के शिकार थे. कई युवा जो दिल्ली नौकरी या काम की तलाश में आते हैं खुद को अकेला, हाशिये पर कुंठित पाते हैं. उनके पास कोई नैतिक दिशा नहीं होती. उन्हें पता नही होता क्या गलत है, क्या सही. यह एक मिथक है कि भारत में पारिवारिक मूल्य बहुत मजबूत हैं. यह सच से काफी परे है. अक्सर हमारे यहां यौन हिंसा में नजदीकी रिश्तेदारों का हाथ होता है.
कूमी कपूर ने इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में दिलचस्प खुलासा किया है. वह लिखती हैं- मनमोहन सिंह कभी-कभार ही बोलते हैं. लेकिन जब कभी बोलते हैं तो दिलचस्प बातें होती हैं. बेंगलुरू में मीडिया से बातचीत करते हुए मनमोहन ने पत्रकारों को बताया कि उनका मोहम्मद अली जिन्ना से इनडायरेक्ट एनकाउंटर हो चुका है.
मनमोहन सिंह उन दिनों पेशावर में पढ़ रहे थे. 1945 के दिनों मे एक दिन जब मनमोहन हॉकी मैच खेल रहे थे तो गेंद वहां से गुजरते एक शख्स को जा लगी. और वह शख्स कोई और नहीं मोहम्मद अली जिन्ना थे.
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