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इस सप्ताह कश्मीर में राइजिंग कश्मीर के एडिटर इन चीफ शुजात बुखारी की आतंकियों ने गोली मार कर हत्या कर दी. द इंडियन एक्सप्रेस में निरुपमा सुब्रमण्यन कश्मीर जैसी संघर्ष वाली जगहों पर पत्रकारिता के जोखिम का जिक्र किया. उन्होंने लिखा है कि ऐसी जगहों पर पत्रकारिता करना तलवार की धार पर चलने जैसा है.
सुब्रमण्यन लिखती है-
सुब्रमण्यम लिखती हैं- शुजात ऐसे जर्नलिस्ट थे, जो 'राइजिंग कश्मीर' और इसके दो सहयोगी प्रकाशनों को संस्थान बना देना चाहते थे. वे एक पीस एक्टिविस्ट थे, जिसके परिवार के सदस्य सरकार और सत्ताधारी पार्टी में हैं. वह कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति और दिल्ली और हुर्रियत के नेताओं,तीनों के साथ सहज थे. पुलिस, आर्मी और एनजीओ के साथ भी उनका वैसा ही संबंध था जैसे दिल्ली, हुर्रियत और कश्मीर में सरकार के साथ. वह एक साथ कई काम कर रहे थे. कई भूमिकाएं निभा रहे थे. उनकी ट्विटर टाइमलाइन इसकी गवाह है
लेकिन कश्मीर एक ऐसी जगह है, जहां आज एक साथ कई भूमिकाओं में रहने वाले लोेगों को शक की निगाह से देखा जाता है.
कॉलमनिस्ट आकार पटेल को फुटबॉल वर्ल्ड कप में भारत न खेलना साल रहा है. तीन लाख से महज कुछ ज्यादा आबादी वाले देश आइसलैंड वर्ल्ड कप फुटबॉल में रूस के मुकाबले में उतरता है जो दो साल पहले 133वें रैंक पर था. भारत 97वें पायदान पर था.
'एशियन एज ' में पटेल ने भारत में फुटबॉल कल्चर के न होने के बारे में बाइचुंग भुटिया के एक कॉलम का जिक्र किया है. भुटिया कहते हैं भारत में सबसे पहले तो फुटबॉल कल्चर को विकसित करना होगा और क्रिकेट को पूजने वाले देश में यह एक बहुत बड़ा चैलेंज है.
याद करिये जब हॉकी बिजली की गति से खेलने वाले ड्रिबलर्स पर निर्भर था, हम काफी अच्छा करते थे. लेकिन
जैसे ही इसकी शैली लंबे पास वाली हो गई और यह एस्ट्रो टर्फ पर खेली जाने लगी, हम पिछड़ गए. कहने का मतलब यह है कि भारत में फुटबॉल कल्चर का न होना इसके पिछड़ने की वजह नहीं है. कुछ और चीज है जो हमें इस टीम स्पोर्ट में आगे बढ़ने से रोक रही है. आपने नोटिस किया होगा, हमने इंडिवुजअल खेल जैसे शूटिंग, वेटलिफ्टिंग, रेसलिंग, टेनिस, बैडमिंटन और बॉक्सिंग में काफी अच्छा किया है. जब तक हम इसका विश्वेषण नहीं करेंगे तब तक हमें भुटिया के इस सवाल का जवाब नही मिलेगा कि भारत के बड़े हिस्से में फुटबॉल नदारद क्यों हैं. क्यों यहां यह कल्चर विकसित करना चैलेंजिंग है.
पिछले सप्ताह प्रणब मुखर्जी के संघ दफ्तर जाकर भाषण देने के सवाल पर रामचंद्र गुहा ने थोड़ा ठहर कर विश्लेषण किया है. 'अमर उजाला' में 'जब संघ ने नेहरू की तारीफ' की शीर्षक लेख में लिखते हैं-
गुहा लिखते हैं कि दरअसल संघ उस दौर की सरकार में घुसना चाहते थे. नेहरू को जब संघ के सदस्यों की कांग्रेस में शामिल होने के बारे में पता चला तो उन्होंने इस पर तुरंत रोक लगाई. गोलवलकर खुद नेहरू के राजगुरु बनना चाहते थे. वह चाहते थे कि संघ के लोग सरकार में शामिल हों ताकि वे देश की प्राथमिकताएं तय कर सकें.
नेहरू जानते थे कि संघ सार्वभौैमिक मताधिकार, महिलाओं और दलितों की पूरी समानता से लेकर अल्पसंख्यकों का समान अधिकार तथा आधुनिक विज्ञान का विरोध करेगा. सके अलावा आरएसएस ने अंबेडकर को लेकर घृणा व्यक्त की थी, जिन्होंने संविधान को अंतिम रूप देते हुए उसमें इन सिद्धांतों को शामिल किया था. सौभाग्य से नेहरू ने यह सब नहीं होने दिया. अगर नेहरू ने सत्तर वर्ष पहले संघ को कांग्रेस में शामिल होने की इजाजत दे दी होती तो गणतंत्र का शुरू से ही क्षरण होने लगता.
द हिंदू एक लेख में राघवन श्रीनिवासन पीएम मोदी को कोस्टारिका जाने की सलाह दी है. राघवन लिखते हैं कि मोदी जी को इस छोटे से देश की यात्रा जरूर करनी चाहिए. पर्यावरण को लेकर कोस्टारिका की ओर से उठाए गए कदमों के बारे में बताते हुए राघवन लिखते हैं- कोस्टारिका की आबादी बेंगलुरू से आधी है और जीडीपी टीसीएस की मौजूदा मार्केट वैल्यू से भी कम है. आखिर क्यों? क्योंकि आकार में छोटा देश होते हुए भी यह जंगल के विनाश को रोकने में सफल रहा है. एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक पर रोक है अब उसने अगले दो दशक में अपने इकोनॉमी को जीरा कार्बन इकोनॉमी में तब्दील करने का फैसला कर लिया है.
लोगोंं को बताया जा रहा है कि इलेक्ट्रिक वाहनों से आप समुद्र तट की यात्रा भी कर सकते हैं और दफ्तर भी जा सकते हैं. इलेक्ट्रिक वोटों से मछली पकड़ी जा सकती है. कहने का मतलब है कि जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करने के हर उपाय किए जा रहे हैं. कोस्टारिका के राष्ट्रपति हाल में हाइड्रोजन फ्यूल से चलने वाली बस से सफर कर जीवाश्म ईंधन को खत्म करने की प्रतिज्ञा वाली जगह पर पहुंचे और घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए.
देश में अपनी फसल के सही दाम के लिए आंदोलन करने वाले किसानों के हालात पर मार्क टुली ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है-
आज भी यह समस्या बरकरार है. सरकार इस समस्या से निपटने के लिए एपीएमसी लेकर आई लेकिन यह व्यवस्था बिचौलियों का अड्डा बन गई. बिचौलिये किसानों की फसल कहीं और बेचने पर लगे
प्रतिबंध का फायदा उठा रहे हैं. यह समस्या खत्म करने के लिए दो साल पहले ई-मंडिया आईं, जिससे किसान अपनी फसल ऑनलाइन बेच सकते हैं. ई-मंडिया पेमेंट और रिसीट को सुविधाजनक बना सकती हैं. फसल की सही कीमत तय करने में मदद कर सकते हैं और बिचौलियों को सिस्टम से हटा सकती हैं. लेकिन बिचौलियों से राजनीतिक दलों के संपर्क एक बड़ी वजह है कि जो एग्रीकल्चर मार्केटिंग की राह में रोड़ा बन रहे हैं .
सरकारों के लिए यह विश्वास कर लेना आसान है की ई-मंडिया फसल मार्केटिंग की समस्या का अंत कर देगी. शायद इसलिए वह फसलों से जुड़ी सप्लाई चेन की दिक्कतें दूर करने में दिलचस्पी नहीं ले रही है.
पी चिदंबरम ने जनसत्ता के अपने लेख में पीएम मोदी की ओर सिंगापुर के शांग्री-ला में दिए गए भाषण का जिक्र किया है और लिखा है कि यह बहुत अच्छी तरह लिखा भाषण था. चिदंबरम लिखते हैं-
चिदंबरम ने पीएम की ओर से दुनिया भर के मैन्यूफैक्चरर्स को भारत आने की अपील पर भी कटाक्षा किया है. वह लिखते हैं- पीएम की बात सही है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार को निर्यात, मैन्यूफैक्चरिंगऔर रोजगार के आपसी रिश्तों की समझ बहुत कम है.
और आखिर में कूमी कपूर द इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में लिखती है कि, गांधी परिवार 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार की हार सुनिश्चित करना चाहता है. किसी भी कीमत पर. निजी बलिदान की कीमत पर भी.
राहुल गांधी अब अपने साथियों की तलाश में हैं. उन्होंने खुद अजीत जोगी क पत्नी को फोन कर उनके स्वास्थ्य की जानकारी ली. जोगी कांग्रेस छोड़ कर अपनी पार्टी बना ली है. असम में कांग्रेस एआईयूडीएफ जैसी ताकतों के साथ हाथ मिलाने को उत्सुक है. जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेस से वह गठजोड़ कर सकती है. गुजरात में वह एनसीपी के साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरने को तैयार दिखती है.
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