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संडे व्यू: लोकसभा से कब पूरी होंगी उम्मीदें, विकसित देश बनने से दूर भारत?

पढ़ें करन थापर, ललिता पणिक्कर, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम और आदिति फडणीस के विचारों क सार

क्विंट हिंदी
भारत
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<div class="paragraphs"><p>संडे व्यू में पढ़ें अखबारों में छपे  आर्टिकल का सार</p></div>
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संडे व्यू में पढ़ें अखबारों में छपे आर्टिकल का सार

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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उम्मीदें कब पूरी करेगी लोकसभा?

करन थापर हिन्दुस्तान टाइम्स में सवाल उठाते है कि क्या लोकसभा हमारी उम्मीदों पर खरी उतर रही है? विपक्ष को यह समझाने के लिए क्या बदलाव की जरूरत है कि सत्ताधारी दल के बजाए भारतीय जनता की आवाज को समय दिया जाना चाहिए और उसे पर्याप्त सुना जाना चाहिए? पीएरआएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के हवाले से लेखक बताते हैं कि 17वीं लोकसभा में 1354 गंटे काम हुआ जो 16वीं लोकसभा में हुए 1615 घंटे से भी कम है. 17वीं लोकसभा के 15 में से 11 सत्र समय से पहले ही स्थगित कर दिए अधिकांश विधेयक पेश किए जाने के दो हफ्ते के भीतर पारित हो गये. 35 प्रतिशत विधेयकों पर एक घंटे से भी कम समय चर्चा हुई. केवल 16 प्रतिशत विधेयकों को जांच के लिए संसदीय समितियों को भेजा गया.  

विपक्ष का दावा है कि उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है. समाधान के तौर पर हर सत्र में एक निश्चित संख्या में दिन तय किए जा सकते हैं जब विपक्ष एजेंडा तय करे. ब्रिटेन में इसे विपक्षी दिवस कहा जाता है. हम ब्रिटेन से प्रधानमंत्री की ओर से प्रश्न लेने की परंपरा को भी अपना सकते हैं. हर हफ्ते एक कास दिन एक पूरा समर्पित आधा घंटा ऐसा हो सकता है जिसमें विपक्ष के नेता द्वारा पूछे गये सवालों के जवाब प्रधानमंत्री दे सकते हों. यूके में इसे पीएमक्यू कहते हैं. स्पीकर की स्थिति पर भी ध्यान देने की जरूरत है. चुने जाने के तुरंत बाद स्पीकर को पनी पार्टी से इस्तीफा दे देना चाहे. तभी हम मान सकते हैं कि वह व्यक्ति निष्पक्ष और गैरपक्षपाती है. अगली लोकसभा में इस पद पर बने रहने के मामले में चुनाव निर्विरोध होना चाहिए. अगर इन सुझावों को बीजेपी स्वीकार करने से कतराती है तो क्या वह यह दावा करना जारी रख सकती है कि भारत लोकतंत्र की जननी है? उस स्थिति में क्या सौतेली मां अधिक सटीक टिप्पणी नहीं होगी? 

महिलाओं से वादे पूरे करने का समय 

ललिता पणिक्कर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि पिछले कुछ चुनावों में यह स्थापित हो चुका है कि महिलाओं के वोट अब हर राजनीतिक दल के लिए मायने रखते हैं. हर राजनीतिक दल के घोषणापत्र में महिला सशक्तिकरण के वादे इसकी पुष्टि करते हैं. नई सरकार का चाहिए कि वह इन वायदों को पूरा करे. बीजेपी के घोषणापत्र में एक ऐसे विकसित भारत के निर्माण का वादा किया गया था जहां नारी शक्ति समाज की प्रगति की धुरी होगी. कहा गया कि “कानूनी और नीतिगत ढांचों की एक सीरीज के माध्यम से हम महिलाओं की गरिमा सुनिश्चित करेंगे और उन्हें समान विकास के अवसर प्रदान करेंगे- हम महिला स्वयं सहायता समूहों को प्रमुख सेवा क्षेत्रों में कौशल और उपकरमों के साथ सशक्त बनाएंगे...जिसका उददेश्य उनकी आय बढ़ाना है.” 

विशेषज्ञों के हवाले से ललिता पणिक्कर लिखती हैं कि महिलाएँ अब कमाई वाले काम चाहती हैं. स्वरोजगार कर रहीं महिलाओँ को 2 लाख से 10 लाख रुपये तक के वित्त की आवश्यकता होती है. कांग्रेस ने हर गरीब भारतीय परिवार को प्रति वर्ष 1 लाख रुपये देने का वादा किया था. तृणमूल कांग्रेस ने सबसे ज्यादा महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा. टीएमसा ने हर पंचायत में एक अधिकार मैत्री की नियुक्ति का भी वादा किया है. सीपीएम ने सभी महिलाओं के लिए वैवाहिक और विरासत में मिली संपत्ति में समान अधिकार के लिए एक कानून बनाने, महिलाओं और बच्चों के भरण-पोषण से संबंधित कानूनों को मजबूत करने, सभी परित्यक्त महिलाओं के लिए सुरक्षा, भरण-पोषण और पुनर्वास सुनिश्चित करने की वकालत की है. संसद में महिलाओं की संख्या अब मात्र 74 रह गयी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव खत्म होने के बाद महिलाओँ के मुद्दों को प्राथमिकता से हटा दिया जाए. अब महिलाओं की भूमिका केवल मूल्यवान मतदाता तक सीमित नहीं है.   

जैसा है वैसा ही चलेगा 

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि संसद के दोनों सदनों में पहली बहस और संसद के बाहर लिए गये फैसलों से सरकार के इरादे स्पष्ट हो गये हैं. देश एक व्यक्ति के फरमान से चलता रहेगा. टीडीपी और जेडीयू जैसे सहयोगी दलों की भूमिका जयकारे लगाने की रहेगी. सरकार की कमियों का दोष जवाहरलाल नेहरू से शुरू करके पिछली सरकारों के मत्थे मढ़ा जाएगा. बीजेपी प्रवक्ता आक्रामक बने रहेंगे, ट्रोल्स को और अधिक सक्रिय होने के लिए भुगतान किया जाता रहेगा और जांच एजेंसियों पर कोई नकेल नहीं कसी जाएगी. वे सरकार के इशारे पर काम करना जारी रखेंगी.  

चिदंबरम लिखते हैं कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों को पहाड़ की ऊंचाई चढ़नी है. कांग्रेस को 9 राज्यों में ज्यादातर सफलता मिली हैं. लेखक का अनुमान है कि सरकार लगातार इनकार की मुद्रा में रहने वाली है. बुनियादी ढांचे और अनावश्यक परियोजनाओं में निवेश करना सरकार जारी रखेगी. दक्षिण कोरिया के चाइबोल नेतृत्व वाले विकास मॉडल का अनुसरण करना सरकार जारी रखने वाली है. एक वृद्ध नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल प्रतिभाओं को आकर्षित करने वाला होगा, इस पर लेखक को संदेह है. नरेंद्र मोदी इसी तरह के और अधिक काम करते रहने में यकीन करते हैं. संसद में उनके भाषणों से भी यही आश्वासन मिला है. इसलिए, इस तरह की और अधिक चीजों के लिए तैयार रहना चाहिए.   

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विकसित देश बनने से दूर है भारत 

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस लिखा है कि हाथरस के हादसे ने याद दिलाया है कि भारत विकसित देश बनने से अभी बहुत दूर है. अंधविश्वास कई देशों में दिखता है लेकिन आम तौर पर वे विकसित देश नहीं कहलाते. अगर किसी विकसित देश में कोई ढोंगी बाबा के कारण एक सौ इक्कीस लोगों की मौत होती तो पहले उनको गिरफ्तार किया जाता, उनके सेवादारों को नहीं. कुछ साल पहले सूरज पाल नामक बाबा गिरफ्तार भी हुए थे. उन पर 16 साल की लड़की के शव को अगवा करने का आरोप था. लड़की को जीवित करने के दावे किए जा रहे थे. ऐसे बाबाओं में अगर कोई शक्ति वास्तव में होती है तो सिर्फ यह कि भोले, जाहिल, गरीब लोगों को बेवकूफ बनाने में ये माहिर होते हैं. मरने वालों में ज्यादातर महिलाओं का होना इत्तफाक नहीं है.  

तवलीन सिंह लिखती हैं कि जबसे नरेंद्र मोदी का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ था तब से उन्होंने विकसित भारत का लक्ष्य रखा है. जब तक अंधविश्वास के अलावा कुछ अन्य बुनियादी चीजों में परिवर्तन नहीं आता है यह लक्ष्य हासिल करना मुश्किल है. देश में कितने ऐसे गांव हैं जहां जीना उतना ही मुश्किल है जितना किसी युद्धरत क्षेत्र में. हर गली में सड़ता हुआ कचरा, उससे होती बीमारियां सिर्फ गांव की कहानी नहीं, शहरों की भी दैनिक जिन्दगी का हिस्सा हैं. खुले में शौच भी खत्म नहीं हुआ है. वक्त आ गया है अब नया अभियान शुरू किया जाए. शहरों और गांवों की गलियों से कचरा हटाना शुरू होना चाहिए. जब तक हमारे शहर और गांव युद्धग्रस्त गाजा पट्टी की तरह दिखते रहेंगे हम कभी भी विकसित देशों में नहीं गिने जाएंगे. सबसे बड़ी जिम्मेवारी हमारे जनप्रतिनिधियों की बनती है जो इतने नाकाबिल हैं कि उन आपदाओं की भी तैयारी नहीं करते है जो हर साल ती हैं. पिछले हफ्ते में दिल्ली में लुटिंस वाले घरों में भी पानी घुस गया था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इस साल नालों की सफाई बिल्कुल नहीं की गयी.    

गोवा में बीजेपी की जमीन खिसकी 

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि गोवा में 2027 में विधानसभा चुनाव होंगे. लेकिन, सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए चिंता अभी से दिखने लगी है. दक्षिण गोवा की सीट पर बीजेपी को तगड़ा झटका लगा है. नरेंद्र मोदी की पसंदीदा उम्मीदवार पल्लवी डेम्पो को हार का सामना करना पड़ा. राज्य के किसी संसदीय क्षेत्र से वह पहली महिला उम्मीदवार थीं. एक ऐसे परिवार से वह जुड़ी हैं जो खनन, जहाज निर्माण, खेल और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़ा है. 255.44 करोड़ रुपये मूल्य की संपत्ति का ब्योरा उन्होंने शपथ पत्र में दिया था, जबकि उनके पति श्रीनिवास डेम्पो ने 998.83 करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों की घोषणा की थी. कांग्रेस ने कैप्टन विरियाटो फर्नांडिस को अपना उम्मीदवार बनाया जो 26 साल तक भारतीय नौसेना में सेवा देने के बाद रिटायर हुए. फर्नांडीस को दक्षिण गोवा की सीट पर 13 हजार मतों से जीत मिली.  

40 सदस्यों वाली गोवा विधानसभा में बीजेपी की संख्या तब 33 पहुंच गयी थी जब 11 में से 8 कांग्रेस विधायक बीजेपी में शामिल हो गये. इनमें तीन बड़े नाम दक्षिण गोवा के बड़े नाम हैं. पूर्व मुख्यमंत्री दिगंबर कामत की विधानसभा मडगांव में बीजेपी ने खराब प्रदर्शन किया. एलेक्सियो सिक्वेरा की साल्सेट तालुका में कांग्रेस उम्मीदवार को 60 हजार से अधिक की बढ़त मिली. उत्तर गोवा में बीजेपी ने एक लाख से ज्यादा के अंतर से जीत हासिल की. बीजेपी के लोग कह रहे है कि चर्च ने बीजेपी की हार में बड़ी भूमिका निभाई जिसकी पकड़ 40 प्रतिशत ईसाई वोटरों पर है. मगर, यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने गोवा में 2014 में चर्च को साथ लेकर बीजेपी की जीत की पटकथा लिखी थी. 2012 के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी को सफलता मिली थी. पर्रिकर ने 127 अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को राज्य की तरफ से अनुदान दिया था. यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों के खिलाफ था. बीजेपी आगे राजनीतिक नुकसान से बचने के लिए पर्रिकर के नक्शेकदम पर चल सकती है.

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