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संडे व्यू: 70लाख नए रोजगार पर सवाल, वामपंथियों की राजनीतिक खुदकुशी

सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के आर्टिकल्स

दीपक के मंडल
भारत
Updated:
सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के आर्टिकल्स
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू, जिसमें आपको मिलेंगे देश के प्रतिष्ठित अखबारों के आर्टिकल्स
(फोटो: pixabay)

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सत्तर लाख नए रोजगार पर सवाल

दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम ने रोजगार पैदा करने के मामले में किए गए दावों पर टिप्पणी की है. उन्होंने पुलक घोष और डॉ. सौम्य कांति घोष के उस दावे का जिक्र किया है जिसमें देश में 2017-18 में 70 लाख नए रोजगार पैदा होने की बात कही गई है. चूंकि पीएम नरेंद्र मोदी ने अपने एक इंटरव्यू में इसका जिक्र किया था इसलिए यह मुद्दा काफी अहम बन गया है. लेकिन चिदंबरम ने डॉ. पुलक घोष और डॉ. सौम्य कांति घोष के इस दावे पर सवाल उठाया है. चिदंबरम लिखते हैं-

वेतनभोगी कर्मचारियों की कुल तादाद 919 लाख है, मगर चमत्कारिक ढंग से, केवल बारह महीनों में देश में 70 लाख नई नौकरियां पैदा हो जाएंगी, जो कि वेतनमान वाली कुल नौकरियों का 7.5 फीसदी होगा.

चिंदबरम ने अपने तर्कों से इनका खंडन किया है और अपने जयराम रमेश और प्रवीण चक्रवर्ती के अध्ययन का हवाला दिया है. बहरहाल रोजगार सृजन पर यह बहस दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है. चिदंबरम ने इसे 70 लाख नई नौकरियों का शेखी बघारना कहा है.

शर्म से झुक गया सिर

वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार तवलीन सिंह ने दैनिक जनसत्ता के अपने लेख में संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत पर हो रहे आंदोलन और हिंसा पर गहरी नाराजगी जताई है. उऩ्होंने लिखा है- डावोस में अपना भाषण देने के बाद प्रधानमंत्री देश के लिए रवाना हुए ही थे कि वह वीडियो देखने को मिला, जिसमें करणी सेना के वीर जवानों ने स्कूल से घर लौटते बच्चों की बस पर हमला बोला. छोटे बच्चों की चीखें कानों में गूंज रही थीं कि टीवी पर आकर मोदी के मंत्रियों ने इस शर्मनाक घटना को ठीक बताने की कोशिश की.

‘बात यह है कि ऐसी फिल्में बनती क्यों हैं, जिनसे किसी समूह की भावनाओं को चोट पहुंचे.’ विदेश राज्यमंत्री जनरल विजय कुमार सिंह के ये शब्द सुन कर मेरे कानों में उन छोटे बच्चों की चीखें और जोर से गूंजने लगीं. तवलीन लिखती हैं-

इस लेख को डावोस में लिख रही हूं. कल शाम यहां आए भारतीय उद्योगपतियों की तरफ से एक इंडिया नाइट मनाई गई थी, जैसे हर साल मनाई जाती है. इस इंडिया नाइट के जश्न में लोगों ने हमसे करणी सेना के बारे में पूछा, हमारे पास जवाब नहीं थे उनके सवालों का.

आम लोग स्पष्ट शब्दों में कहने लगे हैं कि न उन्होंने परिवर्तन देखा है, न विकास. व्यक्तिगत तौर पर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कायम है, लेकिन कब तक रहेगी?

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भारत ग्लोबल लीडर नहीं

टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने पीएम नरेंद्र मोदी के डावोस में उस बयान को अपने कॉलम का विषय बनाया है जिसमें उन्होंने दुनिया में बढ़ते संरक्षणवाद की आलोचना की थी और इसे आतंकवाद और क्लाइमेट चेंज जितना बड़ा ही खतरा करार दिया था. अंकलसरैया लिखते हैं-ऐसा करके पीएम मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की जगह लेने की कोशिश की है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत के पास कोई ऐसा विजन है कि भारत 21वीं सदी में ग्लोबल लीडर बन कर उभरे.

मेरा यह मानना है कि भारत के पास ऐसा कोई विजन नहीं है.अभी भी यह गरीब और पिछड़ा देश और आर्थिक और सामाजिक विचारों के तौर पर विभाजित. भले ही मोदी जी ने डावोस में ग्लोबलाइजेशन की दुहाई दी हो लेकिन भारत अंदर से एक संरक्षणवादी देश है.

एक सच्चे ग्लोबल देश की अपेक्षा भारत आयात को सस्ती चीजें हासिल करने के जरिये के तौर पर नहीं देखता. इसे वह भारत में रोजगार, समृद्धि, उत्पादन के लिए खतरा मानता है. भारत अमेरिका की तरह ही एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने में सबसे आगे है.

अंधराष्ट्रवाद का विरोध

दैनिक अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने अपने कॉलम में महात्मा गांधी के जरिये अंध राष्ट्रवाद का सवाल उठाया है. उन्होंने के एम मुंशी को इतिहास लेखन पर गांधी की टिप्पणियों का संदर्भ देते हुए लिखा है- गांधी की यह टिप्पणी आज बिल्कुल प्रासंगिक है, जब केंद्र और राज्य सरकारें भारत पर मुस्लिमों और अंग्रेजों के प्रभाव से संबंधित हर निशान को मिटा देना चाहती हैं.

वास्तव में वह एक कदम आगे जाकर स्वंतत्रा संग्राम के कुछ मुख्य किरदारों को बेदखल कर उनकी जगह हिंदुत्व के प्रतीकों( गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय आदि) को स्थापित करना चाहती हैं, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में कोई भूमिका नहीं निभाई थी.

इतिहास के साथ की जा रही मौजूदा छेड़छाड़ को गांधी संकीर्ण राजनीतिक हित साधने वाल बता कर अफसोस करते. मैंने उनकी जिन टिप्पणियों का यहां जिक्र किया है, वे दिखाती हैं कि गांधी चाहते थे कि इतिहासकार अंध राष्ट्रवाद और विजयोन्माद से परहेज करें.

सत्यपाल सिंह को हटना जरूरी

हिन्दुस्तान टाइम्स में करण थापर ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह की टिप्पणी पर आश्चर्य जताया है. करण लिखते हैं, मैं सिंह के बयान पर अचरज में हूं. वह न सिर्फ एचआरडी मिनिस्टर हैं (इसमें एजुकेशन भी आता है) बल्कि मुंबई पुलिस के पूर्व चीफ भी हैं. ऐसे लोगों तार्किक, सतर्क और सावधान माने जाते हैं.

समझा जाता है कि वे जो बोलेंगे वह तथ्यों के आधार पर होगा. लेकिन सत्यपाल सिंह ने सार्वजनिक तौर पर डार्विन के विकास सिद्धांत को गलत ठहरा दिया. उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वजों ने कहीं यह नहीं कहा या लिखा कि उन्होंने बंदर को मानव बनते देखा. हमें स्कूल और कॉलेजों के सिलेबस को बदलना जरूरी है.

करन थापर ने सत्यपाल सिंह की टिप्पणियों को अपने चार तर्कों के आधार पर काटते हुए कहा कि मंत्री अपने संवैधानिक कर्तव्य का उल्लंघन कर रहे हैं. भारत के संविधान के अनुच्छेद 51 (ए) में साफ कहा गया है कि इस देश का हर नागरिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करने में मदद करेगा. सत्यपाल सिंह के बयान को देखते हुए क्या सरकार में बने रहना चाहिए?

वामपंथियों की राजनीतिक खुदकुशी

इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में मेघनाद देसाई ने हाल में कांग्रेस से गठजोड़ के सीताराम येचुरी के प्रस्ताव को करात धड़े की ओर से खारिज कर दिए जाने के संदर्भ में अपनी टिप्पणी की है. देसाई लिखते हैं कि इस देश के इतिहास में कई पीएम हो सकते थे. जैसे सुभाष चंद्र बोस,  सरदार बल्लभ भाई पटेल, जयप्रकाश नारायण और के कामराज. बाबू जगजीवन राम के अंदर भी पीएम बनने की इच्छा थी.

लेकिन इन सबमें सबसे अहम मामला ज्योति बसु का है. जिन्हें सिर्फ सीपीएम की हठधर्मिता की वजह से देश का पीएम बनने से वंचित होना पड़ा था. उस वक्त भी पार्टी लाइन भारी पड़ी और अब जब सीताराम येचुरी कांग्रेस से गठजोड़ कर चुनाव में उतरने की बात कर रहे हैं तब भी सीपीएम की पार्टी लाइन भारी पड़ रही है. दरअसल सीपीएम में निजी झगड़े और ईर्ष्या को पार्टी सिद्धांत की आड़ में छिपाया जा रहा है.

मेघनाद देसाई लिखते हैं- भारत की दोनों वामपंथी दल यानी सीपीएम और सीपीआई राजनीतिक ताकत हासिल करने के बजाय एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं. यह ठीक नहीं है. किसी भी भारतीय कम्यूनिस्ट ने भारत को समझने के लिए जाति और और दलितों के मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया. यह नकारेपन से भी नीचे की चीज है. यह राजनीतिक खुदकुशी है.

राजनयिक परंपरा की धज्जियां उड़ीं

और अब कूमी कपूर की बारीक निगाह. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में वह लिखती हैं- इस्राइल के  पीएम बेंजामिन नेतान्याहू ने अपने भारत दौरे में सोनिया गांधी या राहुल गांधी से मुलाकात नहीं की. जबकि यह परंपरा है कि विदेशी राष्ट्राध्यक्ष विपक्ष के नेता से मुलाकात करते हैं. मोदी के पीएम बनने से पहले तक यह स्वीकृत परंपरा थी.

नेतान्याहू के इस दौरे में जब कांग्रेस ने इस परंपरा के उल्लंघन पर विरोध जताया था तो सरकार ने इस चीज की आड़ लेने की कोशिश की कांग्रेस की ताकत लोकसभा में 10 फीसदी भी नहीं है और इसे आधिकारिक विपक्ष के तौर पर भी मान्यता नहीं दी जा सकती.इससे पहले भारत के दौरे पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन और डिप्लोमैटिक चैनल के जरिये राहुल और सोनिया से मुलाकात का आग्रह कर चुके थे.

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Published: 28 Jan 2018,09:34 AM IST

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