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प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि यह विडंबना है कि जब भारत लोकतंत्र बना तो भेदभाव की विरासत को आगे बढ़ाया गया. सामाजिक पिरामिड को उलट दिया गया और उदार पीढ़ियों ने धन की आनुवंशिक यात्रा के रूप में सत्ता की सीढ़ियां चढ़ीं. जाति आधारित परिवारवाद को पनपने दिया. राजनीति और नौकरशाही में भारत के अमीर और शक्तिशाली लोगों की विरासत व्यवस्था दिखती है. हालांकि बीते हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से यह लाभ की गाड़ी पटरी से उतर सकती है.
प्रभु चावला सवाल खड़े करते हैं कि अनुसूचित जातियों की श्रेणी में असमान लोगों के साथ समान व्यवहार समानता के संवैधानिक उद्देश्य को आगे बढ़ाएगा या इसे विफल करेगा. वे पूछते हैं कि क्या एक आईएएस, आईपीएस या सिविल सेवा अधिकारी के बच्चे की तुलना किसी गांव में ग्राम पंचायत या जिला परिषद स्कूल में पढ़ने वाले अनुसूचित जाति के वंचित सदस्य के बच्चे से की जा सकती है? जाति आधारित आरक्षण की शुरुआत करीब 125 साल पहले हुई थी. अनुसूचित जातियों और जनजातियों की दुर्दशा को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने कार्यपालिका और विधायिका में वंचित जातियों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए सकारात्मक धाराएं जोड़ीं. यह सिर्फ एक दशक के लिए अस्थायी प्रावधान था. भारतीय राजनीति यथास्थिति में आनंद लेती है और बदलाव को गतिरोध में बदल देती है. वही हुआ. किसी भी पार्टी ने इस धारा को नहीं बदला या इसे हटाया नहीं. इसलिए इस पर चर्चा ही खत्म हो गयी.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पिछले हफ्ते संसद में बजट पर हो रही बहस में राहुल गांधी ने बजट तैयार करने वाले अफसरों की तस्वीर उठाई और वित्तमंत्री से पूछा कि इसमें दलित और पिछड़ी जातियों के कितने लोग हैं?
तस्वीर उस दिन की थी जब बजट के तैयार होने के बाद वित्त मंत्रालय में हलवा बनाया जाता है. नये नवेले नेता प्रतिपक्ष ने सवाल ऐसे पूछा जैसे बजट को लेकर इससे महत्वपूर्ण सवाल था ही नहीं. लेखिका की नजर में इस सवाल में उल्टे किस्म का जातिवाद था. इसलिए जब अनुराग ठाकुर ने सत्तापक्ष की तरफ से व्यंग्य कसते हुए कहा कि जाति जनगणना की मांग वे कर रहे हैं जिनकी जाति कोई जानता नहीं है तो विपक्ष ने क्यों इतना हल्ला मचाया?
तवलीन सिंह लिखती हैं कि चक्रव्यूह के बीच में उन्होंने प्रधानमंत्री के अलावा वही अंबानी-अडानी के चेहरे दिखाए जिनके पीछे वे पिछले तीन लोकसभा चुनावों से पड़े रहे हैं. जातिवाद का राहुल पर ऐसा जुनून सवार हो गया है कि भूल गये हैं कि देश में गरीबी के कारण और भी हैं.
वित्तमंत्री ने संसद मे गर्व से कहा कि अस्सी करोड़ भारतीयों को मुफ्त अनाज देने का काम प्रधानमंत्री ने किया है. यह गर्व की नहीं शर्म की बात है कि बिना मुफ्त अनाज के उनका गुजारा ही नहीं होता. खैरात बांटन से न गरीबी पहले कम हुई है और न भविष्य में होने वाली है. अंत में लेखिका का कहना है कि जिस तरीके से आरक्षण की मांग उठ रही है कि जल्द ही ऐसी स्थिति आएगी कि सवर्ण जातियों के अलावा सबके लिए आरक्षण होगा.
अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि दिल्ली में तीन युवाओं की मौत ने पूरे शहर को झकझोर कर रख दिया है. ये तीनों युवा ओल्ड राजेंद्र नगर के कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में पानी में डूब गये क्योंकि उस इलाके में जल-निकासी की व्यवस्था नहीं थी या पर्याप्त तरीके से काम नहीं कर रही थी. करीब एक साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के पास के इलाके मुखर्जी नगर में एक ऐसे ही संस्थान का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था. उस वक्त वहां आग लगी थी और बच्चों को इमारत की ऊपरी मंजिल से कूदते और मौत को गले लगाते देखा गया था. इसी इलाके में अवैध निर्माण की वजह से घरों की नींव कमजोर पड़ने से कई मकान गिरने की घटनाएं भी हुई हैं.
अदिति लिखती हैं कि यह तथ्य है कि AAP और एमसीडी के अधिकारियों, खास तौर पर अफसरशाहों की एक-दूसरे से नहीं बनती है. एलजी का कार्यालय नाखुश अफसरों के लिए मंच की तरह हो गया है. बेहतर शासन के लिए सत्ता के दो केंद्र खतरनाक हैं. वर्ष 2022 में आप ने बीजेपी से एमसीडी का नियंत्रण छीन लिया. बीजेपी के 15 साल का वर्चस्व खत्म हुआ. दिल्ली में बीजेपी के उभार की पूरी गुंजाइश बन सकती है जहां मदन लाल खुराना जैसे दिग्गज नेता थे. मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा भीड़ इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं.
सुनंदा के दत्ता रे ने टेलीग्राफ में लिखा है कि हिमालय की पहाड़ियों के दोनों छोड़ पर कुछ ही दिनों के भीतर पांच बेमतलब मौतें हुईं हैं. रामचंद्र पोड्याल, कैप्टन बृजेश थापा, नायक डी राजेश, सिपाही बिजेंद्र और सिपाही अजय की मौत शायद अशांत सीमाओं पर मानवता के लिए शांति पहल की प्रेरणा दे सकते हैं.
10 राष्ट्रीय राइफल्स के 27 वर्षीय थापा और उनके तीन वर्दधारी साथियों को अज्ञात गोलियों ने मार डाला. संभवत: पाकिस्तानी आतंकवादियों ने जम्मू की पैतृक विरासत से अपने बहिष्कार का शोक मनाया था.
सुनंदा के दत्ता रे ने आगे लिखा है कि एक दिन बहते और काली हो चुकी आंखों के साथ उसने होप को फोन किया, “मैं उस गुंडे से पिटा हूं जिसे पहले कभी नहीं देखा था.” सिक्किम का दमन करने के लिए लाए लोगों में से एक अजनबी था वह जो किराए की भीड़ में शामिल था. लेखक उस अशांत समय में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर में एक बांग्लादेशी शिक्षाविद से बातचीत की याद दिलाते हैं.
जम्मू और कश्मीर के भारतीय राज्य में जो परेशानियां थीं, वे तब एक और संकट की ओर बढ़ रही थीं और बांग्लादेशी ने पड़ोसी की भावनाओं को ठेस ना पहुंचे, इसके लिए सुझाव दिया कि स्थानीय को पहली प्राथमिकता मिलनी चाहिए. विभाजन के तर्क के संदर्भ मे उनकी बात सही थी. फिर भी मैंने सुझाव दिया कि जम्मू और कश्मीर ने 26 अक्टूबर 1947 को ही उस विकल्प का प्रयोग कर लिया था, जब महाराजा हरि सिंह ने भारत में शामिल होने के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. जवाब में बांग्लादेशी ने हिचकिचाते हुए कहा, “इतिहास राष्ट्रों को दूसरा मौका देता है.”
करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में जिमखाना क्लब की चर्चा की है. एक ऐसा क्लब जहां समान दर्जे के लोग मिल सकते हैं और आराम कर सकते हैं. उन्हें यह डर नहीं होता कि वे क्लब में जो कहते या करते हैं, उसे सार्वजनिक कर दिया जाएगा. शायद यही कारण है कि जिमखाना क्लब सबको भाता है. क्लब के सदस्यों को ‘सज्जन’ माना जाता है. महिलाओं के लिए भी यही सच है. एक अलिखित लेकिन परिचित आचारसंहिता है. इसके मूल में यह धारणा है कि सदस्य हमेशा सम्मानपूर्वक व्यवहार करेंगे. उन पर सभ्य काम के लिए भरोसा किया जा सकता है.
क्लब एक ऐसी जगह होती है जहां का मिलनासर माहौल आपको दूसरों के लिए ड्रिंक खरीदने या उनके साथ भोजन करने के लिए प्रोत्साहित करता है. अगर आपने एडवांस जमा नहीं किया है या यह अपर्याप्त है तो आप ड्रिंक्स नहीं दे सकते या किसी दोस्त के डिनर का बिल नहीं चुका सकते. अपने सदस्यों के साथ इस तरह के अभद्र व्यवहार के लिए क्लब का बहाना यह है कि कुछ लोग अपने बिल का भुगतान नहीं करते हैं. दुख की बात है कि यह सच है. दस हजार सदस्यों की सूची में बमुश्किल 100 लोग होंगे जो आदतन चूक करते हैं. इसके लिए बाकी भद्रजनों पर अविश्वास किया जाना चाहिए या उन्हें दंडित किया जाना चाहिए?
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