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तवलीन सिंह इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि दिल्ली में किसी चुनाव के दौरान पहली बार इतनी नफरत, कड़वाहट और इतना झूठ देखा. वह इसके लिए दोषी बीजेपी को मानती हैं. वह लिखती हैं कि गृहमंत्री के नेतृत्व में ऐसे योद्धा आए मैदान में, जिनका एक ही मकसद था कि मुसलमानों को गद्दार साबित किया जाए. ऐसा करके वे हिन्दू वोट बैंक मजबूत करना चाहते थे. बीजेपी के हर प्रचारक ने शाहीन बाग को निशाने पर रखा.
इसी तरह बीजेपी के प्रवक्ताओं ने कह डाला कि शाहीन बाग के लोग ‘घरों में घुसकर बहू-बेटियों से बलात्कार करेंगे’. तवलीन सिंह लिखती हैं कि दिल्ली को समझने में बीजेपी ने भूल कर दी. अत्याचार के अतीत को मानते हुए वह लिखती हैं कि दिल्ली में गालिब, मीर, भीष्म साहनी, यशपाल जैसे साहित्यकार हुए. पहली बार किसी चुनाव में दिल्ली ने इतनी नफरत देखी. उन्होंने लिखा कि अगर मोदी सरकार ने समझने की कोशिश की होती तो पता चलता कि शाहीन बाग की महिलाएं कितनी डरी हुई हैं. वह लिखती हैं कि अगर बीजेपी चुनाव हारती है तो यह अच्छा होगा क्योंकि इतनी गंदी राजनीति देश को जोड़ने के बदले तोड़ने का काम करती है.
स्वपन दासगुप्ता ने टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि दिल्ली के चुनाव में अगर बीजेपी जीतती है तो इसका मतलब होगा कि शाहीन बाग जिस वजह से खड़ा हुआ है उससे लोग असहमत हैं. वे लिखते हैं कि चुनाव नतीजे को राजनीतिक संस्कृति की गहराई बताकर पेश करने की परम्परा-सी बन गयी है. दिल्ली चुनाव राजनीतिक महत्व और नागरिक सुविधाओं के बीच चयन के लिहाज से अहम रहा. केंद्र और राज्य में अलग-अलग सरकार अब ट्रेंड बन गया है. अगर यह ट्रेंड टूटता है तो इसका श्रेय बीजेपी के बड़े नेताओं को जाएगा जिन्होंने राष्ट्रीय मुद्दों से जनता को जोड़ने के लिए कड़ी मेहनत की. वहीं, ऐसा नहीं होता है तो इसकी वजह यह होगी कि केजरीवाल सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बेन्सी नहीं देखी गयी.
स्वपन दासगुप्ता लिखते हैं कि अमित शाह जिस तरह से सुर्खियां बने, अपने कार्यकर्ताओं को एकजुट किया उससे मुफ्त पानी-बिजली का मुद्दा से हटकर शाहीन बाग की ओर लोगों का ध्यान केंद्रित हुआ. यह सच है कि सीएए के विरोध में गुस्सा दिखा, लेकिन इस गुस्से के साथ लेफ्ट के लोग भले हों लेकिन आम लोग नहीं हैं. अगर ऐसा होता तो अरविन्द केजरीवाल शाहीन बाग से दूर नहीं होते. बीजेपी की सबसे बड़ी कमजोरी स्थानीय चेहरा नहीं देना रहा. राष्ट्रीय नेतृत्व उसकी भरपाई नहीं कर सकता. झारखण्ड में हार का कारण स्थानीय नेतृत्व का जनता के बीच अलोकप्रिय होना था. स्थानीय चेहरे की कमी तभी जनता नजरअंदाज करती है जब सरकार के लिए एंटी इकम्बेन्सी हो.
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 1 फरवरी को पेश किया गया बजट एक दिन के लिए सुर्खियां और संपादकीय का विषय रहने के बाद चर्चा से उसी तरह ओझल हो गया है जैसे रिलीज होने के तुरंत बाद सामान्य फिल्में गायब हो जाया करती हैं. वे लिखते हैं कि बीजेपी, प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद इसके लिए दोषी हैं. वे उन अर्थशास्त्रियों और उद्योगपतियों को दोषी नहीं ठहरा सकते जो बजट से पहले उनसे चर्चा के लिए मिले थे. वजह यह है कि सरकार के सामने बहुत सारे विचार थे लेकिन उसने उन पर विचार नहीं किया. लेखक ने 26 जनवरी को अपने कॉलम में पेश विचारों का भी उल्लेख किया है जिनकी अनदेखी की गयी.
वे लिखते है कि सरकार इस बात को नकार रही है कि नोटबंदी और खामियों भरी जीएसटी के कारण स्थिति खराब हुई. अर्थव्यवस्था की दशा को लेकर सरकार का अनुमान गलत होना, सरकार का वैचारिक झुकाव का गलत दिशा में होना, उसकी इच्छाशक्ति और सरकार का अक्षम प्रबंधक साबित होना भी प्रमुख वजह हैं जिस कारण स्थिति बिगड़ती चली गयी. वे लिखते हैं कि मांग और निवेश की समस्या से जूझ रही अर्थव्यवस्था का समाधान सरकार नहीं कर पा रही है और वह अंधेरे में तीर चला रही है.
मुकुल केसवान ने टेलीग्राफ में रामलीला मैदान में 2011 में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और 2020 में शाहीन बाग में चल रहे आंदोलन की तुलना की है. पहले आंदोलन ने तत्कालीन यूपीए सरकार को घुटनों के बल खड़ा कर दिया था. उसी आंदोलन की बदौलत अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी खड़ा कर दिया. उसी पार्टी की सरकार में शाहीन बाग आंदोलन चल रहा है मगर उसका प्रभाव सरकारों पर नहीं पड़ रहा है. मीडिया ने भी जहां रामलीला मैदान के आंदोलन को खूब बढ़ावा दिया, वहीं शाहीन बाग आंदोलन को नकारात्मक कारणों से ही सुर्खियों में रखा.
लेखक वॉल स्ट्रीट आंदोलन से भी इसकी तुलना करते हैं. मगर, यह आंदोलन वह रुतबा भी नहीं पा सका है. शाहीन बाग का आंदोलन बीजेपी के लिए राजनीतिक खेल का मैदान जरूर बन गया. बीजेपी ने शाहीन बाग के बहाने दिल्ली चुनाव का मुद्दा सेट करने की कोशिश की. शाहीन बाग का महत्व इस बात में भी है कि एक ऐसे समय में जब प्रचंड बहुमत वाली मोदी सरकार की राह में कोई रोड़े नहीं है, शाहीन बाग की महिलाएं बड़ा रोड़ा बनकर सामने खड़ी दिखी हैं. देश का झंडा, मानचित्र और संविधान लिए यह विरोध प्रदर्शन समान नागरिकता के लिए संघर्ष है. शाहीन बाग आंदोलन ने यह दिखलाया है कि देश के स्तर पर लोगों को एकजुट करना अब भी सम्भव है.
राजेश जोशी ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि 80 साल के बाद ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन यानी बीबीसी हिन्दी का प्रसारण अंतिम रूप से बंद हो गया है. करोड़ों श्रोताओँ और ग्रामीण भारत के वंचित तबके के लोगों के लिए एक विश्वसनीय माध्यम खत्म हो गया है. सूचित करने, शिक्षित करने और मनोरंजन के लिए कई भारतीय पीढ़ियां बीबीसी के प्रसारण पर निर्भर रहीं. 1940 से यह यात्रा शुरू हुई थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इसकी सूचनाएं और ज्ञान ने लोगों में विश्वास जगाया.
2011 में भी इसे बंद करने की कोशिश हुई थी लेकिन तब श्रोताओं और प्रमुख लेखकों के प्रबल विरोध के बीच उसे वापस ले लिया था. कुछ महीने पहले बीबीसी हिन्दी रेडियो पर कुल्हाड़ी तब चली जब इसका प्रसारण जम्मू-कश्मीर में बाधित कर दिया गया.
जुग सुरैया ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में विकास के बहाने दर्द को बयां किया है. गुरुग्राम में कुतबनुमा रिहाइशी मीनारों की तुलना हिमालय पहाड़ से की है. रातों रात यहां कंक्रीट की दीवारें तो खड़ी हो गयीं, लेकिन पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए लोग तरस रहे हैं. लेखक ने अतीत में यादों के झरोखे से बताया है कि यहां कभी उन्हें उल्लू, मोर, गधे, ऊंट जैसे जीव मिल जाया करते थे. अब ये दिखलायी नहीं पड़ते.
सुरैया लिखते हैं कि गुरुग्राम में कई इलाकों में बिजली की स्थिति भी दयनीय है. कई शॉपिंग मॉल निर्माणाधीन हैं और कई के बनने की योजना है. यहां हर कोई कार के पीछे भाग रहा है. बगैर पैसेंजर के भी कारें दौड़ रही हैं लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है. एक बिल्डर के शुभचिंतक अपने साथी के बहाने लेखक लिखते हैं कि बहुत चेताने से भी उन्हें आगाह किया जाता है. मगर, क्या गुरुग्राम में खड़े हो रहे हिमालयों के बीच उन चिन्ताओं को छोड़ा जा सकता है जो प्राथमिकता में होने चाहिए?
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