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संडे की सुबह पढ़िए आज के अखबारों में छपे बेस्ट आर्टिकल

रविवार के दिन पढ़िए देश के तमाम अखबारों में छपे खास आर्टिकल्स

द क्विंट
भारत
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सवाल मत पूछिये, हम राष्ट्रभक्त हैं

पी. चिदंबरम, इंडियन एक्सप्रेस में छपने वाले अपने कॉलम ‘अक्रॉस द आइल’ में लिखते हैं कि आजकल सवाल पूछे जाने को ठीक नहीं माना जा रहा है.

आज कल एक नया सामाजिक और राजनीतिक नियम बनता दिख रहा है - सवाल मत पूछो. लेकिन सवाल यह है कि अगर सवाल नहीं किए जाते तो यह दुनिया ऐसी नहीं होती जैसी दिख रही है. अगर सवाल नहीं पूछे जाते तो दुनिया को लोग गोल की जगह सपाट मानते. समलैंगिकता एक बीमारी होती. बांझ होने का ठीकरा सिर्फ महिलाओं पर ही फोड़ा जाता. गुरुत्वाकर्षण की खोज नहीं होती. सापेक्षता का सिद्धांत किसी पागल के दिमाग की उपज माना जाता. और आसमान में उड़ने का ख्याल सिर्फ पक्षियों के उड़ने तक सीमित रह जाता. महात्मा गांधी से लेकर देंग ज्याओ फिंग ने सवाल पूछे और इस वजह से महान बदलाव हुए. अब आरटीआई के जरिये सवाल पूछे जा रहे हैं और सवाल पूछने की यह शानदार परंपरा संसद में निभाई जाती है. हालांकि, सवाल करने की यह परंपरा खतरे में है- पहली बात यह कि आप सवाल न करें. दूसरी, अगर सवाल करते हैं तो राष्ट्रविरोधी हैं. आपके सवाल को इस तरह तोड़-मरोड़ कर जवाब दिया जाएगा कि आप देखते रह जाएंगे. जो सवाल करते हैं उसका जवाब नहीं मिलेगा. इसके बजाय कुछ और अप्रासंगिक जवाब मिलेगा. अब जवाब देने के बजाय झूठ का सहारा लिया जा रहा है. अगर आप सेना की क्षमता और मुठभेड़ की सच्चाई पर सवाल उठाते हैं तो वे मुंह दूसरी ओर घुमा लेंगे. भोपाल मुठभेड़ कांड में जो हुआ , उसमें मुझे कतई यह शक नहीं है कि कानून के हाथ गुनहगार तक नहीं पहुंचेंगे. मैं यह तो नहीं कह सकता कि जो जांच हो रही है उससे सच सामने आएगा, लेकिन इतना सच है कि सवाल जारी रहेंगे.

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ब्रिटिश राज का हासिल

करन थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में शशि थरूर की नई किताब के बहाने भारत में ब्रिटिश राज की खामियों और अच्छाइयों पर अपनी संक्षिप्त राय पेश की है.

करन कहते हैं कि ब्रिटिश पीएम थेरेसा रविवार को भारत आ रही हैं. और, यह संयोग है कि इसी दिन शशि थरूर की किताब ‘एन एरा ऑफ डार्कनेस’ रिलीज होने वाली है. अगर थेरेसा मानती हैं कि भारत में ब्रिटिश राज एक अंधकार युग था तो वह अर्धसत्य को मंजूर करेंगी. और कभी ब्रिटिश राज की तारीफ करने वाले मनमोहन सिंह भी इससे सहमत होंगे. थरूर ने ब्रिटिश राज की लूट के दो उदाहरण दिए हैं. थरूर ने लिखा है टेक्सटाइल और रेलवे दोनों के जरिये ‘राज’ ने भारत को लूटा और इसे एक अंधकार युग में धकेल दिया. हालांकि, थरूर भारत में ब्रिटिश राज की खूबियों मसलन- कानून के शासन, संवैधानिक सरकार, आजाद प्रेस, पेशेवर सिविल सर्विस, आधुनिक विश्वविद्यालय, न्यायपालिका, सेना, पुलिस और निसंदेह अंग्रेजी भाषा को भारत की बेहतरी के तौर पर मानने में चूक गए हैं. करन कहते हैं- मुझे पूरा विश्वास है कि थरूर ने ब्रिटेन पर जो आरोप लगाए हैं, उसका समर्थन भी उन्हें वहीं दिखेगा. ... थेरेसा के लिए शायद यह मुस्कुराने की असली वजह होगी.

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अमेरिकी महिलाओं पर दारोमदार

चिदानंद राजघट्टा ने टाइम्स ऑफ इंडिया में 8 नवंबर को होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप और हिलेरी के भाग्य का फैसला करने वाले दो अहम वोटर समुदायों का जिक्र किया है. ... और ये वोटर समुदाय हैं- आप्रवासी और महिलाएं. ये दोनों वोटर डोनाल्ड ट्रंप के लिए मुसीबत बन सकते हैं. दोनों चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप के निशाने पर रहे हैं.

चिदानंद लिखते हैं- अमेरिका जबरदस्त ढंग से आप्रवासियों का देश है. आप्रवासियों का आना 1960 के दशक में शुरू हुआ था. बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश से लेकर बराक ओबामा के राष्ट्रपति काल के दौरान यहां तीन करोड़ से अधिक आप्रवासी पहुंच चुके हैं, जो कनाडा की कुल आबादी के बराबर है. इस वजह से यह जबरदस्त विविधताओं का भी देश है. न्यूयॉर्क के क्वींस, कैलिफोर्निया के बे एरिया और फ्लोरिडा के फोर्ट लॉडरडेल में भाषा, संस्कृति और भोजन की जबरदस्त विविधता दिखेगी. जाहिर है अलग-अलग पृष्ठभूमियों वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनने में अहम भूमिका निभाएंगे. दूसरा वोटर समुदाय है- महिलाएं. अमेरिकी महिलाएं, पुरुषों से ज्यादा वोट करती हैं और आज की तारीख में हर दस परिवार में से चार में, वही जीविका चला रही हैं. ट्रंप आप्रवासियों और महिलाओं दोनों के खिलाफ अपना रवैया जाहिर कर चुके हैं. लिहाजा, 8 नवंबर को जब चुनाव होंगे को देखना होगा कि अप्रवासी और महिलाएं क्या रुख अपनाएंगी.

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बाय-बाय बराक

अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का कार्यकाल खत्म हो रहा है. अपनी विदाई के आखिरी दौर के मेल-मुलाकातों में ओबामा की बॉडी लैंग्वेज और अंदाज, परंपरागत राष्ट्रपतियों से अलग रहा. विदेशी संवाददाताओं के साथ बतौर राष्ट्रपति अपनी मुलाकात में उन्होंने बास्केटबॉल खिलाड़ियों की बॉडी लैंग्वेज अपनाई. माइक रख दिया और कहा ओबामा आउट. अपने पूरे कार्यकाल में ओबामा के कम्यूनिकेट करने का अंदाज बाकी राष्ट्रपतियों से अलग रहा है. एक सामान्य अमेरिकी की तरह. वे पॉपुलर टॉक शो में पेश हुए हैं. उन्होंने गाने गाए हैं. आम जिंदगी के काम निपटाते उनके वीडियो वायरल हुए हैं. ओबामा की संवाद शैली में पॉप कल्चर और स्पोटर्स के रेफरेंस दिखे हैं. ऑनलाइन इंटरव्यू, पोडकास्ट्स और वायरल वीडियो में दिखी उनकी कम्यूनिकेशन स्टाइल में इसकी छवि साफ दिखती है. ओबामा के इस अंदाज ने आने वाले राष्ट्रपतियों की कम्यूनिकेशन स्टाइल के प्रति अपेक्षा पैदा कर दी है. इंडियन एक्सप्रेस में अलग-अलग पत्रिकाओं और दूसरे प्रकाशनों के हवाले से छपे लेख में उनके आम अमेरिकी वाले अंदाज का जिक्र किया गया है. कहा गया है कि यह वक्त व्हाइट हाउस में आने वाले राष्ट्रपति के बारे में कयास लगाने के साथ ही ओबामा और उनके अंदाज को याद करने का भी है. 

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फिर नेहरू और पटेल का सवाल

वरिष्ठ इतिहासकार रामचंद्र गुहा अमर उजाला में पटेल और नेहरु पर लिखते हैं कि दोनों राजनेता एक-दूसरे से एकदम भिन्न थे लेकिन उन्हें एक चीज एक-दूसरे से जोड़ती थी और ये थी उनका देशप्रेम.

नरेंद्र मोदी के सत्ता में आते ही सरदार बल्लभ भाई पटेल को हिंदूवादी दक्षिणपंथी नेता के तौर पर पेश करने की कवायद शुरू हो गई. लेकिन इस कवायद के साथ नेहरू का कद छोटा करने की कोशिश भी शुरू हुई. पटेल और नेहरू के कथित मतभेदों और टकरावों के बारे में जोर-शोर से प्रचार किया गया. लेकिन क्या वे वास्तव में एक दूसरे के विरोधी थे. ‘अमर उजाला’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं- हाल के वर्षों में विचारकों ने नेहरू और पटेल के अंतर को गहरी राजनीतिक मुकाबले में बदल दिया है. 1950 में प्रकाशित ए. एस. आयंगर की किताब ‘ऑल थ्रू द गांधियन एरा’ के हवाले से रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि स्वभाव और व्यक्ति त्व में निःसंदेह दोनों एक दम भिन्न थे. मगर उन कठिन वर्षों में अहम यह था कि कौन सी चीजें दोनों को जोड़े रखती हैं. नेहरू और पटेल दोनों में ही अपने देश के प्रति गहरा प्रेम था, देश की एकता को लेकर प्रतिबद्धता थी. उनमें यह समझ थी उन पर उनके साझा गुरु महात्मा गांधी की स्मृतियों का कर्ज है, जिसके लिए उन्हें आपस में मिल कर काम करना और कठोर मेहनत करनी है.

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इन सवालों पर क्यों छा जाती है चुप्पी

टाइम्स ऑफ इंडिया में अमूल्य गोपालकृष्णन ने भोपाल की जेल से भागे सिमी के कथित आतंकवादियों को मुठभेड़ में मार गिराए जाने के बाद मध्य प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार के कुछ मंत्रियों के रुख पर सवाल उठाया है.

वह लिखती हैं - जब नारे लगाने वाले छात्रों का सवाल या किसी मंत्री के विवाहेतर संबंध का मामला तो हम तुरंत निर्णय सुना देते हैं. लेकिन किसी आरोप में दोषी न करार दिए गए विचाराधीन कैदियों की शासन की ओर से नृशंस हत्या पर हमारी नैतिक तेजी गायब हो जाती है. भारत में लोगों की भावनाएं और कानून का शासन दोनों का एक दूसरे से काफी फासला है. सिमी के कथित आतंकियों को मुठभेड़ में मारे जाने की इस घटना में साफ है कि तथ्य और पेश की गई हकीकत में काफी अंतर है. इस देश में इस तरह की मुठभेड़ें नई बात नहीं हैं. पश्चिम बंगाल से लेकर पंजाब, कश्मीर से लेकर मुंबई और गुजरात, इस तरह की मुठभेड़ें रूटीन हो गई हैं. तमाम मानदंडों से देखें तो मध्य प्रदेश सरकार ने इंतिहा कर दी है. 

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