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टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि तीन दशक पहले नरसिंह राव सरकार आई थी और आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी. तब वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 1.1 फीसदी थी जो अब बढ़कर 3.3 फीसदी हो चुकी है. अमेरिकी डॉलर में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 11 गुना बढ़ा है. चीन और वियतननाम को छोड़कर किसी देश का प्रदर्शन भारत से बेहतर नहीं रहा है. तब 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था इस साल छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने वाली है.
शक्ति संतुलन में भारत चीन से पिछड़ रहा है. रोजगार के क्षेत्र में हम पहले से पिछड़ रहे थे. पिछले दो साल में हालात ज्यादा खराब हुए हैं. लाखों लोग फिर से गरीबी के दुष्चक्र में फंस गए हैं और लाखों छोटे उपक्रम बंद हुए हैं. आने वाले 30 सालों में हमारी स्थिति इसी बात पर निर्भर करने वाली है कि आर्थिक और कल्याणकारी नजरिए से हम रोजगारपरक गतिविधियों को कितना बढ़ावा दे पाते हैं.
एसए अय्यर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में समान नागरिक संहिता को धर्मनिरपेक्ष कवायद बनाने की वकालत की है. उन्होंने लिखा है कि शादी, तलाक, विरासत और दूसरे मामलों में विभिन्न धार्मिक समूहों को अलग-अलग कायदे-कानूनों पर अमल की इजाजत नहीं दी जा सकती. यह धर्मनिरपेक्षता नहीं है. धर्मनिरपेक्षता का मतलब है सबके लिए समान कानून. आपराधिक कानून के मामले में यह पहले से मौजूद है. मुस्लिम धर्म गुरु शरिया कानून के हिसाब से किसी चोर की उंगली नहीं काट सकते. लेखक बड़ा सवाल उठाते हैं कि जब आपराधिक कानून को सभी धर्म मान सकते हैं तो समान नागरिक संहिता क्यों नहीं मान सकते?
अल्पसंख्यक वोट बैंक की चिंता करने वाली पार्टियों ने पर्सनल लॉ में सुधार पर ध्यान नहीं दिया, इसलिए समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ना जरूरी हो गया है. पंडित नेहरू हिंदू कोड बिल में सुधार लेकर आए, लेकिन दूसरे धर्म के मामले में ऐसा नहीं कर पाए.
बीजेपी दशकों से समान नागरिक संहिता की वकालत करती रही है. कुछ लोग सोचते हैं कि बीजेपी आम चुनाव से पहले इस दिशा में पहल करेगी, लेकिन ऐसा नहीं लगता. इस दिशा में तुरंत बढ़ा नहीं जा सकता. सभी धार्मिक समूहों और न्यायिक व्यवस्था की इसमें भागीदारी जरूरी है. समान नागरिक संहिता केवल अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ में सुधार भर नहीं है. हिंदुओं में प्रचलित परंपरा में बदलाव भी इसका हिस्सा है. सुप्रीम कोर्ट तीन अलग-अलग मामलों में धार्मिक स्वतंत्रता और भेदभाव रोकने को लेकर 7 जजों की बेंच बना चुका है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता को लेकर वकील अश्विनी उपाध्याय की 5 याचिकाएं स्वीकार की हैं. अतीत में सुप्रीम कोर्ट समान नागरिक संहिता न बनाए जाने को लेकर नाखुशी जाहिर कर चुका है.
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जीएसटी कोई अनोखी चीज नहीं है और यह दुनिया के कई संघीय और एकात्म राष्ट्र-राज्यों में लागू है. स्वरूप जरूर अलग-अलग हैं. भारत में केंद्र और राज्य सरकारों को एक सतह पर लाना कठिन काम था मगर यह पूरा हुआ. साझा संप्रभुत्ता का पालन करने का प्रयास केंद्र और राज्य सरकारों ने किया गया. यशवंत सिन्हा, प्रणब मुखर्जी और खुद लेखक ने इस पर अमल किया. अरुण जेटली जब तक अध्यक्ष रहे, वित्त मंत्रियों के समूह और जीएसटी परिषद की बैठकें हमेशा सहज और बिना किसी टकराव के संपन्न हुईं. मगर, निर्मला सीतारमण के आने के बाद परिषद की शायद ही कोई ऐसी बैठक हुई होगी जिसमें विवाद और टकराव न हुए हों. केंद्र और राज्य सरकारों के बीच परस्पर विश्वास और सम्मान खत्म हो चुका है.
लेखक बताते हैं कि आर्टिकल 246ए अंतरराज्यीय व्यापार और वाणिज्य को छोड़कर संसद और विधानसभा दोनों को जीएसटी उगाही की शक्ति प्रदान करता है. आर्टिकल 269ए में कहा गया है कि जीएसटी भारत सरकार द्वारा लगाया जाएगा और फिर वस्तु एवं सेवा कर परिषद की सिफारिशों के आधार पर कर का बंटवारा केंद्र और राज्यों के बीच करेगा.
लेखक का दावा है कि केंद्र सरकार एकतरफा फैसला कर रही है. पंजाब के वित्त मंत्री मनप्रीत बादल ने जीएसटी कार्यान्वयन समिति में प्रतिनिधित्व का सवाल और कोविड से जुड़ी वस्तुओं पर जीएसटी में कटौती का मुद्दा उठाया. आठ मंत्रियों की समिति बनी लेकिन उसमें कांग्रेस शासित राज्य बाहर कर दिए गए जिन्होंने ये सवाल उठाए थे. पश्चिम बंगाल के वित्त मंत्री डॉ अमित मित्रा ने पत्र लिखकर बताया कि जनवरी 2021 तक जीएसटी का बकाया 63 हजार करोड़ रुपये है. मगर, टीवी इंटरव्यू में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐसे सवाल को झिड़क दिया. लेखक का आरोप है कि मोदी सरकार राज्यों को डराने के लिए जीएसटी का इस्तेमाल कर रही है.
तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि तीन छात्र एक साल से तिहाड़ जेल में इसलिए कैद थे कि उन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन का विरोध किया था. दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि विरोध और आतंकवाद के बीच का अंतर अगर मिटा दिया जाता है तो लोकतंत्र के लिए यह बहुत उदास दिन होगा. लेखिका ने इस संयोग की ओर भी ध्यान दिलाया है कि भारत ने जी-7 सम्मेलन में शिरकत करते हुए उस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए हैं जिसमें लोकतंत्र के उसूलों को बनाए रखने का वचन दिया गया है. इसमें लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और मानव अधिकारों को कायम रखने का वादा है. प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से इसे पढ़ा होगा.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि इमर्जेंसी के दिनों को छोड़कर बाकी समय में भारत लोकतंत्र के मार्ग पर चला है.
लेखिका ध्यान दिलाती हैं कि भारत से कई गुना ताकतवर होकर भी चीन वह सम्मान दुनिया में नहीं पा सका है जो भारत का रहा है और इसकी वजह यही है कि हर मुश्किलों के बीच भारत ने लोकतंत्र को जिंदा रखा है. अब यह नरेंद्र मोदी पर निर्भर करता है कि वह भारत पर लगा ‘अर्ध स्वतंत्र’ का दाग मिटाते हैं या इसे बनाए रखते हैं.
एसवाई कुरैशी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राजनीतिक गलियारों में लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) की टूट चर्चा में हैं और बहुत से सवाल पूछे जा रहे हैं. ऐसे अर्ध-न्यायिक मामलों में चुनाव आयोग स्वत: संज्ञान नहीं लेता. इलेक्शन सिम्बल्स (रिजर्वेशन एंड एलॉटमेंट) ऑर्डर 1968 के सेक्शन 15 के तहत दोनों पक्षों को बुलाया जाता है और उनके दावों से संबंधित हलफनामे लिए जाते हैं. सांसदों-विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों की संख्या के आधार पर यह तय किया जाता है कि मूल पार्टी कौन-सी है. 1969 में कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (ओ), फिर 1978 में कांग्रेस (इंदिरा) और कांग्रेस (तिवारी) के रूप में बंटी कांग्रेस का मुद्दा अहम रहा था. 1980 में एआईएडीएमके भी दो भागों में बंटी थी. बाद में और भी उदाहरण सामने आए हैं.
कुरैशी बताते हैं कि सभी मामलों में संगठन और सांसदों-विधायकों की संख्या को ध्यान में रखा गया. 1969 में कांग्रेस की टूट पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को सही ठहराया था और कहा था कि चुनाव चिह्न संपत्ति की तरह नहीं बांटे जा सकते. मूल पार्टी ही इसका दावेदार होगी. 1964 में सीपीआई की टूट के मामले में चुनाव आयोग ने 1961 के कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स के आधार पर फैसला सुनाया था. एक नई पार्टी सीपीआई (एम) बनी थी. 1997 में चुनाव आयोग ने नया नियम लागू किया कि एक समूह को पार्टी का चुनाव चिह्न मिलेगा और दूसरे को नई पार्टी के तौर पर पंजीकृत कराना होगा जिसके राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्वरूप पर फैसला उसके प्रदर्शन के आधार पर तय होगा. देखना यह है कि मौजूदा मामले में चुनाव आयोग क्या रुख अपनाता है.
निकोलस क्रिस्टोफ ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि भले ही अमेरिका बाल विवाह के खिलाफ ग्वाटेमाला से लेकर जिम्बाब्वे तक दुनियाभर में अभियान चलाता रहा हो, लेकिन खुद अमेरिका में यह प्रचलन बढ़ा है. अमेरिका के 45 प्रांतों में 18 साल से कम उम्र के लड़के-लड़कियों को शादी की इजाजत दी जा रही है. 9 प्रांतों में शादी की कोई न्यूनतम उम्र नहीं है. एक अध्ययन के मुताबिक 2000-18 के दौरान 17 साल या इससे कम उम्र की 3 लाख बच्चियों की शादी हुई है. 14 साल से कम उम्र में शादी के उदाहरण हजार से ज्यादा हैं. पांच ऐसे मामले हैं जब 10 साल की उम्र में शादी कर दी गई है.
न्यूयॉर्क ने ऐसा ही बिल पास किया है जिस पर गवर्नर के हस्ताक्षर होने बाकी हैं. ऐसे प्रांतों में भी अभिभावकों की मर्जी और अदालत की मंजूरी की जरूरत के बावजूद बाल विवाह रुक नहीं रहे हैं. वजह ये है कि ऐसे मामलों में लड़की, उसका गर्भवती होना, ज्यादा उम्र के बलात्कारी से विवाह जैसे अन्य परिस्थितियां आ जाती हैं. ताजा अध्ययन के मुताबिक सन 2000 के बाद से 60 हजार से ज्यादा बाल विवाह ऐसे हैं जिनमें उम्र का इतना बड़ा अंतर है कि सेक्स को 'अपराध' कहा जाना चाहिए. लेखक का कहना है कि बांग्लादेश और यमन में बाल विवाह रोकने के लिए अमेरिका अभियान चलाए, लेकिन उसे अपने यहां भी ऐसा ही करना चाहिए.
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