advertisement
टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया ने यूपी में अवैध बूचड़खानों को बंद करने के नाम पर चलाए जा रहे योगी सरकार के अभियान पर पीएम नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी है. वह लिखते हैं- आप सबका साथ, सबका विकास के नाम पर सत्ता में आए थे. लेकिन अवैध बूचड़खानों के खिलाफ चल रहे अभियान के नाम पर मीट बेचने वाले दुकानों के खिलाफ कार्रवाई से मीट दुकानदार भड़क गए हैं. उन्होंने हड़ताल कर दी. कई मीट दुकानें जला दी गईं.
इससे 2015 की बीफ-किलिंग की खौफनाक यादें सामने आ गईं. हड़ताल की वजह से मीट और लेदर के उपभोक्ताओं को सामान नहीं मिल रहा है. इससे इंडस्ट्री और रोजगार दोनों को नुकसान पहुंचा है.
सरकार का लक्ष्य इन्हें औपचारिक शक्ल देने का होना चाहिए. इन्हें कानूनी बनाना चाहिए. लेकिन एक प्रक्रिया के तहत. अनौपचारिक मीट उद्योग समेत सभी तरह के अनौपचारिक उद्योगों को औपचारिक शक्ल देनी होगी. यूपी से पांच अरब डालर का भैंस का मीट निर्यात होता है.
स्वामी लिखते हैं- एक निष्पक्ष विश्लेषक होने के नाते मैंने बीजेपी की 2014 की जीत की भविष्यवाणी की ती. बिहार की हार की भी और बीजेपी की हाल की यूपी की जीत की भी. अगर एंटी बीफ अभियान और ज्यादा फैलाता तो मीट और लेदर इंडस्ट्री बैठ जाएगी. आप लाखों लोगों को न सिर्फ अलग-थलग करेंगे बल्कि मध्यमार्गी वोटरों को नाराज करेंगे और भाजपा विरोधी मोर्चे को हवा देंगे.
यूपी में योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के साथ ही एंटी रोमियो और अवैध बूचड़खानों के खिलाफ चले अभियान ने सुशासन के उनके वादों को प्रति चिंता पैदा कर दी है. हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने लिखा है- ये संकेत अच्छे नहीं हैं. यूपी में बीजेपी की जीत गरीबों की तरफदारी की जीत है. राज्य में लोगों ने अपनी बेहतर जिंदगी के लिए बीजेपी को वोट दिया है. लिहाजा योगी सरकार की कसौटी विकास होगी. लेकिन योगी ने जो शुरुआत की है वह अच्छी नहीं लग रही है. हालांकि यह जल्दबाजी हो सकती है लेकिन शुरुआती दो हफ्तों के दौरान योगी सरकार के कदम उम्मीद नहीं जगाते.
यह वह राज्य है जहां युवाओं के लिए स्किल विकास करने नौकरियां पैदा करने की जरूरत है. लोगों ने इसीलिए बीजेपी को वोट दिया था. लिहाजा योगी को अब इन पर फोकस करना चाहिए. बीजेपी को यूपी को बदलने का जनादेश मिला है. अगर वे संकीर्ण सांस्कृतिक मुद्दों में उलझे रहे तो बीजेपी को अपनी बेहतर जिंदगी में उम्मीद में वोट देने वालों को गहरी निराशा होगी.
कोटा में हॉस्टलों में सुसाइड प्रूफ पंखे और हूटर लगाए जा रहे हैं. हिंदुस्तान टाइम्स में कुमकुम दासगुप्ता ने कोचिंग इंडस्ट्री के शहर के तौर पर उभरे शहर कोटा में इस तरह की विडंबनाओं के जरिये आज की शिक्षा व्यवस्था और उसके व्यवसायीकरण पर तीखी टिप्पणी है. वह लिखती हैं - हजारों छात्र-छात्राएं इस शहर में इंजीनियरिंग और मेडिकल इंजीनियरिंग की तैयारी करने आते हैं. फर्ज कीजिये कि आप अपने बच्चे को कोटा के किसी इंस्टीट्यूट में दाखिले के लिए ले जाते हैं.
दासगुप्ता लिखती हैं, इंटरनेट पर कोटा की कोचिंग इंडस्ट्री की ग्रोथ स्टोरी ढूंढ़ने के लिए सर्च कर रही थी. मुझे किसी की यह टिप्पणी पढ़ने को मिली- इन सभी कोचिंग सेंटरों ने स्टूडेंट्स को मशीन बना दिया है. उनके सोचने के आनंद को छीन लिया है. उनकी क्रिएटिविटी घटा दी है. मैं भाग्यशाली रहा. मैं वक्त रहते यहां से निकल लिया. कोटा में बच्चों को सुसाइड प्रूफ पंखों और हूटर की नहीं प्रोफेशनल मदद की जरूरत है. उन्हें उस दबाव का बेहतर तरीके से सामना करना सीखाना होगा, जिनसे वह इंजीनियरिंग और मेडिकल परीक्षा की तैयारियों के दौरान गुजरते हैं.
जनसत्ता में पी. चिदंबरम ने वित्त विधेयक में संशोधनों पर टिप्पणी की है. उन्होंने इसे निरकुंश सत्ता का उन्माद करार दिया है. चिदंबरम लिखते हैं- वित्त विधेयक-2017, संविधान के अनुच्छेद 110 पर हमला है. वित्त विधेयक की 189 में से 55 धाराओं का कर-निर्धारण से कोई लेना-देना नहीं है. इसके अलावा, ये 55 धाराएं वित्त विधेयक की अन्य धाराओं की आनुषंगिक नहीं हैं, जो कर-निर्धारण से संबंधित हैं.
चिदंबरम ने सियासी चंदे के सवाल पर लिखा है- अगर मकसद पारदर्शिता लाना तथा सियासी चंदे को साफ-सुधरा बनाना है, तो चंदा किसने दिया और किस राजनीतिक दल ने लिया, यह गुप्त क्यों रहना चाहिए? वित्त विधेयक-2017 ने काले धन को सफेद बनाने की राह आसान की है. कंपनियों तथा अन्य दानदाताओं को चेताया जाना चाहिए: भविष्य में कोई सरकार कानून में संशोधन कर देगी और चंदा देने वालों तथा पाने वाले राजनीतिक दलों, सभी के नाम सार्वजनिक कर देगी.
दैनिक जनसत्ता में ही वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने हाल में महाराष्ट्र के उस्मानाबाद के शिवसेना विधायक रवींद्र गायकवाड़ की ओर से एयर इंडिया के बुजुर्ग कर्मचारी की चप्पल से पिटाई के मामले में टिप्पणी की है .
वह लिखती हैं- गायकवाड़ साहब की इस हरकत ने प्रधानमंत्री को अच्छा मौका दिया है उनको अपनी औकात में लाने का. राजनेताओं का घमंड कुछ इसलिए ज्यादा है अपने देश में, क्योंकि हमने उनकी आदत डाल रखी है राजा-महाराजों की तरह रहने की.
क्या इस गलत परंपरा को समाप्त करने का वक्त नहीं आ गया है? जिस देश में जिंदगी भर कमाने के बाद भी आम आदमी एक छोटा-सा घर नहीं बना सकता, उस देश में हमारे राजनेताओं को क्यों अधिकार हो महलों में रहने का और वह भी जनता के पैसों से? जब तक इस परंपरा को हम बदलेंगे नहीं, तब तक हमारे राजनेताओं का घमंड भी नहीं कम होगा. इतनी खातिर की है हमने उनकी कि वे भूल गए हैं कि जनता के सेवक हैं, राजा नहीं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)