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संडे व्यू: राहत पैकेज नहीं, मजबूत बुनियाद चाहिए, खोए-खोए राहुल

इस संडे अखबारों में क्या है खास? जानना है तो यहां पढ़ें

द क्विंट
भारत
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स
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सुबह मजे से पढ़ें संडे व्यू जिसमें आपको मिलेंगे अहम अखबारों के आर्टिकल्स
(फोटो: iStockphoto)  

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इकनॉमी को ‘मिसिंग मिडिल’ मॉडल की जरूरत

मुंबई के एलफिंस्टन रोड पर रेलवे ब्रिज के हादसे पर अफसोस जताते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स में राजेश महापात्र लिखते हैं, यह पुल जर्जर हो चुका था लेकिन किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया. नया पुल बनाने की जहमत नहीं उठाई, जबकि परेल का इलाका दफ्तरों, प्रतिष्ठानों और तमाम आधुनिक कारोबारी संगठनों से भर चुका था. ठीक इसी तरह भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत है. हम लगातार इसकी अनदेखी कर रहे हैं.

राजेश लिखते हैं कि

मुंबई की त्रासदी की तरह ही भारतीय अर्थव्यवस्था एक त्रासदी की ओर बढ़ रही है और नीति-निर्माताओं ने या तो इसकी अनदेखी शुरू कर दी है और फिर अर्थव्यवस्था में उस खाली जगह को भरने के बारे में सोचना बंद कर दिया है, जिसे हम ‘मिसिंग मिडिल’ कहते हैं. मिसिंग मिडिल उन कंपनियों को कहते हैं, जिनका टर्नओवर 20 लाख डॉलर से लेकर 10 करोड़ डॉलर का होता है और जिनमें कई सौ कर्मचारी होते हैं.

अमेरिकी पूंजीवादी स्ट्रक्चर को मजबूत करने में और जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों की आर्थिक समृद्धि में इसने अहम भूमिका निभाई है. भारत में 50 फीसदी मैन्यूफैक्चरिंग जॉब उन कंपनियों में हैं, जिनमें 50 से कम कर्मचारी हैं और 25 फीसदी उनमें, जिनमें 500 या उससे ज्यादा कर्मचारी हैं.

ये कंपनियां कम उत्पादकता, कम गुणवत्ता वाली होती हैं, जिनसे इकनॉमी को नुकसान पहुंचता है. राजेश लिखते हैं- भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट के इस दौर में नरेंद्र मोदी मिसिंग मिडिल का मॉडल अपना कर नया रास्ता बना सकते हैं. लेकिन इसके नतीजे आने में देर लगेंगे. इसे सिर्फ चुनावी मकसद से नहीं किया जा सकता है.

मैं ट्वीट क्यों नहीं करता

हिन्दुस्तान टाइम्स के अपने कॉलम में करन थापर ने लिखा है कि वह ट्वीट क्यों नहीं करते. वह कहते हैं- जब मोदी से लेकर ट्रंप तक और हॉलीवुड से बॉलीवुड एक्टर्स, लेखक, पत्रकार और करोड़ों लोग ट्वीट कर रहे हैं तो मुझसे पूछा जाता है आप ट्वीट पर क्यों नहीं हैं. मेरा मानना है कि 140 कैरेक्टर में मैं अपने शब्दों को गुमराह करने वाले सरलीकरण और यहां तक कि तोड़े-मरोड़े बगैर व्यक्त नहीं कर सकता. ज्यादातर मुद्दों पर आपको ज्यादा जगह चाहिए होती है. इसलिए ज्यादातर ट्वीट, ट्विट अवमानना या आक्षेप में बदल जाते हैं.

जब आप निजी राय व्यक्त करते हैं तो या तो यह किसी के पक्ष में उतर पड़ना होता है. ऐसे में आप असहमत होने वाले टारगेट बन जाते हैं जो आपकी बातों को राई से पहाड़ बना देना चाहते हैं. ऐसे में आप भी आक्रामक मैसेज करने ले हैं और आखिरकार अपने बचाव में आपकी भाषा तीखी और कई बार गाली-गलौज वाली हो जाती है. 

करन थापर लिखते हैं कि कई बार आपकी भाषा ऐसी हो जाती है, जिसका बचाव नहीं किया जा सकता है. मैं ट्वीटर पर इसलिए भी नहीं हूं कि मुझे अपने विचार उन हजारों, लाखों करोड़ों लोग तक पहुंचाने की जरूरत नहीं है जिन्हें न तो मैं जानता हूं और न जिनसे कभी मिला हूं और न ही मैं उन्हें प्रभावित करना चाहता हूं. न तो मैं कोई नेता हूं जिसे लोगों का ध्यान खींचना है और न ही मुझे वोट लेना है.

दरअसल सच तो यह है कि कई विषयों पर मेरी राय ऐसी नहीं होती जिसे शेयर किया जा सके. वे किसी दूसरे से किसी मायने में अच्छे नहीं होते. ज्यादातर मुद्दों पर मेरी कोई विशेषज्ञता नहीं होती. कई मुद्दों पर मैं नादान हूं और कइयों पर मेरी राय बदल जाती है. उन मुद्दों पर कइयों की तरह मैं भी अज्ञानी होता हूं. लिहाजा मैं क्यों किसी अज्ञानी अधरकचरे की तरह अपने विचार लोगों तक पहुंचाता फिरूं. न तो फिल्म स्टार और या क्रिकेट खिलाड़ियों को जन्मदिन की बधाई देता हूं. मेरी जिंदगी में उनका कोई मतलब नहीं और न वे मुझे जानते हैं. और न मैं यह चाहता हूं कि टेलीविजन के पर्दे पर नीचे मेरा ट्वीट चलता रहे.

राहत पैकेज नहीं, बुनियाद मजबूत करने की जरूरत

अर्थव्यवस्था के बिगड़ते हालात को देखते हुए इसे सरकारी खजाने से 40000 करोड़ रुपये का पैकेज मुहैया कराने पर चर्चा गर्म है. यह सच है कि पिछली पांच तिमाहियों से अर्थव्यवस्था लुढ़कती जा रही है. लोग इसके लिए नोटबंदी और फिर जीएसटी की लाल फीताशाही को दोषी ठहरा रहे हैं. इस बीच पूर्व वित्त मंत्री और बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा ने सरकार की आर्थिक नीतियों को कठघरे में खड़ा किया है. टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया इन हालातों में चेताते हुए कहते हैं.

यह स्थिति सरकारी खजाने से पैकेज देने से नहीं सुलझेगी. वित्त मंत्री को इस हो-हल्ले में नहीं आना चाहिए कि फौरी नकदी सहायता से इकनॉमी की ढांचागत समस्याएं खत्म हो जाएंगी. इकनॉमी की इन दिक्कतों को दूर करने के लिए सुधारों की जरूरत है. यह संकट एक नहीं कई तरहों का है. पिछले तीन साल निर्यात में ठहराव है. बैंकिंग सिस्टम फंसे हुए कर्जों (एनपीए) से दब गया है और ऊंची ब्याज दरों ने इकनॉमी को बदहाल कर दिया है. इनमें से कोई भी समस्या सरकार की ओर से खर्च बढ़ाने से हल नहीं होने वाली.

स्वामी लिखते हैं कि

सरकार खर्च बढ़ा कर राजकोषीय घाटे को और बढ़ाएगी ही. फिलहाल राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर भारत अच्छी स्थिति में है. आखिर खर्च कर इसे क्यों बिगाड़ा जाए. कई लोग महान अर्थशास्त्री कीन्स की थ्योरी का हवाला देते हुए कह कहे हैं आर्थिक तरक्की के लिए खर्च को बढ़ावा देना चाहिए लेकिन कीन्स ने कहा था कि खर्चा तभी बढ़ाया जाए जब मंदी आ गई हो.ऐसा खर्च मांग बढ़ाता है. कहने को तो इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 40,000 करोड़ रुपये खर्च करना आकर्षक लगता है. लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को देरी का सामना करना पड़ता है.

बिल्डर दिवालिया हो गए हैं और इन करोड़ों का बकाया है. अनुभव बताता है कि अतिरिक्त पब्लिक फंड से नतीजे देने वाली परियोजनाओं के मुकम्मल होने में देरी होती है. इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ना चाहिए लेकिन इस पर शॉर्ट टर्म राहत पैकेज की तरह खर्च नहीं करना चाहिए.

खराब हालात के बावजूद बेरुखी

दैनिक जनसत्ता में पी चिदंबरम ने अपने कॉलम में इस सप्ताह यशवंत सिन्हा के लेख से उपजे विवाद और इकनॉमी की हालत पर चर्चा की है. वह लिखते हैं- इकनॉमी की हालत खराब होने के बावजूद सरकार लगातार और हठपूर्वक यही दोहराती रही कि ‘सब कुछ ठीक-ठाक है’.

अप्रत्याशित रूप से यशवंत सिन्हा ने 27 सितंबर, 2017 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के बीच के पेज पर एक लेख लिखा. उन्‍होंने लिखा- मैंने उनकी हिमायत करने की कोई उतावली नहीं दिखाई. मैंने तो बस यही रेखांकित किया कि सिन्हा ने वही कहा है जो मैं और कई अन्य लोग पंद्रह महीनों से कहते आ रहे थे.

चिदंबरम लिखते हैं-

इकनॉमी की हालत बिगड़ने के गहरे कारण हैं. पहली बात तो यह कि विचार-विमर्श और निर्णय-प्रक्रिया में समावेशिता नहीं है. दूसरा सवाल बीजेपी में काम संभालने वाले लोगों की तादाद कम है. अगर प्रतिभावान व्यक्तियों की कमी नहीं है, तो एक मंत्री के पास कई मंत्रालय क्यों हैं? तीसरे, जो सुनने में आता है उसके मुताबिक मौजूदा मंत्रिमंडल विचार-विमर्श करने वाली संस्था नहीं है. इसके बजाय यह एक राष्ट्रपति के मंत्रिमंडल जैसा अधिक है, जिसका काम है कहीं और लिये गए निर्णयों पर चुपचाप, बिना ना-नुकर किए हामी भर देना. चौथे, सरकार अपने कार्यकाल के आरंभ में ही आर्थिक नीति से संबंधित एक विश्वसनीय टीम बनाने में नाकाम रही. पांचवीं बात यह कि किसी की कोई जवाबदेही नहीं है.

एक भले इरादों वाले मगर नाकाम रेलमंत्री को उद्योग व वाणिज्य मंत्रालय की कमान दे दी गई. निर्यात का इंजन खड़खड़ा रहा था, फिर भी वाणिज्यमंत्री को रक्षामंत्री बना दिया गया. फिर तारीफ में कहा गया कि सुरेश प्रभु एक ईमानदार, भले आदमी हैं, और निर्मला सीतारमण की नियुक्ति से स्त्री सशक्‍त‍िकरण को बल मिलेगा और एक अन्यायपूर्ण हदबंदी टूटेगी.

अंतिम बात यह कि हो सकता है बीजेपी यह मान कर चल रही हो कि चूंकि उसने चुनाव जीतने (उत्तर प्रदेश) और सौदेबाजी (बिहार) का फॉर्मूला पा लिया है, इसलिए उसे कामकाज या कामकाज के परिणाम को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है.

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जो काम होना था वह नहीं हुआ

वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार तवलीन सिंह ने इस बार दैनिक जनसत्ता के अपने कॉलम में राजनीति पर टिप्पणी न कर गरीब बच्चों से जुड़े मुद्दे पर ध्यान खींचा है. वह लिखती हैं-

इंडियन इक्सप्रेस अखबार में जिस दिन यशवंत सिन्हा का लेख छपा था उस दिन मैं एक ऐसी अदालत में थी, जहां बच्चों की किस्मत के फैसले होते हैं. मुंबई शहर की इस अदालत का नाम है चाइल्ड वेल्फेयर कमेटी (सीडब्ल्यूसी). यहां मैं कई बार पहले भी गई हूं लाचार, गरीब, फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की मदद करने. मेरा वास्ता इन गरीब बच्चों से इसलिए है, क्योंकि इनको एक वक्त का सही पोषण देने के मकसद से मैंने कई साल पहले ‘नाश्ता’ नाम की एक संस्था शुरू की थी.

तवलीन लिखती हैं- मोदी की राजनीतिक सूझबूझ तेज है, सो मुझे उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री बनते ही उनको दिख जाएगा कि कांग्रेस छाप शासन की सबसे बड़ी नाकामियां उन क्षेत्रों में रही हैं, जहां इस देश के गरीब नागरिकों को सीधा फायदा मिलता हो, यानी सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, गरीब बच्चों और महिलाओं के लिए बनाई गर्इं समाज कल्याण योजनाओं में.

आज जब भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री भारत के तकरीबन सारे बड़े राज्यों में सत्ता संभाले हुए हैं, तो हमको इन राज्यों में परिवर्तन अभी तक दिखना चाहिए था. स्कूलों, अस्पतालों और उन सेवाओं में, जो विशेष तौर पर गरीबों को राहत देने के लिए बनाई गई हैं. भारतीय जनता पार्टी के एक भी राज्य में अगर इस किस्म का परिवर्तन आ गया होता तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि 2019 में जनता नरेंद्र मोदी को दोबारा पूर्ण बहुमत देती.

लेकिन परिवर्तन लाने के बदले मोदी सरकार ने उन सारी योजनाओं को अपना लिया है, जिनमें पैसा खाने के जरिए इतने हैं कि गरीबों तक राहत पहुंचते-पहुंचते कई अधिकारियों को राहत पहुंच जाती है.

हादसों का इंतजार

टाइम्स ऑफ इंडिया के अमेरिका संवाददाता चिदानंद राजघट्टा ने शायद मुंबई एलफिंस्टन हादसे की याद दिलाते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है-

जब भी मैं लोगों की गलतियों से कोई हादसा हुआ देखता हूं मुझे मंडी डबवाली के भयंकर हादसे की याद आ जाती है. क्या आपको यह हादसा याद आता है. याद भी क्यों आएगा क्योंकि यह 20 साल पहले हुआ था और उस समय भारत की आधी आबादी पैदा भी नहीं हुई थी. हर साल 23 दिसंबर को जब मंडी डबवाली में मारे गए बच्चों के मां-बाप को उनकी याद आती होगी तो वे सोचते होंगे कि अगर बच्चे जिंदा होते तो 25-26 साल के होता.

1998 को इस दिन हरियाणा के सिरसा जिले के मंडी डबवाली में डीएवी पब्लिक स्कूल के बच्चे राजीव मैरेज हॉल में वार्षिकोत्सव मना रहे थे. खांटी इंडियन स्टाइल में. थोड़े पुलिसकर्मियों, बगैर सावधानी और बगैर फायर कोड के साथ. टेंट ने आग पकड़ ली और भारी भगदड़ की वजह से एक मात्र दरवाजे से निकलने की अफरातफरी में 400 लोगों की मौत हो गई और इनमें से आधे से अधिक बच्चे थे.

मामले की जांच बरसों चली और उसके बाद पता नहीं जांच की सिफारिशों का क्या हुआ. इसके ठीक छह साल बाद तमिलनाडु के कुंबकोनम में एक इंग्लिश स्कूल की छत के आग पकड़ लेने से 100 बच्चे मारे गए. ऐसी कई घटनाएं हैं.

1980 के दशक से जब से मैंने अपना कैरियर शुरू किया था और जर्नलिज्म स्कूल में ही था कि विनस सर्कस ट्रेजडी हुई थी जिसमें भगदड़ में 100 बच्चों की मौत हो गई थी. ऐसा नहीं है कि ऐसे हादसे सिर्फ भारत में ही होते हैं. ऐसे हादसे अमेरिका में भी होते हैं और लेकिन वहां इन्हें रोकने के इंतजाम भी बेहद कड़े होते हैं.

पीबोडी के स्कूल में आग में 21 लड़कियों के मारे जाने के बाद वहां पब्लिक बिल्डिंग और स्कूलों में एक कड़ा नियम बना दिया गया. सभी दरवाजे बाहर की ओर खुलेंगे. लेकिन भारत में हम कोई सबक नहीं लेते. हम हादसों का इंतजार करते हैं.

मिसफिट राहुल

और आखिर में कूमी कपूर की बारीक नजर. इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में वह लिखती हैं- राहुल गांधी ने गुजरात दौरे में राज्य के कई तीर्थों का दौरा किया. वह द्वाराकाधीश मंदिर गए जो वैष्णवों में खासा महत्व रखता है. खास कर अहीर समुदाय के बीच , जिन्हें उत्तर भारत में यादव कहा जाता है. वह चामुंडा माता मंदिर गए जिन्हें सौराष्ट्र की देवी कहा जाता है. सौराष्ट्र में 22 फीसदी कोली हैं जो ओबीसी हैं और चामुंडा देवी के भक्त हैं. राहुल कागवाड़ भी गए, जो पटेल समुदाय का गढ़ है वहां खोडियार माता मंदिर में दर्शन किया.

उन्होंने बीरपुर में जालाराम बापा में भी पूजा-अर्चना की. यह व्यापारी समुदाय का गढ़ है. उन्होंने गरबा भी देखा. लेकिन एक कमी दिखी. शायद कांग्रेस सदस्यों ने उन्हें इस बारे में ट्रेंड नहीं किया था. वह यहां खोए-खोए दिखे . उन्हें पूजा-पाठ कैसे करते हैं यह नहीं बताया गया था. उन्हें इस बारे में ट्रेंड करना चाहिए था. राहुल उस माहौल में फिट नहीं हो पा रहे थे.

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