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इकोनॉमी लगातार गिर रही है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाहवाही में कहीं कोई कमी नहीं है. टाइम्स ऑफ इंडिया में आकार पटेल ने लिखा है कि क्या आर्थिक मोर्चे पर सरकार के लगातार गिरते प्रदर्शन के बावजूद मोदी का जलवा बीजेपी को गुजरात और फिर लोकसभा के चुनाव में जीत दिलाएगा. पटेल लिखते हैं कि जीनियस के खिलाफ कोई रक्षापंक्ति काम नहीं करती. विराट कोहली को देखिये, वह छह ओवरों में रन औसत 5.7 से बढ़ाकर 8 पर ले जा सकते हैं. कोई भी उन्हें नहीं रोक सकता. और विराट मोदी ने आर्थिक विकास दर 8 फीसदी से घटा कर 5.7 फीसदी कर दी है लेकिन उन्हें भी कोई नहीं रोक सकता.
अभी भी मोदी की वाहवाही हो रही है. वाह-वाह मोदी साहब! जबकि हकीकत यही है कि इस वक्त देश में कहीं न कहीं यह एहसास हो रहा है कि 2014 में हम जिस चमकदार चीज को ले आए थे वो उस तरह नहीं चमक रहा है, जैसा कहा जा रहा है. अहम बात यह है कि हममें से ज्यादातर लोग प्रदर्शन पर नहीं बल्कि विश्वास पर वोट देते हैं. भक्ति हमारे धर्म में हैं. भारतीय इस दुनिया के सबसे गरीब लोगों में हैं. भारत सदियों से वंचित रहा है, लेकिन क्या यहां भक्ति कम हुई है. हमें अपने देवता में विश्वास है उसके प्रभाव पैदा करने की क्षमता में नहीं. देवताओं को पूजने वाला यह देश उनके प्रदर्शन पर सवाल नहीं करता.
टाइम्स ऑफ इंडिया में रॉबिन डेविड ने पंचकूला में मारे गए बाबा गुरमीत राम-रहीम के अनुयायियों पर पुलिस फायरिंग पर पर सवाल उठाया है. वह लिखते हैं- हरियाणा पुलिस ने एक दिन में 36 लोगों को मार गिराया, लेकिन कहीं कोई रोष, गुस्सा नहीं दिखा. 36 लोगों को मार गिराने के बावजूद कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं.
इस फायरिंग को यही कहकर उचित ठहराया जा रहा है कि ज्यादातर डेरा अनुयायी, जो रेप के एक दोषी शख्स पर कार्रवाई को लेकर हिंसक हो गए थे, उन पर गोली चलाना सही था. लेकिन बहुत से लोगों ने इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है. आजाद भारत के इतिहास में एक ही बार में 36 लोगों पुलिस फायरिंग में मौत की घटना इकलौती थी. हरियाणा पुलिस ने इस संबंध में करीब-करीब इतिहास बना डाला.
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक भारत में 2009 से 2015 तक हर सप्ताह दो लोग पुलिस फायरिंग में मारे जाते हैं. पिछले साल हरियाणा में जाट आंदोलन के बारे में प्रकाश सिंह की रिपोर्ट में कहा या था कार्रवाई करने की अनिच्छा और पुलिस में दृढ़ता की कमी दंगाइयों को एक जगह जमा होने से रोक नहीं पाई. तस्वीर बेहद निराशाजनक थी और हर स्तर पर निराशाजनक नेतृत्व की बानगी पेश कर रही थी. इस रिपोर्ट को पढ़ने से ऐसा लगता है कि पंचकूला में इससे कोई सबक नहीं लिया गया.
पी चिदंबरम ने हिंदी दैनिक जनसत्ता के अपने कॉलम में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट के बावजूद भारतीय उपभोक्ताओं को उसका फायदा न मिलने का सवाल उठाया है. उन्होंने 2008 में तेल की बेहद ऊंची कीमतों के दौर से तुलना करते हुए लिखा है - 2014 से तेल की दुनिया उलट गई है. तेल समेत जिंसों की कीमतें लुढ़क गई हैं. शेल ऑयल उत्पादित करने के नए और सस्ते तरीके ईजाद किए गए. कच्चे तेल की कीमत में भारी गिरावट आई है. रूस को मंदी से गुजरना पड़ा है. सऊदी अरब को अपने नागरिकों के एक हिस्से पर आयकर लगाने को बाध्य होना पड़ा. वेनेजुएला दिवालिया हो गया. तेल के खरीदार देशों ने खूब चांदी काटी.
अगर हम यह मानकर चलें कि देश में पेट्रोल और डीजल की खपत उतनी ही मात्रा में हो रही है, तो इसका अर्थ है कि सरकारें मई 2014 में जितना कर-राजस्व प्राप्त कर रही थीं, उसका दुगुना वसूल रही हैं.
इस तरह जो कर-संग्रह किया गया वह आसान कमाई है. आसान कमाई की लत हो गई है. राजग सरकार ने मई 2014 से ग्यारह बार पेट्रोल और डीजल के उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी की है. केवल इन दो उत्पादों से, केंद्र सरकार ने 2016-17 में 3,27,550 करोड़ रु. अर्जित किए.
लोगों के बीच असंतोष पनप रहा है. देश के कई हिस्सों में विरोध-प्रदर्शन हुए हैं. करों को कम करने तथा कच्चे तेल की घटी हुई कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को देने की मांग को सरकार अनसुनी करती आ रही है.
जीएसटी के संदर्भ में डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि यह ‘संगठित लूट और कानूनी डकैती है’. मेरे खयाल से, वे शब्द राजग सरकार की पेट्रोल-डीजल संबंधी कर-नीति को सटीक ढंग से व्यक्त करते हैं.
दैनिक जनसत्ता में ही वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने एनडीए सरकार में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा बढ़ते जाने के राहुल गांधी के बयानों पर टिप्पणी की है. उनका कहना है कि राहुल ने इसे लेकर झूठ बोलने का दायरा तोड़ दिया है. अपने कॉलम वक्त की नब्ज में वह लिखती हैं-
राहुल गांधी ने अपने अमेरिकी दौरे पर जहां भारत की बिगड़ती आर्थिक स्थिति पर कुछ सच्ची बातें कहीं, वहीं सहनशीलता और अमन-शांति को लेकर झूठ भी इतना बड़ा बोला कि उसका विश्लेषण जरूरी हो गया है. जितने दंगे और जितना खून-खराबा कांग्रेस के दौर में हुआ है उसका मुकाबला फिलहाल भारतीय जनता पार्टी नहीं कर सकती है. यह वह दौर था जब मैं रिपोर्टर का काम करती थी और याद है मुझे कि किस तरह हर साल किसी बड़े दंगे पर रिपोर्टिंग करने जाना पड़ता था.
मेरठ, मलियाना, हाशीमपुरा, भागलपुर, मुंबई, मुरादाबाद जैसे नाम आज भी अटके हैं मेरे दिमाग में. इन नामों को याद करती हूं तो सहमे हुए, कर्फ्यूजदा शहर याद आते हैं.
सो, उस दौर और वर्तमान दौर की तुलना अगर की जाए तो ऐसा लगता है कि भारत में शांति भी है आज और सहनशीलता भी, क्योंकि पिछले तीन वर्षों में न युद्ध की स्थिति पैदा हुई है और न ही कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ है भारत में. ऐसा कहने के बाद लेकिन यह भी कहना जरूरी है कि इस शांति की चादर के नीचे एक अजीब किस्म का तनाव भी है.
मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले वादा किया था कि वे सबका साथ सबका विकास करके दिखाएंगे. ऐसा करना चाहते हैं, तो उनको अपने उन मुख्यमंत्रियों की खबर लेनी होगी, जो कानून-व्यवस्था का मजाक उड़ा रहे हैं गोरक्षा के नाम पर.
अमर उजाला में रामचंद्र गुहा ने जेआरडी टाटा की राजनीतिक दूरदर्शिता और राजनैतिक साहस की तारीफ की है. इसके लिए उन्होंने उस संदर्भ का हवाला दिया है, जब सी राजगोपालचारी ने स्वतंत्र पार्टी के लिए जेआरडी से फंड मांगा था. गुहा लिखते हैं.
अपने एक पत्र में उन्होंने नेहरू को लिखा- मैं उन लोगों में से एक हूं, जो यह मानते हैं कि एक पार्टी के प्रभुत्व वाली व्यवस्था, जिसमें हम स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से रहे हैं , एक अच्छी चीज, क्योंकि इसने स्थिरता प्रदान की है और राष्ट्रीय ऊर्जा तथा संसाधनों को सुव्यवस्थित तरीके से विकास के लिए नियोजित किया है, जो कि मजबूत और सतत प्रशासन के बगैर संभव नहीं होता. लेकिन जेआरडी ने नेहरू को यह भी लिखा- आप भी सहमत होंगे कि यदि एक पार्टी का प्रभुत्व निरंतर जारी रहता है तो इससे भविष्य में कठिनाइयां और जोखिम बढ़ जाएंगे.
हालांकि कोई पार्टी और उसका प्रशासन कितना भी अच्छा क्यों न हो यह अपरिहार्य है कि लोग अंततः परिवर्तन चाहें और कांग्रेस पार्टी की नीतियों से कुछ लोग असहमत हों और अपने खुद के विचारों से अलग रास्ता तलाश करें. गुहा लिखते हैं- आज एक भी उद्योगपति नहीं है जिसमें जेआरडी जैसी राजनीतिक दूरदर्शिता या नैतिक साहस हो.
आज किसी भी उद्योगपति में ऐसा साहस नहीं है कि वह प्रधानमंत्री से बेबाकी के साथ यह कह सके कि उनकी पार्टी और उनकी सरकार परिपूर्ण या दोषरहित नहीं है.
और आखिर में सत्ता के गलियारे में कूमी कपूर की बारीक निगाह की एक झलक. इंडियन एक्सप्रेस में अपने कॉलम इनसाइड ट्रैक में फिरोज गांधी पर स्वीडिश लेखक बेरटिल फॉक की फिरोज पर लिखी किताब का संदर्भ देते हुए उन्होंने लिखा है.
पिछले साल यह किताब रीलिज हुई थी.फॉक इस साल भारत में हैं. उन्होंने पिछले दिनों बर्कले में राहुल गांधी के उस बयान की आलोचना की कि भारत में वंशवादी राजनीति की परंपरा रही है. फॉक ने कहा कि अगर फिरोज होते तो वह राहुल का विरोध करते. बहरहाल, फॉक को नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में बोलना है, जहां अब शक्ति सिन्हा डायरेक्टर हैं. एनडीए सरकार की ओर से नियुक्त प्रसार भारती के चेयरमैन और इंडिया फाउंडेशन के प्रमुख रहे सूर्य प्रकाश भी यहां मौजूद रहेंगे.
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