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जस्टिस उदय उमेश ललित की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की बेंच सोमवार, 22 अगस्त को एक्टिविस्ट और पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ (Teesta Setalvad) की उस याचिका पर सुनवाई करने वाली है, जिसमें गुजरात हाईकोर्ट द्वारा अंतरिम जमानत देने से इनकार करने के फैसले को चुनौती दी गई है.
यह गुजरात के आतंकवाद निरोधी दस्ते (ATS) द्वारा सीतलवाड़ के खिलाफ दर्ज उस मामले से संबंधित है, जिसमें गुजरात दंगों की साजिश के मामले में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को फंसाने के लिए उनके द्वारा रिकॉर्ड में हेराफेरी करने का आरोप लगाया गया था.
संयोग से, यह मामला कांग्रेस के दिवंगत पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी द्वारा दायर याचिका को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने के तुरंत बाद दर्ज किया गया था. जिसमें गुजरात दंगों के मामले में विशेष जांच दल (एसआईटी) की जांच को चुनौती दी गई थी.
अगले ही दिन गृह मंत्री अमित शाह ने एक इंटरव्यू में आरोप लगाया कि सीतलवाड़ के एनजीओ ने 2002 के गुजरात दंगों के बारे में "निराधार" जानकारी फैलाई थी. जिसके कुछ घंटों के अंदर ही उन्हें हिरासत में लिया गया और बाद में गिरफ्तार कर लिया गया.
सीतलवाड़ पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की निम्नलिखित धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है:
468 आईपीसी: धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाजी
471 आईपीसी: जाली दस्तावेज या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को असली के रूप में इस्तेमाल करना
194 आईपीसी: मृत्युदंड की सजा दिलाने के इरादे से झूठे सबूत देना या गढ़ना
211 आईपीसी: चोट पहुंचाने के इरादे से लगाए गए अपराध का झूठा आरोप
218 आईपीसी: व्यक्ति को सजा या संपत्ति की जब्ती से बचाने के इरादे से लोक सेवक द्वारा गलत रिकॉर्ड या लेखन तैयार करना
120 बी आईपीसी: आपराधिक साजिश की सजा
FIR में पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव राजेंद्र भट्ट और गुजरात के पूर्व डीजीपी आरबी श्रीकुमार को भी मामले में आरोपी बनाया गया है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सीतलवाड़ की याचिका में कहा गया है:
भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) एनवी रमना की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष उनकी अधिवक्ता अपर्णा भट ने मंगलवार को तत्काल लिस्टिंग के लिए इसका जिक्र किया.
CJI ने 22 अगस्त को मामले को जस्टिस ललित की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करने पर सहमति व्यक्त की थी.
जून में सीतलवाड़ की गिरफ्तारी के बाद से, अहमदाबाद की एक अदालत ने जमानत के लिए उनके आवेदन को खारिज (30 जुलाई को) कर दिया था. जबकि गुजरात हाई कोर्ट ने 3 अगस्त को केवल विशेष जांच दल (एसआईटी) को नोटिस जारी कर उनकी याचिका पर जवाब मांगा था. और मामले को आगे की सुनवाई के लिए 19 सितंबर को सूचीबद्ध किया था.
अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश दिलीपकुमार धीरजलाल ठक्कर ने सीतलवाड़ और सह-आरोपी पूर्व एडीजीपी आरबी श्रीकुमार (जो एसआईटी जांच को चुनौती देने वाले जाफरी के मामले में गवाह थे) दोनों की जमानत याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा:
इसके अलावा, अदालत ने दावा किया कि "यदि आवेदक-आरोपियों को जमानत दे जाता है, तो यह गलत काम करने वालों को प्रोत्साहित करेगा कि तत्कालीन सीएम (वर्तमान पीएम मोदी) और अन्य के खिलाफ इस तरह के आरोप लगाने के बावजूद, कोर्ट ने जमानत पर आरोपी को रिहा कर दिया है."
हालांकि, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि यह इतना ज्यादा क्यों मायने रखता है कि आरोप लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता के खिलाफ थे तो आरोप लगाने वाले को जमानत की राहत की अनुमति भी नहीं दी जा सकती. अदालत यह तय कर सकती है कि सरकार के एक निर्वाचित प्रतिनिधि द्वारा निभाई गई भूमिका पर उसे क्या चाहिए. लेकिन किस कानून के तहत, भारत (लोकतंत्र!) के नागरिक को अदालत में उक्त भूमिका पर सवाल उठाने से भी मना किया जाता है?
अदालत ने कहा, "इसलिए, उपरोक्त तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, भले ही आवेदक एक महिला हो और दूसरा सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी और वृद्ध व्यक्ति हो, उन्हें जमानत पर रिहा करने की आवश्यकता नहीं है."
24 जून को जाकिया जाफरी की याचिका को खारिज करते हुए, जस्टिस एएम खानविलकर, दिनेश माहेश्वरी और सीटी रविकुमार की बेंच ने भी "एसआईटी अधिकारियों की टीम द्वारा किए गए अथक काम की सराहना की" और कहा कि " कानून और व्यवस्था बनाए रखने में राज्य प्रशासन की विफलता को उच्चतम स्तर पर आपराधिक साजिश के संदेह से नहीं जोड़ा जा सकता है."
हालांकि, सबसे विवादास्पद रूप से, उन्होंने सुझाव दिया:
इसके अलावा, कोर्ट ने कहा:
कोर्ट ने कहा कि "वास्तव में, प्रक्रिया के इस तरह के दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा करना चाहिए और कानून के अनुसार आगे की कार्रवाई होनी चाहिए".
यह टिपण्णी इस तथ्य के बावजूद की गयी कि:
(Audacity) दुस्साहस एक दंडनीय अपराध नहीं है, कम से कम एक संवैधानिक लोकतंत्र में तो नहीं.
अगर कोई मामला 16 साल से ज्यादा समय तक चलता है, संबंधित अदालतों द्वारा अपने विवेक से स्वीकार किए जाने के बाद, तो याचिकाकर्ताओं पर दोष कम ही जाता है. अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कानूनी प्रक्रिया अक्सर दशकों चलती है और अपील के विभिन्न चरणों में आगे बढ़ती है. कानून का एक प्रश्न स्थायी रूप से रातोंरात नहीं सुलझाया जा सकता है, और अपील करने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है.
इसके अलावा, भले ही एक गलत उद्देश्य था (या एक समेकित प्रयास, जैसा कि ऊपर बताई गई एक टिप्पणी से पहले अदालत ने सुझाव दिया था), शीर्ष अदालत ने तथ्य का कोई विशेष निष्कर्ष नहीं निकाला. तथ्य के किसी खास निष्कर्ष और उस आधार पर एक वास्तविक आदेश के अभाव में, जकिया जाफरी मामले में अदालत के फैसले को एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व एडीजीपी आरबी श्रीकुमार और पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट के खिलाफ कार्रवाई के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.
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