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आज के दौर की शादियां: परंपराओं का पालन या महज दिखावा?

शादियों का मौसम फिर आ चुका है. पर क्या हम उन रस्मों को मना रहे हैं जो स्त्री शोषण का प्रतीक हैं.

आकाश जोशी
भारत
Updated:
सूरत में सामूहिक विवाह के दौरान दुल्हनें. (फोटो: एपी)
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सूरत में सामूहिक विवाह के दौरान दुल्हनें. (फोटो: एपी)
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इरा गुप्ता (बदला हुआ नाम) को प्यार हो गया. बात सीधी-सी थी. वो उसे इंग्लेंड में मिली थी मास्टर डिग्री की पढ़ाई के दौरान. दो साल तक वहां साथ थे दोनों. जब दिल्ली वापस आकर दोनों को अच्छी नौकरी मिल गई, तो शादी का फैसला कर लिया.

सब कुछ ठीक चल रहा था, जब तक वो उस पंडित से नहीं मिले थे जो शादी कराने वाला था. अंग्रेजी में बात करने वाला मॉर्डन पंडित, जो शादी की रस्मों के मतलब समझाता है.

इरा जो खुद को एक फैमिनिस्ट बताती है, वह ये शादी नहीं करना चाहती थी, जब उसे कन्यादान का मतलब पता चला.

शादियां होती जा रही हैं और भारी-भरकम

‘हम आपके हैं कौन’ फिल्म में शादी और इसके उत्‍सव को बेहतरीन ढंग से दिखाया गया है

2014 में शादी का कारोबार $40 बिलियन डॉलर की ऊंचाइयां छू रहा था. पहले के पुराने और पारंपरिक ढांचे से बाहर निकल कर शादियां अब बेहद भव्य और विशाल होती जा रही हैं.

संगीत में डीजे आता है, सारी तैयारियां प्रोफेशनल सिनेमैटोग्राफर करते हैं. यहां तक कि यूट्यूब पर प्रोग्राम की लाइव स्ट्रीमिंग होती है और परिवार के लोग स्पीच भी देने लगे हैं.

सामाजिक अनुबंध या देवताओं को साक्षी मानकर स्त्री शोषण की शुरुआत

तो शादी का सही मतलब है क्या? दो लोगों के बीच का एक कानूनी करार कि वे अब अपनी जिंदगी एक-दूसरे के साथ बांटना चाहते हैं या फिर देवताओं और शास्त्रों का बनाया सात जन्मों का साथ?

शादी क्या है? कानूनी करार या फिर धर्म और परिवार से एक रिश्ते को वैधता दिलाना...

दो लोगों के बीच प्यार और उनके साथ से कहीं ज्यादा साफ नजर आते हैं शादी के सामाजिक, आर्थिक और कानूनी नतीजे. दोनों को अपना पैसा साझा करना होता है, एक दूसरे को अपनी संपत्ति में हिस्सा देना होता है, और फिर तलाक को आज भी समाज में इज्जत की नजर से नहीं देखा जाता. यह सब इतना डरावना और नीरस नहीं है जितना लग रहा है. पर एक इंसान को कानून और समाज के सामने अपनाना, उसकी कमियों और खूबियों के साथ, इससे बड़ी जिम्मेदारी क्या हो सकती है?

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भारतीय शादियों की कुछ रस्में वाकई स्त्री विरोधी लग सकती हैं. (फोटो: iStock)

हालांकि शादियों का दूसरा पहलू भी है - रस्में. और कुछ लोगों के लिए ये रस्में परेशानी का सबब बन जाती हैं. कुछ रस्में खास तौर पर स्त्री विरोधी लगती हैं. जैसे बंगाली शादियों में दुल्हन का पिता दूल्हे के पैर छू कर कहता है, “मेरा बोझ आप स्वीकार कीजिए.” कुछ दक्षिण भारतीय विवाहों में दूल्हा विवाह को बीच में छोड़ कर ‘काशी यात्रा’ पर जाने का अभिनय करता है और दुल्हन का पिता उसे मनाकर वापस लाता है.

मराठी शादियों में दूल्हे के आने पर दुल्हन की मां खुद अपने हाथों से उसके पैर धोती है. ‘कन्यादान’ की रस्म का मतलब समझें तो स्त्री एक ऐसी वस्तु बन जाती है जिसे उसके पिता उसके पति को दान में देते हैं.

इरा जैसी लड़कियों के लिए ये परेशानी की सबब हो सकता है.

थोड़ा समझौता भी है

जब इरा ने अपने माता-पिता से कहा कि वह सिर्फ कानूनी तौर पर शादी करना चाहती है (उसके बाद पार्टी भी होगी), तो उन्हें यह जानकर खुशी नहीं हुई. इस पर उन्होंने जो कहा उसे समझना मुश्किल नहीं था.

उन्होंने कहा कि इरा ने हमेशा अपनी पसंद की पढ़ाई की, पसंद का करियर चुना और लड़का भी उसी की पसंद का है, उसकी हर बात को उन्होंने माना.

पर शादी... उसके दादा-दादी को कानूनी शादी कभी असली नहीं लगेगी. क्या वह दोनों तरह से शादी नहीं कर सकती? कानूनी भी, पारंपरिक भी. इरा को उनकी बात माननी पड़ी, पर हां शादी में कन्यादान नहीं होगा.

इस तरह के कई समझौते कई महिलाओं को करने पड़ते हैं. परंपरा वक्त के खिलाफ चलने वाली रस्मों का नाम नहीं है. परंपरा विकसित होती हुई जिंदा चीज है, जिसे वक्त के साथ बदल जाना होता है.

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Published: 14 Dec 2015,02:35 PM IST

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