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नक्सली आओ, हमें बचाओ. यह नारा आज से करीब 15 साल पहले बस्तर में तब सुनाई दिया था जब उस वक्त की रमन सिंह सरकार ने जगदलपुर के पास लोहांडीगुडा में टाटा कंपनी के साथ सालाना 55 लाख टन उत्पादन क्षमता के स्टील प्लांट का करार किया. उस वक्त वहां किये जा रहे जमीन अधिग्रहण को लेकर ग्रामीणों में ऐसा अविश्वास पनपा कि उन्हें सरकार पर कोई भरोसा ही नहीं रहा.
बस्तर में एक बार फिर असंतोष का माहौल है. दंतेवाड़ा से करीब 30 किलोमीटर दूर किरंदुल में 5000 से ज्यादा आदिवासी नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (NMDC) के दफ्तर के बाहर डेरा डाले हुये हैं और बैलाडिला की पहाड़ियों पर हो रहे लौह-खनन का विरोध कर रहे हैं. इस खनन से यहां नंदीराज पहाड़ी के अस्तित्व पर संकट छा गया है जिसे गोंड, धुरवा, मुरिया और भतरा समेत दर्जनों आदिवासी समूह अपना देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं.
यह पहली बार नहीं है कि खनिजों से समृद्ध पहाड़ को खोदने की तैयारी को आदिवासियों की आस्था का सामना करना पड़ा हो. उड़ीसा में बाक्साइट से भरी नियामगिरी की पहाड़ियों को भी स्थानीय डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने अपने आंदोलन से बचाया. नियाम राजा कोंध आदिवासियों का देवता है और सुप्रीम कोर्ट ने इनके पक्ष में फैसला दिया.
जमीन अधिग्रहण हमेशा से एक पेचीदा मसला रहा है और सरकारों की बेईमानी ने इस समस्या को और बढ़ाया है. हर पार्टी की सरकार अपने राज में किसानों, ग्रामीणों और आदिवासियों को विकास की राह में अड़चन मानती आयी हैं.
इसीलिये जिस तरह 15 साल पहले लोहांडीगुडा में लोग जन सुनवाई के तरीके और पारदर्शिता न बरते जाने से भड़के वैसे ही किरंदुल में धरना दे रहे आदिवासियों की भी शिकायत है. दो सरकारी कंपनियों NMDC और CMDC (छत्तीसगढ़ मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन) का ज्वाइंट वेंचर होने के बावजूद आखिर निजी कंपनी अडानी ग्रुप को क्यों आमंत्रित किया गया.
आज आदिवासियों के साथ राजनीतिक पार्टियों और मजदूर संगठनों के लोग आ खड़े हुये हैं और सवाल उठा रहे हैं कि खनन के लिये एक निजी कंपनी को ठेका देने की क्या जरूरत है. इससे विरोध के अधिक उग्र होने की आशंका है.
मई 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दंतेवाड़ा के पास डिलबिली में 24,000 करोड़ रुपये के अल्ट्रा मेगा स्टील प्लांट का उद्घाटन किया जिसका अभी तक कहीं नामोनिशान नहीं है. यह स्टील प्लांट सरकारी कंपनी स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL) की ओर से लगाया जाना है लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के कारण इस प्रोजेक्ट को यहां नहीं लगाया जा रहा.
साल 2016 में डिलबिली प्रोजेक्ट के उद्घाटन स्थल से कुछ किलोमीटर दूर सड़क के किनारे 30 साल के पांडु वेट्टी ने मुझे उनके गांव आकर ग्रामीणों के डर और असंतोष को कवर करने को कहा था. तब सारे गांव वाले “जान दे देंगे लेकिन जमीन नहीं देंगे” के नारे लगा रहे थे. बस्तर में हो रहे ताजा आंदोलन की पड़ताल के लिये जब मैंने वेट्टी को फोन किया तो वह इस बात से खुश थे कि उनके इलाके में डिलबिली प्लांट नहीं आ रहा और शांति बनी हुई है.
कहा जा रहा है कि आज किरंदुल में भी सड़क बनाने के नाम पर करीब 25 हजार और प्रोजेक्ट के लिये करीब 1 लाख पेड़ों को काटा जायेगा जिससे विरोध के स्वर और ऊंचे हो गए हैं.
2012 में उस वक्त के केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने झारखंड में सारंडा के जंगलों का कुछ हिस्सा सरकारी कंपनी SAIL को खनन के लिये देने के आदेश दिए थे. ‘चिड़िया माइंस’ के नाम से मशहूर इस इलाके में SAIL पहले से खनन कर रही थी. हालांकि रमेश का खुद कहना था कि खनन से असंतोष और नक्सलवाद को बढ़ावा मिलता है लेकिन कुछ जंगल खनन के लिये खोलना मजबूरी था क्योंकि बिना खनन विकास नहीं हो सकता.
‘चिड़िया’ खदानों के उस इलाके में मुझसे मुलाकात के दौरान ग्रामीणों ने ठेकेदारों, अधिकारियों पर भ्रष्टाचार और स्थानीय लोगों की अनदेखी के आरोप लगाये. कई आरटीआई कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया था कि CSR यानी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पोंसबिलिटी के तहत खर्च होने वाले पैसे का फायदा स्थानीय लोगों को नहीं मिलता. SAIL और NMDC तो सरकारी कंपनियां हैं निजी कंपनियों पर तो CSR के गलत इस्तेमाल और भी ज्यादा आरोप लगते रहे हैं.
अक्सर निजी और सरकारी कंपनियां अपने अधिकारियों और स्टाफ को दी जानी वाली सुविधाओं में ही यह पैसा खर्च करती हैं या संबंधित विभाग के मंत्री इस पैसे से अपने संसदीय क्षेत्र में विकास गतिविधियां चलाते हैं ताकि उन्हें राजनीतिक फायदा मिल सके. यह वास्तविक खनन क्षेत्र में रहे आदिवासियों को छलने जैसी बात है जिनसे उनके स्वास्थ्य और जमीन की कीमत पर कभी ना किए जाने वाले विकास के लिये हामी भरवाई जाती है.
दंतेवाड़ा में आज आदिवासी अपनी जमीन और देवता के लिये हाथों में तीर-कमान और कुल्हाड़ी लेकर डटे हैं और उनके सैंकड़ों साथी जनवादी गीत गा रहे हैं. सरकार इस धरने पर निगरानी के लिये ड्रोन की मदद ले रही है ताकि संघर्ष में शामिल ‘नक्सलियों’ की पहचान हो सके. बंगाल के नंदीग्राम और लालगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़ के लोहांडीगुडा और दंतेवाड़ा और उड़ीसा के नियामगिरी से लेकर आंध्र प्रदेश के पोलावरम तक माओवादियों के लिये ऐसे आंदोलन अपनी पैठ बढ़ाने के लिए मुफीद होते हैं.
राजनीतिक पहल, जनता के साथ बात और सुलह का रास्ता जहां नक्सलवाद को कमजोर करता है वहीं बल प्रयोग और वादाखिलाफी नक्सलियों के पनपने में मददगार है. ऐसे में माओवादियों को सरकार के खिलाफ प्रचार तेज कर अपना काडर बढ़ाने में मदद मिलती है.
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार ने सत्ता में वापसी के बाद टाटा के स्टील प्लांट के लिये ली गई किसानों की जमीन लौटाने का जो काम शुरू किया उससे विश्वास का माहौल बन सकता था और यही रास्ता बस्तर में नक्सलवाद से लड़ने की दिशा में पहला कदम है. लेकिन ताजा घटना बताती है कि सरकार के सामने नये सिरे से विश्वास को बहाल करने की चुनौती है जिसमें ड्रोन के बजाय ग्रामीणों से बातचीत कहीं बड़ा हथियार होगा.
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