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3 दिसंबर 2020 को शादी करने के बाद से सैयदा आयशा ने एक पल भी चैन और सुकून का अनुभव नहीं किया है. आयशा कहती हैं कि उनके पति और ससुराल वालों ने उनके जीवन को "असहनीय" बना दिया है. 24 वर्षीय आयशा का कहना है कि उसकी शादी उसके लिए काफी खराब रही है. ससुराल वाले गर्भवती न होने के लिए उसे गाली देते हैं, बिना उसकी मर्जी के उसके गहने बेच देते हैं. यहां तक कि उसे अंधेरे में रहना पड़े इसलिए उसके कमरे के सारे बल्ब तक निकाल लेते हैं. ऐसे एक नहीं अनेक तुच्छ काम और दुर्व्यवहार उसके साथ किए गए हैं.
मई 2022 में आयशा के पति ने उसे उसके (आयशा के) पिता के घर पर छोड़ दिया था और कहा कि अब वह उसके साथ नहीं रहना चाहता है. हैदराबाद की आयशा ने क्विंट को बताया कि "जब मेरे पति ने मुझसे ऐसा कहा तो मैंने उनसे कहा कि तो फिर मुझे तलाक क्यों नहीं दे देते? ऐसा करने से मेरी जिंदगी आसान हो जाएगी."
आयशा के इस सवाल पर पलटवार करते हुए उसके पति ने कहा यही तो वह बात है जो वह नहीं चाहता है. आयशा बताती हैं कि "उसके पति ने कहा कि वह जानता है कि तीन तलाक अब दंडनीय अपराध है, इसकी वजह से वह जेल नहीं जाना चाहता है. इसलिए न तो मुझे वो तलाक दे रहे हैं और न ही मुझे अपने साथ रख रहे हैं. उन्होंने मुझे लटका के छोड़ा हुआ है."
तेलंगाना के हैदराबाद के केंद्र में स्थित शाहीन वूमेंस रिसोर्स एंड वेलफेयर एसोसिएशन दशकों से ट्रिपल तलाक यानी तीन तलाक से पीड़ित महिलाओं के लिए काम कर रहा है. 'लटका के छोड़ा हुआ है' यह लाइन इस एसोसिएशन में महिलाओं के बीच एक आम दुख का विषय है.
30 जुलाई 2019 को संसद द्वारा तीन तलाक को अपराध घोषित करने के लिए कानून पारित किए जाने के बाद से शायद ही महिला सहायता केंद्र को कभी महिलाओं के तीन तलाक की शिकायत मिलती है. इसके बजाय उन्हें केवल उन असहाय मुस्लिम महिलाओं की शिकायतें और अपीलें मिलती हैं, जिन्हें उनके पतियों द्वारा छोड़ दिया गया है. तीन तलाक को अपराध घोषित करने से एक नई समस्या उपजी है वह है परित्याग यानी कि छोड़ देने की.
आयशा की तरह ही कई अन्य महिलाएं और भी हैं जिन्हें उनके पति ने बीच मझधार में छोड़ दिया है. इन महिलाओं के पति इस बात से अच्छी तरह अवगत हैं कि वे कैसे आधिकारिक रूप से तीन तलाक दिए बिना पत्नी से सभी संबंध तोड़कर रह सकते हैं और इस कानून (ट्रिपल तलाक कानून) से आसानी से बच सकते हैं.
जमीला निशात 2002 से शाहीन महिला सहायता केंद्र चला रही हैं. उनका कहना है कि तीन तलाक को अपराध घोषित करने से कई मुस्लिम महिलाओं के लिए यह फायदे से ज्यादा नुकसान साबित हुआ है. क्विंट से बात करते हुए निशात कहती हैं कि "ट्रिपल तलाक कानून के अपराधीकरण और अधिनियमन को इतना प्रचारित किया गया था कि आज हर एक मुस्लिम व्यक्ति इस बात से अवगत है कि उसे 'तलाक' शब्द का इस्तेमाल नहीं करना है. बेशक तलाक लेने के और भी रास्ते हैं, लेकिन अब उनके अंदर एक डर है, ऐसे में वे बस यही सोच रहे हैं कि तलाक के झंझट में क्यों पड़े. इस स्थिति में पत्नी को छोड़ना उन्हें कहीं अधिक आसान विकल्प लगता है."
मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) 2019 को 'ट्रिपल तालक कानून' के तौर पर भी जाना जाता है. इस कानून को संसद द्वारा 2019 पारित किया गया था, लेकिन इस कानून के आने से दो साल पहले एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रथा को 'असंवैधानिक' करार देते हुए रद्द कर दिया था.
इसके बाद कई आलोचकों का कहना था कि चूंकि इस प्रथा को सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही निरस्त और अमान्य कर दिया था, इसलिए इसे अपराध घोषित करने की जरूरत नहीं है. निशात कहती हैं कि "सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद तीन शब्दों (तलाक, तलाक, तलाक) के कोई मतलब नहीं रह गया. ऐसे में अगर कोई आदमी तीन तलाक बोलता है तो हम काजी के पास सकते हैं और तर्क दे सकते हैं कि इसे तलाक नहीं माना जाए. तब बातचीत और सुलह की अधिक गुंजाइश थी."
निशात आगे बताती हैं कि अब हमारे महिला सहायता केंद्र में तीन तलाक के मामले नहीं आ रहे हैं, लेकिन परित्यक्त यानी छोड़ी गई मुस्लिम महिलाओं के किसी तरह के पुनर्वास के लिए हमारी संस्था ओवरटाइम काम कर रही है. निशाती कहती हैं कि "जुलाई 2019 के बाद से सहायता केंद्र में जितने भी मामले आए हैं उनमें से 32 फीसदी मामले उन मुस्लिम महिलाओं से संबंधित हैं जिन्हें छोड़ दिया गया है. इसके अलावा बाकी के मामले घरेलू हिंसा, दहेज या पारिवारिक मुद्दों के हैं. मुश्किल से एक या दो मामले ही ऐसे रहे हैं जो तीन तलाक से संबंधित थे."
वे बताती हैं कि "तीन तलाक को अपराध घोषित करने से पहले की तुलना में महिला सहायता केंद्र में आने वाले परित्याग के मामलों की संख्या से कहीं ज्यादा हो गई है."
इस्लामिक कानून या शरिया के तहत तलाक के लिए 'खुला' का विकल्प उपलब्ध है.लेकिन इस मामले में पुरुष तलाक नहीं देता, बल्कि महिला अपनी ओर से तलाक की मांग कर सकती है. यानी इसमें पत्नी की तरफ से तलाक की पहल की जा सकती है. लेकिन यह भी कोई आसान विकल्प नहीं है.
24 वर्षीय शाहीन बेगम की शादी 2018 में हुई थी, लेकिन शादी के कुछ महीनों बाद ही उसके पति ने उसे वापस उसकी मां के यहां छोड़ दिया. केवल उसे वापस भेजने के लिए उसका पति उसे कुछ समय के लिए वापस लाता था. यह कुछ समय तक चलता रहा लेकिन इसके बाद 2021 में शाहीन ने उससे भिड़ने का निर्णय लिया. शाहीन ने क्विंट को बताया कि "मेरे पति ने मुझसे कहा कि वो मुझे तलाक भी नहीं देगा. इसके साथ ही उसने कहा तू ऐसे ही सड़."
पति से इस तरह का जबाव मिलने के बाद शाहीन ने 'खुला' का इस्तेमाल करना चाहा, लेकिन इसके लिए पति भी रजामंदी जरूरी होती है. शाहीन का पति कभी किसी भी कार्यवाही में शामिल नहीं हुआ. शाहीन बताती है कि "काजी द्वारा उसे बार-बार नोटिस भेजा गया, लेकिन वह कभी नहीं आया और न ही उसने कभी खुला के डॉक्यूमेंट्स पर हस्ताक्षर किए. अब मैं अपनी जिंदगी में फंस गई हूं."
हालांकि अप्रैल 2021 में केरल हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा था कि कोई भी महिला एकतरफा खुले के साथ आगे बढ़ सकती है और इसके लिए पति की सहमति की जरूरी नहीं है.
दिल्ली की वकील नबीला जमील ने क्विंट से बात करते हुए कहा है कि "यह निर्णय एक अतिरिक्त न्यायिक तलाक में न्यायिक मंजूरी देता है. चूंकि भारतीय कानून के तहत काजियों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है इसलिए इसे महिलाओं को खुला पाने में आने वाली समस्याओं के सकारात्मक समाधान के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन समस्या यह है कि केरल का फैसला केवल केरल में बाध्यकारी कानून है, बाकी स्थानों के लिए यह केवल एक प्रेरक कानून है."
शाहीन अब डिप्रेशन की मरीज हो गई हैं. शाहीन की देखभाल उनकी मां कर रही हैं. उनकी मां का कहना है कि "उस आदमी से मैंने अपनी बेटी की शादी की इस बात का मुझे पछतावा है. इस समय सबसे अच्छा यह होगा कि वह केवल मेरी बेटी को तलाक दे दे ताकि मेरी बेटी आगे बढ़ सके, लेकिन फिलहाल वह ऐसा नहीं कर सकती."
कई बातों के साथ-साथ इसमें पैसों और गुजारा (जीविका) का भी सवाल उठता है. मेहर एक पूर्व-निर्धारित राशि है जो पति द्वारा पत्नी को शादी होने पर दी जाती है. नबीला बताती हैं कि "तलाक के मामले में, पति को इद्दत की अवधि (तलाक के तीन महीने बाद) के लिए मेहर के साथ-साथ भरण-पोषण भी देना होता है."
26 वर्षीय रेशमा बेगम जैसे ही एक बच्चे की मां बनी, उसके तुरंत बाद उसके पति ने यह कहना शुरू कर दिया कि अब वह उसके साथ नहीं रहना चाहता है. हालांकि उसके पति ने तलाक देने से इनकार कर दिया और इसके बजाय उसे खुला लेने के लिए मजबूर किया. लेकिन उसके पति ने खुला डॉक्यूमेंट में कुछ ऐसी बातें जोड़ दीं जिससे कि उसे मेहर या रखरखाव के पैसे देने की जरूरत से मुक्त कर दिया गया. रेशमा, जिसने औपचारिक शिक्षा भी हासिल नहीं की है, उसने कहा कि उसे काफी समय बाद चला कि आखिर उसके साथ क्या हुआ. रेशमा कहती हैं कि "मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं इसलिए मैं दस्तावेजों को समझ नहीं पायी. आखिरकार मुझे यह समझ आ गया कि आजादी मिलने के बाद भी मैं पहले से कहीं अधिक असहाय हो गई."
ऐसी परिस्थितियों में जिन महिलाओं को बिना तलाक के छोड़ दिया गया है, वे किसी और से शादी भी नहीं कर सकती हैं.
आयशा सिद्दीका 17 साल के बच्चे की मां हैं, वे पिछले कुछ समय से अपनी 18 साल की शादी को खत्म करना चाहती हैं. वे बताती हैं कि "मैं एक ऐसे साथी के साथ घर बसाना चाहता हूं जो सपोर्टिव और सज्जन हो, ताकि मैं भी अपना जीवन शांति से बिता सकूं और अपनी इच्छाओं को पूरा कर सकूं. लेकिन बिना तलाक के मैं आगे नहीं बढ़ सकती."
जकिया सोमन, भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (BMMA) की संस्थापक हैं. ये सुप्रीम कोर्ट के उस मामले की याचिकाकर्ताओं में से एक थीं, जिसकी वजह से आखिरकार तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा था. जकिया कहती हैं कि "ट्रिपल तलाक को अपराध घोषित करने से इसके मामलों की संख्या में कमी आ सकती है, लेकिन तस्वीर पूर तरह से सुकून या आनंद देने वाली नहीं है."
जकिया सोमन ने क्विंट से बताया कि "भले ही इसे अपराध घोषित कर दिया गया है लेकिन देश भर के अधिकांश पुलिस स्टेशन कानून के तहत मामला दर्ज नहीं करना चाहते हैं. केस दर्ज कराने के लिए महिला को दर-दर भटकना पड़ता है. ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पूरी व्यवस्था पितृसत्तात्मक है."
बीजेपी सरकार ने 1 अगस्त को 'मुस्लिम महिला अधिकारिता दिवस' के तौर पर चिह्नित किया है. यह वही तारीख है जिस दिन तीन तलाक कानून लागू किया गया था. हालांकि जकिया सोमन ने इसे दिखावा बताती हैं.
सोमन कहती हैं कि "यह केवल राजनीति है. पहली बात यह कि जो कानून उनके लिए मदद करने वाला था, उसे ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया है. और दूसरी बात यह कि मुस्लिम महिलाएं भी देश की नागरिक हैं. जहां इतनी सांप्रदायिक हिंसा और नफरत है, जहां मुस्लिम घरों पर बुलडोजर का इस्तेमाल किया जा रहा है... वहां आप उनसे सशक्त होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?"
एक्सपर्ट्स का कहना है कि मुस्लिम महिलाओं को अंततः अधिक सशक्त महसूस कराना है तो उनके वैवाहिक और तलाक के अधिकारों को मजबूत करने की जरूरत है.
महिलाओं के अधिकार और कानूनी बहुलवाद पर काम कर रहीं हैदराबाद विश्वविद्यालय की पीएचडी रिसर्चर अफरा सलीम का कहना है कि "ऐसी परिस्थितियों में जहां महिला खुले का अनुरोध करती है और पति बार-बार नोटिस देने के बावजूद पेश होने या सहयोग करने से इनकार करता है, उन मामलों में काजियों को निकाह भंग करने के लिए सशक्त होने की जरूरत है. इसकी वजह से अधिक मुस्लिम महिलाएं दुखी या जहर घुली शादियों या जहां उनके पति न तो उनके साथ रहना चाहते हैं और न वे तलाक देने के इच्छुक हैं, से बाहर आ सकेंगी."
एक्सपर्ट्स का कहना है कि "हालांकि तलाक के तत्काल मुद्दे के अलावा मुस्लिम परिवार कानूनों (Muslim family laws) का फिर से व्यापक मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए."
जकिया सोमन के अनुसार मुस्लिम विवाह अधिनियम और मुस्लिम परिवार कानूनों को और ज्यादा जेंडर-जस्ट (लैंगिक न्यायसंगत) बनाने की जरूरत है. जकिया कहती हैं कि "समानता के कुरान के आदेशों (जो न्याय के हमारे संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप भी हैं) के अनुसार मुस्लिम परिवार कानूनों में सुधार करने की और जेंडर-जस्ट बनाने आवश्यकता है."
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