advertisement
बलिया की मीना देवी को उज्ज्वला योजना में गैस मिली पर वो अभी भी खाना बनाने के लिए उपले और लड़कियों वाले चूल्हे का इस्तेमाल करती हैं. मीना देवी से हमने जब ये सवाल पूछा तो उन्होंने जो कहा वो सरकार के भी होश उड़ाने के लिए काफी है, उज्ज्वला योजना लाने का जो मकसद है उसको ही फेल कर सकता है. मीना देवी कहती हैं
बलिया की मीना देवी की दिक्कत परेशानी इन दो लाइन से पता चल जाती है. इसका मतलब है, गैस नहीं है, मिला था तब ही भरा सके थे, 800-900 गैस फील कराने का लगता है, गरीब आदमी कैसे इतना पैसा ला पाएगा?
मीना देवी से मिलना इस पूरे मुद्दे को समझने के लिए आपकी आंखें खोल देता है. धुआं निगल कर चूल्हे पर खाना बनाना शौक तो नहीं ही हो सकता, पसंद भी नहीं. फिर क्या नाम देंगे? यकीनन--मजबूरी. लेकिन कौन सी मजबूरी?
ये मीना देवी के चूल्हे के बगल में मिट्टी से पुता हुआ उज्ज्वला स्कीम वाला सिलेंडर देखिए, जो अब कपड़े या दूसरे सामान रखने के काम आता है.
वो खुद ही बताती हैं कि पहली बार एलपीजी सिलेंडर बंटने के बाद उसे रिफिल कराने की कीमत ज्यादा है. उनका परिवार हैसियत नहीं है कि 800-850 की कीमत पर गैस भरा सके. इससे कम कीमत पर उपले और सूखी लकड़ियां मिल जाती हैं जिससे खाना बन जाता है.
ये सारे सिलेंडर तो बंट जाएंगे लेकिन क्या उन गरीब परिवारों की हैसियत है कि वो इन गैस सिलेंडर को दोबारा भरा सके?
रंगराजन कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि गांव में हर रोज 32 रुपये से कम यानी महीने के 960 रुपये और शहरी इलाकों में हर रोज 47 रुपये यानी महीने के 1410 रुपये से कम खर्च करने वाले भारतीय को गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है. वहीं करीब 6.75 करोड़ परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. ऐसे में कुछ सवाल हैं जिनका जवाब जानना जरूरी है-
इसका जवाब भी बलिया की रहने वाली मुन्नी देवी देती हैं, जिनके पति मजदूरी करते हैं. मुन्नी देवी कहती हैं सिर्फ मुफ्त में गैस सिलेंडर देने से काम कैसे चलेगा, पैसे होंगे तब ही तो गैस भरवा पाएंगे. मजदूरी करके राशन, पानी, दवाई लाना तो मुश्किल है तो गैस कहां से भरवाएंगे, इसलिए चूल्हे पर खाना बना रहे हैं.
न्यूज वेबसाइट स्क्रॉल की जून, 2017 की रिपोर्ट में देश के कई इलाकों के गैस एजेंसी डीलर से बात की गई. इससे पता लगा कि उज्ज्वला स्कीम के तहत मिले गैस सिलेंडर रिफिल के लिए बमुश्किल ही आ पा रहे हैं. खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, एलपीजी के कनेक्शन तो तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन रिफिलिंग की दर काफी कम है. मतलब साफ है कि बांटा गया सिलेंडर दोबारा गैस स्टेशन तक नहीं पहुंच रहा है. कारण है गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति.
800 रुपये के सिलेंडर से सस्ता उन्हें उपले और लकड़ियों का जुगाड़ लगता है, सब्सिडी के पेंच भी ऐसे-ऐसे हैं जो गांव में रहने वाले तमाम परिवारों की पहुंच और समझ के बाहर हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)