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जातीय समीकरण और धार्मिक ध्रुवीकरण के तीरों के बीच उत्तर प्रदेश में आधी से ज्यादा विधानसभा सीटों पर चुनाव मुकम्मल हो चुका है. तमाम पार्टियां बहुमत का दावा भले कर रही हों, लेकिन हाफ टाइम के बाद भी चुनावी तस्वीर बेहद धुंधली है.
पहले तीन फेज में यूपी विधानसभा की कुल 403 सीटों में से 209 सीटों पर वोटिंग हुई. लेकिन जनता जनार्दन का मूड किसी एक तरफ झुका नहीं दिखा. समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन साल 2012 के चुनावी आईने में 2017 की जीत तलाश रहा है तो बीजेपी 2014 लोकसभा चुनावों के वोटिंग पैटर्न पर. वहीं बहुजन समाजवादी पार्टी दलित-मुस्लिम समीकरण के आसरे खुद को डार्क हॉर्स साबित करने में जुटी है.
पहले तीन फेज की वोटिंग को अगर साल 2012 के चुनाव नतीजों पर तोलें तो तस्वीर कुछ ऐसी बनती है-
इन आंकड़ों से साफ है कि साल 2012 में यूपी की कुल 403 में से 224 सीटें पाने वाली समाजवादी पार्टी की जीत इन्हीं तीन चरणों की वोटिंग ने तय की थी.
लेकिन बीजेपी साल 2014 के लोकसभा चुनावों के पोस्टर लहरा रही है. साल 2014 में मोदी लहर पर सवार बीजेपी ने यूपी के 81 फीसदी विधानसभा हलकों में बढ़त हासिल की थी.
इस प्रदर्शन का कोई एतिहासिक समकक्ष ढूंढें तो साल 1977 याद आता है जब इंदिरा विरोधी लहर के बीच जनता पार्टी ने सूबे के 80 फीसदी से ज्यादा हलकों में बढ़त बनाई थी.
यूपी को ये साथ पसंद है- इस नारे की हकीकत सामने आना अभी बाकी है. पहले तीन फेज में मुस्लिम वोटरों का रुझान सपा-कांग्रेस गठबंधन की तरफ दिखा है लेकिन सपा का परंपरागत यादव वोट इस हिस्से में कम है. लिहाजा सिर्फ मुस्लिम वोट का सहारा सपा को कितनी सीटें दिला पाएगा ये एक सवाल है.
बीएसपी को हलके में लेना भी समझदारी नहीं होगी. खासकर उन सीटों पर जहां बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में थे. क्या कांग्रेस का साथ सवर्णों का कुछ हिस्सा बीजेपी से काट पाया है और गैर यादव पिछड़ों में गठबंधन की कितनी सेंध लगी है- इन तमाम सवालों के जवाब वोटिंग मशीनों में ही छिपे हैं.
पश्चिमी यूपी में लोकसभा चुनावों की तर्ज पर ही बीजेपी ने जातीय समीकरण और धार्मिक ध्रुवीकरण का दांव खेला है. योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, संजीव बालयान और संगीत सोम जैसे बयानवीरों के जरिये बीजेपी ने चुनावी फिजा में भगवा रंग घोलने की पूरी कोशिश की है. सवर्णों में तो बीजेपी का असर दिखा लेकिन पिछड़ों और अति पिछड़ों को लुभाने की कवायद कितना रंग दिखा पाई है ये देखना अभी बाकी है.
पहले फेज की 73 में से करीब 50 सीटों पर प्रभावी जाट समुदाय ने अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के साथ अपनी पुरानी आस्था बरकरार रखी है जिसका नुकसान बीजेपी को साफ दिखाई दे रहा है. लेकिन दूसरे चरण में जाट बीजेपी की तरफ लौटता दिखा है.
पूरे यूपी में सबसे ज्यादा 99 मुस्लिम उम्मीदवारों को हाथी पर बिठाकर मायावती ने दलित-मुस्लिम यानी डी-एम समीकरण से सपा के एम-वाई (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक को काटने की कोशिश की है. पहले चरण में ये बंदिश कई सीटों के नतीजे पलट सकती है.
दरअसल राजनीतिक पंडितों की उलझनों की वजह कई सवाल हैं जिनके जवाब आधी वोटिंग के बाद भी गायब हैं.
तीन फेज की इस धुंधली तस्वीर की बैचेनी पार्टियों में साफ नजर आ रही है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने धर्म, जाति, भाषा या समुदाय के आधार पर वोट मांगने पर पूरी तरह रोक लगाई थी. इसके बावजूद नरेंद्र मोदी के भाषणों में ‘श्मशान-कब्रिस्तान’ का जिक्र साफ संकेत दे रहा है कि अगले चार फेज में ज्यादा से ज्यादा हिंदू वोट खींचने के लिए बीजेपी का हथियार ध्रुवीकरण है विकास नहीं.
मुस्लिम समुदाय को यकीन में रखने के लिए मायावती को हर रैली में कसम खानी पड़ रही है कि अल्पमत की सूरत में वो बीजेपी के साथ नहीं जाएंगी.
काम बोलता है के नारे को दरकिनार कर अखिलेश यादव और राहुल गांधी भी नरेंद्र मोदी पर हमलों के जरिये मुस्लिम वोटरों को लुभाने में लगे हैं. निजी हमलों का आलम ये है कि सपा के वरिष्ठ नेता राजेंद्र चौधरी ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह को आतंकवादी करार दे डाला.
साफ है कि पहले तीन फेज के दम पर कोई भी पार्टी जीत के सुनहरे ख्वाब नहीं पाल रही. लिहाजा चुनावी जंग के बाकी बचे चार फेज में तरकश का हर तीर इस्तेमाल होगा. बयानों की उस बाढ़ में चुनाव आचार संहिता बह जाए या फिर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश, किसी को कोई चिंता नहीं होने वाली.
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