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कानपुर की सड़कें दशकों से खराब हैं. काशी के घाट से लेकर गलियां दुर्गति की शिकार हैं. इलाहाबाद शहर खंडहर में बदल रहा है. राज्य सरकारों की नजरें इनायत नहीं हुई. फिर भी वोटरों के बीत चलता है का रवैया क्यों? और तो और शहरों में किसी एक पार्टी भी कभी तरजीह नहीं दी.
परीसीमन से पहले जाएं तो साल 2007 में मायावती ने भी शानदार जीत हासिल की. लेकिन उत्तर प्रदेश के इन ऐतिहासिक शहरों ने मायावती को भी पूर्ण समर्थन नहीं दिया. इलाहाबाद नॉर्थ और प्रतापपुर की सीट के मतदाताओं को बसपा लुभाने में कामयाब नहीं रही. कानपुर में भी बीएसपी के हाथ सिर्फ एक सीट रही. वहीं, सत्ता से दूर बीजेपी ने 3 और कांग्रेस ने 2 सीटों पर अपनी जमीन सुरक्षित रखी.
साल 2002 के चुनाव में भी इन तीनों शहरों ने किसी पार्टी को संपूर्ण समर्थन नहीं दिया. क्या सत्ताधारी पार्टी की मेहबानी शायद इसीलिए इन शहरों पर नहीं हुई.
इन तीनों शहरों के इस राजनीतिक व्यवहार पर जाएं तो ये अपने आप में एक बड़ी पहेली है. बिजली की कमी से परेशान रहने वाले कानपुर शहर के बारे में आमतौर पर लखनऊ के नेताओं को कहते देखा जाता है कि जब शहर कुछ देता नहीं है तो बिजली और सड़क के बारे में क्यों सोचा जाए.
कानपुर से लेकर वाराणसी के खांटी शहरवासियों में वे मतदाता शामिल हैं जो उस दौर से आते हैं जब कौम, धर्म और जाति सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी. कानपुर के कई घरों में आज भी कांग्रेस पार्टी से जुड़े रीति-रिवाज और ड्राइंग-रूमों में जवाहर लाल नेहरु से लेकर इंदिरा गांधी की तस्वीरें देखी जा सकती हैं. इसके बाद शहर में बसने वाले लोगों ने शहर के साथ-साथ अटल-आडवाणी दौर से जोड़ा. ऐसे में इस शहर के मतदाता राष्ट्रीय पार्टियों का समर्थन करना बेहतर राजनीतिक चुनाव मानते हैं. और उस पर जाति धर्म का असर तो है ही.
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