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यूपी में दलितों पर बढ़ते अत्याचार और दलित राजनीति का बंटाधार

UPनामा: सैकड़ों वर्षों से उत्पीड़न का शिकार हो रहे दलितों की स्थिति यूपी में अब पहले से भी बदतर है.

पीयूष राय
भारत
Published:
<div class="paragraphs"><p>यूपी में दलितों पर बढ़ते अत्याचार और दलित राजनीति का बंटाधार</p></div>
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यूपी में दलितों पर बढ़ते अत्याचार और दलित राजनीति का बंटाधार

(फोटो-  क्विंट)

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लखनऊ (Lucknow) में अपने घर में खाट पर सो रहे दलित (Dalit) युवक की बम धमाके में मौत हो जाती है. फर्रुखाबाद में एक दलित व्यक्ति की कथित तौर पर पुलिस वालों द्वारा पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है. हापुड़ (Hapur) में सरकारी स्कूल में दलित बच्चियों के कपड़े उतार कर दूसरे बच्चों को पहनाए जाते हैं. मुजफ्फरनगर में प्रधान जी दलित युवक पर चप्पल बरसा रहे हैं. भदोही में दलित बच्ची को यूनिफॉर्म ना पहनने पर पूर्व प्रधान थप्पड़ मार कर भगा देता है.

इन सब कहानियों को सिर्फ एक कड़ी जोड़ती है कि इसमें पीड़ित दलित हैं. अगर एनसीआरबी के आंकड़ों की बात करें तो 2018 से लेकर 2020 तक पूरे देश में दलित उत्पीड़न और अत्याचार के 139045 मामले आए जिनमें सबसे ज्यादा 36467 मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए.

सैकड़ों वर्षों से उत्पीड़न का शिकार हो रहे दलितों की स्थिति यूपी में अब पहले से भी बदतर है. क्या इसका एक कारण यह है कि इनके हक के लिए लड़ने वाली एक दमदार राजनीतिक आवाज अब शांत सी हो गई है.

जी हां, हम बात कर रहे हैं बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की. कभी उत्तर प्रदेश के सत्ता की बागडोर संभालने वालीं मायावती का प्रभुत्व अब धीरे-धीरे सिमट रहा है. इनके पार्टी के खत्म होते राजनीतिक अस्तित्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बीएसपी ने 2022 विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर जीत दर्ज की.

आरोप यह भी लगा कि जिन सीटों पर समाजवादी पार्टी की स्थिति मजबूत देखी जा रही थी उन सीटों पर बीजेपी का पलड़ा भारी करने के लिए मायावती ने मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उतारे. इन सब राजनीतिक दांव पेंच के बीच एक बात अभी तक नहीं समझ में आ रही है मायावती और उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी खोई हुई जगह पाने के लिए वापस क्या प्रयास कर रही है.

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मायावती के घटते कद के साथ ही साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में जन्म हुआ चंद्रशेखर का जिन्होंने दलित राजनीति के बल पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफी नाम कमाया. दलित उत्पीड़न और उनके साथ हो रहे अत्याचार के लिए जमीनी स्तर पर संघर्ष करने की उम्मीद जो लोग मायावती से लगाए हुए थे उसमें चंद्रशेखर धीरे-धीरे एक नई उम्मीद बनकर उभरते हुए दिख रहे हैं.

मायावती के बदले हुए तेवर और उनके कैडर के गिरते आत्मविश्वास के बीच चंद्रशेखर ने दलित अत्याचार के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोला है हालांकि विपक्ष जानता है कि राजनीति का ककहरा सीख रहे चंद्रशेखर उनके लिए अभी बड़ी चुनौती नहीं है. हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि चंद्रशेखर अपने वादों पर खरे नहीं उतर रहे हैं.

यूपी में दलितों पर बढ़ते अत्याचार और दलित राजनीति का बंटाधार. इसकी एक वजह ये है कि दलितों के हित की बात करने वाली पार्टियां कब अपने हित साधने लग गईं, पता ही नहीं चला. कुर्सी पर पकड़ बनाए रखने के लिए वो अपनी कोर राजनीति से हटीं और जिस आधार पर पार्टी खड़ी थी, उसी को कमजोर कर दिया. इस बीच दलित वोट उधर खिसकता चला गया जिधर दलितों पर जुल्म ढाने वाले लोगों की भीड़ है.

उन पार्टियों के चुनावी मंचों से दलितों को बराबरी का हक दिलाने की तो बातें बहुत हुईं लेकिन ग्राउंड उनके काडर की मानसिकता नहीं बदली. जाहिर है यूपी में दलित राजनीति में बहुत बड़ा शून्य पैदा हो गया और दलितों को इंतजार है कि फिर कोई मसीहा उनके लिए आए.

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