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आम आदमी पार्टी के प्रतिनिधिमंडल ने बड़ी तादाद में दिल्ली के वोटरों के नाम हटाए जाने को लेकर हाल ही में चुनाव आयोग से मुलाकात की है. इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने वाले 'आप' प्रमुख अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव आयोग उन मतदाताओं की सूची मांगी है, जिनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं.
अरविंद केजरीवाल ने मांग की है कि आगे सभी दलों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में जमीनी स्तर पर इसका मुआयना किया जाए. हालांकि चुनाव आयोग ने बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम हटाने की बात से इनकार किया है. साथ ही राजस्थान, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में फर्जी वोटर और मतदाताओं के नाम मिटाने से जुड़ी ऐसी ही शिकायतों को भी खारिज कर दिया गया है.
ये आश्चर्य की बात है कि चुनाव आयोग इस बात से इनकार कर रहा है कि उसकी ही वेबसाइट पर स्वत: संज्ञान लेकर बड़े पैमाने पर वोटरों के नाम हटाए गये हैं.
2008 के हैंडबुक फॉर इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर्स के मुताबिक, द रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टोरल रूल्स 1960 के नियम 21ए और 22 के तहत ईआरओ को वोटरों के नाम हटाने को लेकर स्वत: संज्ञान लेने की इजाजत है. मगर वोटरों के नाम मिटाने का स्वत: संज्ञान उन वोटरों के लिए है, जो इस दुनिया में नहीं हैं. ऐसे नाम मिटाने के लिए मृत्यु प्रमाण पत्र की जरूरत होती है.
ये पहला मौका नहीं है, जब दिल्ली में 2015 में स्वत: संज्ञान लेकर वोटरों के नाम मिटाए गये. द हिन्दू में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में 2011 के दौरान 2.8 लाख लोगों के नाम स्वत: संज्ञान लेकर मिटाए गये थे. इसके लिए आधुनिक डी-डुप्लिकेशन सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया था.
इलेक्टोरल रोल मैनेजमेंट सिस्टम पर चुनाव आयोग का मैनुअल कहता है कि वोटरों का प्रबंधन करने के लिए आयोग सूचना तकनीक का इस्तेमाल कैसे करता है, ये देखा जा सकता है. यह मैनुअल साफ तौर पर बताता है कि किस तरह इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर (ईआरओ) के पास यह अधिकार है कि वह वोटरों के नाम मिटाने का स्वत: संज्ञान ले.
ईआरओ अर्ध न्यायिक प्राधिकरण है और वोटरों के नाम मिटाने पर उसका कही बात ही आखिरी है. लेकिन इसके लिए उसे नागरिक को उपयुक्त नोटिस देना होता है और उस विवाद की सार्वजनिक सुनवाई भी करनी होती है, अगर किसी ने इसे चुनौती दी हो. लेकिन ये साफ नहीं है कि असल में एक नागरिक को साफ-सुथरे तरीके से सुने जाने के लिए सही मौका मिलता भी है या नहीं.
केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश सीआईसी/एसए/सी/2015/000157 सुमित बनाम मुख्य निर्वाचन अधिकारी पर नजर डालें, तो ये पता चलता है कि दिल्ली में 2015 चुनाव के दौरान कई ऐसे लोग थे जो वोट नहीं दे पाए और उन्होंने चुनाव आयोग को सूचना के अधिकार (RTI) के तहत आवेदन दे रखा है कि उन्हें बताया जाए कि उनके नाम किस तरह मतदाता सूची से हटा दिए गये. अपीलकर्ता को जारी किए गये नोटिस सुनवाई के दौरान सूचना आयुक्त को उपलब्ध करायी गयी, जहां आदेश पलट दिया गया.
चाहे स्वत: संज्ञान लेकर हो या किसी और तरीके से, बगैर मुख्य चुनाव आयुक्त की जानकारी और विशेष इजाजत के बड़े पैमाने पर मतदाता सूची से नामों को हटाया नहीं जा सकता. चुनाव आयोग के समक्ष सूचना के अधिकार के तहत दायर एक आवेदन से साफ पता चलता है कि बिहार में चुनाव से पहले बिहार का चुनाव आयोग लगातार स्वत: संज्ञान के जरिए वोटरों के नाम मिटाने की इजाजत मांगता रहा था.
चुनाव आयोग ने स्वत: संज्ञान लेकर वोटरों के नाम मिटाने की इजाजत तो दी थी, लेकिन इसके साथ ये सख्त हिदायत भी दी गई थी कि नोटिस जारी करने और नामों को मिटाने का कारण बताने की प्रक्रिया का पालन करना जरूरी है.
चुनाव आयोग की वेबसाइट पर वोटरों के नाम हटाए जाने की सूचना होने के बावजूद जो आंकड़े आयोग ने सार्वजनिक किए हैं, उससे पता चलता है कि दिल्ली के वोटरों की संख्या में कोई कमी नहीं आयी है. पिछले 5 साल में दिल्ली में वोटरों की संख्या 1.2 करोड़ से बढ़कर 1.38 करोड़ हो चुकी है. वहीं आयोग के दस्तावेज में चुनावी राज्य तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में से बड़ी संख्या में वोटरों के नाम मिटाए गये हैं.
चुनाव आयोग की ओर से सूचनाओं के प्रकाशन में मानकों को एक समान रूप से बनाए नहीं रखने की वजह से ही स्वत: संज्ञान लेकर वोटरों के नाम मिटाए जाने पर संदेह पैदा हो रहे हैं. केजरीवाल आरोप लगा रहे हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय और बीजेपी ने वोटरों के खास समूह का नाम मिटाने के लिए आयोग को निर्देश दिया है.
राजस्थान और मध्य प्रेदश जैसे अन्य राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, वहां कांग्रेस पार्टी मतदाता सूची में छेड़छाड़ का आरोप लगा रही है. वहां मतदाताओं के नाम दो-दो बार दर्ज मिल रहे हैं. चुनाव आयोग ने इस बात से इनकार किया है कि मतदाताओं के नाम दो बार दर्ज हुए हैं. यहां तक कि आयोग ने इस मामले में कमलनाथ बनाम चुनाव आयोग केस में संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया, जब कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को अनुमति दी कि वह मशीन के पढ़ने योग्य फॉर्मेट में मतदाता सूची प्रकाशित नहीं करने के मामले में ऐसे मानदंड अपनाए, जिसमें पारदर्शिता हो.
वोटरों के नाम मिटाने को लेकर जो कुछ हो रहा है, वह पूरी तरह से साफ नहीं है. चुनाव आयोग को इस मामले में पहल करने और चीजों को और पारदर्शी बनाने की जरूरत है. जितनी देर तक चुनाव आयोग मामले की जानकारी और दावों को मानने से इनकार करता रहेगा, लोकतंत्र के लिए वह उतना ही घातक है.
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