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5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद एक बार फिर ईवीएम से छेड़खानी का 'जिन्न' जिंदा हो गया है. मायावती, अरविंद केजरीवाल की पार्टियों समेत देश की कई पार्टियों ने ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं.
बहस का मुद्दा ईवीएम से 'छेड़खानी हुई है' से बढ़कर क्या ईवीएम से 'छेड़खानी हो सकती है' पर पहुंच गया. ये भी मांग हुई कि फिर से बैलेट पेपर के जरिए चुनाव शुरू कराए जाएं. ये मांग कहां तक जायज है इसको जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाकर उस समय के चुनावों पर एक नजर डालनी होगी.
साल 1962 से लेकर 2001 तक देश में बैलेट पेपर के जरिए चुनाव हुए. राजनीति में बाहुबल और गुंडागर्दी की शुरुआत के साथ ही बूथ कैप्चरिंग, बैलेट बॉक्स को पहले ही बैलेट पेपर से भर दिए जाने जैसी घटनाएं भी सामने आने लगी. एक ऐसा ही किस्सा है.
भारी संख्या में सुरक्षाबलों के होने के बाद भी बैलेट बॉक्स लूटे जाने की 11 घटनाएं सामने आई. मतलब साफ था कि नेताओं ने चुनाव जीतने के लिए गुंडों, अराजक तत्वों का सहारा लिया था.
वहीं साल 1990 का हरियाणा का 'महम कांड' भी बूथ कैप्चरिंग का ही नतीजा था. महम सीट पर फरवरी, 1990 में उपचुनाव हुए यहां कैंडिडेट थे मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला, जिनका सामना निर्दलीय उम्मीदवार आनंद सिंह दांगी से हो रहा था. उपचुनाव के दिन बूथ कैप्चरिंग की कोशिश हुई, इस दौरान कई लोगों की जान चली गई थी. कहा जाता है कि वोट देने आए लोग, वोट के ‘लुटेरों’ से भिड़ गए थे.
इसी तरह यूपी, बिहार और देश के कई राज्यों से बूथ कैप्चरिंग, पहले से पर्चों पर वोट डालकर बैलेट बॉक्स भरे जाने की तमाम घटनाएं साल दर साल सामने आती रही. कई बार देखा जाता था कि कुछ सीटों पर वोटरों की संख्या से ज्यादा मतदान हुए हैं. इन घटनाओं से सिर्फ जान-माल का नुकसान ही नहीं देश के लोकतंत्र का भी नुकसान होता था.
वोटिंग को आसान, कम समय में और धांधली मुक्त बनाने के लिए ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के इस्तेमाल की जरूरत दिखी.
साल 1982 में पहली बार केरल के परूर विधानसभा क्षेत्र के 50 मतदान केन्द्रों पर ईवीएम का इस्तेमाल पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर हुआ. हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बता दिया था क्योंकि उस समय तक जनप्रतिनिधित्व कानून (1951) में ईवीएम का कोई प्रावधान नहीं था.
साल 1990 में इलेक्शन कमीशन ने चुनावों में धांधली को रोकने और सुविधाजनक चुनावों के लिए ईवीएम के इस्तेमाल की सिफारिश की.
साल 1998 से ईवीएम को चुनावों में कुछ जगहों पर इस्तेमाल किया जाने लगा. फिर साल 2002 से इसका इस्तेमाल हर एक विधानसभा चुनावों के लिए किया जाने लगा.
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन ने मार्च 2017 में एक रिपोर्ट पेश की, इसे देबनाथ सिसिर और मुदित कपूर ने तैयार किया था. रिपोर्ट में चुनावों में धांधली, लोकतंत्र और विकास पर ईवीएम के असर का जिक्र था, रिपोर्ट के मुताबिक-
इलेक्शन में EVM का इस्तेमाल होने से नेता और अपराधियों की सांठगांठ पर भी बड़ा असर पड़ा. लिहाजा, चुनाव के दौरान बूथ कैप्चरिंग के लिए अपराधियों को संरक्षण देने वाली रीत का भी लगभग अंत हो गया. चुनाव जीतने के लिए नेता, अपराधियों से सांठगांठ रखते थे. यही अपराधी बूथ कैप्चरिंग जैसी घटनाओं को अंजाम देते थे, जिसका नतीजा ये होता था कि चुनाव के बाद भी अपराधियों पर नेताओं का हाथ होता था और कानून व्यवस्था को इससे चोट पहुंचती थी. EVM से वोटिंग शुरू के बाद ऐसी सांठगांठ कम हुई है, और कानून व्यवस्था में सुधार भी हुआ है.
हाल ही में केंद्र सरकार ने राज्यसभा में एक बयान दिया था, ‘साल 1962 से 1996 तक औसतन 62 से 70 सीटों पर जीतने वाले उम्मीदवार के अंतर से ज्यादा इनवैलिड वोट थे.’
ये इनवैलिड वोट EVM के जरिए नहीं डल पाते थे. साथ ही ईवीएम में प्रावधान है कि 1 मिनट में 5 ही वोट डाले जा सकते हैं. इस लिहाज से धांधली रूकी है. कहा जा सकता है कि बैलेट बॉक्स से हर लिहाज से ईवीएम का इस्तेमाल बेहतर है लेकिन बात अगर राजनीति की हो तो शोर तो मचता ही रहेगा.
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