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पंजाब में ड्रग्स की समस्या की असल जड़ अगर पाकिस्तान है, तो फिर इस समस्या ने सिर्फ पिछले दशक भर में ही इतनी भयानक शक्ल क्यों इख्तियार की है? पंजाब आखिर पिछले 69 सालों से सीमा पर ही तो मौजूद रहा है. तो फिर ऐसा क्या है जो बदला है?
द क्विंट ने मामले की तह तक जाने के लिए डॉक्टर्स से बात की, सूरते हाल पर सर्वे करने वालों और आम लोगों से बात की.
अफीम या डोडा या फुक्की, जैसा कि पारंपरिक रूप से इसे यहां जाना जाता है, दशकों से पंजाब और भारत के कई अन्य राज्यों में भी किसान और खेतिहर मजदूर इसे इस्तेमाल में लाते रहे हैं. आम तौर पर अफीम की भुसी का इस्तेमाल किया जाता है – दूध निकाल लिए जाने के बाद बची हुई भुसी. पंजाब की ग्रामीण जनसंख्या का कम से कम एक तिहाई हिस्सा अफीम का इस्तेमाल करता है. गांवों में अफीम का इस्तेमाल कुछ वैसा ही है जैसे शहरों में एक थकान भरे दिन के बाद दो पैग शराब का इस्तेमाल. आपके लिए ये कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है, पर इससे आपको नुकसान भी क्या होना, है न? ऊपर से मंहगा भी नहीं है, एक दिन की खुराक की कीमत बस 30-40 रुपए ही तो है.
पारंपरिक तौर पर पंजाब में बहुत कम मात्रा में अफीम उगाई जाती थी. सूबे को उनके काम भर की अफीम सीमा से लगे हुए राजस्थान से मिलती थी. अफीम की लत से सूबे को छुटकारा दिलाने के लिए राज्य सरकार ने पंजाब में उगाई जा सकने वाली अफीम की वैध सीमा को खत्म करते हुए, राजस्थान से आने वाली अफीम के रास्ते को भी बंद कर दिया. हालांकि ये फैसला 1980 के दशक के बीच लिया गया पर इसे अमल में साल 2000 के बाद ही लाया गया.
राजस्थान का रास्ता बंद होने के बाद ड्रग्स के बाजार में आए सन्नाटे को पहले फार्मास्युटिकल ड्रग्स से भरा गया, फिर हेरोइन से. हेरोइन का असर अफीम से कम से कम तीन गुना ज्यादा होता है.
एम्स के एक वरिष्ठ ड्रग स्पेशलिस्ट की मानें तो स्टडी में सामने आया है कि 90 प्रतिशत अफीम इस्तेमाल करने वाले लोगों को एडिक्शन की समस्या नहीं आती. ऐसे में जाहिर है कि हेरोइन और अफीम में अफीम कम खतरनाक है.
ऐसा नहीं है कि पंजाब में ड्रग्स की समस्या बिगड़े अमीर लड़के-लड़कियों तक ही सीमित है, जैसा कि फिल्में आपको यकीन दिलाती हैं. नेशनल ड्रग डिपेंडेस ट्रीटमेंट सेंटर, एम्स द्वारा कराए गए द पंजाब ओपिओइड डिपेंडेंसी सर्वे (PODS) के मुताबिक पंजाब में सबसे ज्यादा ड्रग्स का इस्तेमाल करने वाले लोग आर्थिक स्तर पर कमजोर, अल्प शिक्षित और बेरोजगार तबके से आते हैं.
PODS सर्वे के मुताबिक:
ज्यादातर एडिक्ट्स 6,000 से 20,000 तक प्रतिमाह कमाते हैं लेकिन औसतन 1,400 रुपए उन्हें हर रोज ड्रग्स पर खर्च करने के लिए चाहिए होते हैं.
तो ड्रग्स पर खर्च करने के लिए बाकी पैसा आता कहां से है? ज्यादातर एडिक्ट्स खुद ही छोटा-मोटा ड्रग्स का धंधा शुरू कर देते हैं. वे खरीद कर आगे आपूर्ति करते हैं, साथ ही अपने लिए मुनाफे का एक हिस्सा जुगाड़ कर लेते हैं. इसी तरह ड्रग्स की अर्थव्यवस्था फल-फूल रही है.
पाकिस्तान अकेला ऐसा रास्ता नहीं है जहां से हेरोइन आ रही है. एक वरिष्ठ सेवानिवृत्त सुरक्षा अधिकारी के मुताबिक,
सुरक्षा ढांचे के उच्चस्तरीय सूत्र ये भी दावा करते हैं कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में एक स्थानीय हेरोइन कुटीर उद्योग प्रगति पर है. पंजाब में ड्रग बेचने वाले यूपी और राजस्थान से आई खेप और सीमापार से आई खेप में आसानी से अंतर कर सकते हैं.
1 अप्रेल 2016 से राजस्थान सरकार ने भी सभी अफीम बेचने वाली दुकानों को बंद करने का फैसला लिया है. द इंडियन एक्सप्रेस में छपी हालिया रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान में 264 डोडा ठेके हैं. शराब की दुकानों की तरह ही राज्य आबकारी विभाग ने उन्हें भी लाइसेंस दिया हुआ था. डोडा की बिक्री के लिए राजस्थान सरकार ने कुल 19,000 लाइसेंस दिए हुए हैं.
क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञ राजस्थान सरकार के इस कदम को आत्मघाती मानते हैं. उनका मानना है कि ऐसा करने से राजस्थान भी पंजाब की राह पर चल पड़ेगा.
पंजाब सरकार ने जनवरी 2016 में अपनी वेबसाइट पर चुपचाप PODS रिपोर्ट का एक छोटा संस्करण जारी किया. जबकि एक बड़े और अधिक जानकारी वाले संस्करण को गुप्त रखा गया. इस रिपोर्ट के निष्कर्षों के बारे में न तो कोई जानकारी दी गई औ न ही उन पर कोई चर्चा हुई.
इस रिपोर्ट में सरकार की रीहेब स्ट्रेटेजी की भी आलोचना हुई है.
वक्त आ गया है जब सरकार इस बात को समझे कि पंजाब की ड्रग समस्या, दुनिया के किसी भी हिस्से की ड्रग समस्या की तरह, आपूर्ति की नहीं बल्कि मांग की समस्या है. आपूर्ति खत्म करने से मांग को खत्म नहीं किया जा सकता.
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