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क्यों 150 साल बाद भी बहादुर शाह जफर को नहीं भुला सका हिंदुस्तान?

अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यंगून में जाकर बहादुरशाह जफर की मजार पर फूल चढ़ाए थे

द क्विंट
भारत
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 बहादुर शाह जफर के मजार पर पीएम मोदी
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बहादुर शाह जफर के मजार पर पीएम मोदी
(फोटो: एएनआई)

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न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं,

जो किसी के काम ना आ सके, मैं वो एकमुश्त गुबार हूं.

ये शेर मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने लिखा था.

7 नवंबर की 1862 की सर्द सुबह 5 बजे रंगून (अब इसे यंगून के नाम से जाना जाता है) में आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की मौत हुई और उसी रोज शाम 4 बजे उन्हें दफनाया गया. जफर की कब्र पर जब मिट्टी डाली जा रही थी, तब वहां उनके दो बेटे और एक मौलवी मौजूद थे. इस कब्र को आगे मजार का दर्जा मिला, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले गुरुवार को जाकर फूल चढ़ाए.

आजादी की लड़ाई और उसकी सजा

1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने के ‘अपराध’ में दिल्ली से परिवार के बचे हुए सदस्यों के साथ निर्वासित किए गए आखिरी मुगल बादशाह की अंग्रेजों की कैद में 87 साल की उम्र में मौत हुई थी. 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी म्यांमार की आधिकारिक यात्रा के दौरान जफर की मजार पर गए थे.

इतिहासकार विलियम डेलेरिंपल ने अपनी किताब लास्ट मुगल में जफर की मौत का जिक्र किया है.

बादशाह को दफनाए जाने के हफ्ते भर बाद ब्रिटिश कमिश्नर कैप्टन एच एन डेविज ने लंदन भेजी गई रिपोर्ट में लिखा था, बीमार चल रहे बुजुर्ग की मौत से परिवार को कोई फर्क नहीं पड़ा है.

जिस सल्तनत का खात्मा जफर के साथ हुआ, उसकी कमान उन्हें जब मिली थी, तब वह आखिरी सांसें ले रहे थे. वह बस कहने को बादशाह थे. उनकी रियासत दिल्ली और आसपास के कुछ इलाकों तक सिमटी हुई थी और अंग्रेजों के रहमोकरम पर चल रही थी.

बस लाल किले तक सिमट गया था मुगल साम्राज्य

हालांकि, 1775 में जब उनका जन्म हुआ था, तब मुगल साम्राज्य पहले से कमजोर पड़ने के बावजूद दुनिया की गिनी-चुनी ताकतों में शामिल था और अंग्रेजों की हैसियत उसके आगे कुछ भी नहीं थी. अपनी जिंदगी में जफर ने इस साम्राज्य के बस लाल किले तक सिमट जाने का सफर देखा और डेलेरिंपल के मुताबिक, बेमन से 1857 के आंदोलन को अपना नाम दिया.

लेकिन क्या बात है कि 300 साल तक हिंदुस्तान पर राज करने वाले मुगलिया सल्तनत के आखिरी बादशाह को 155 साल बाद भी हिंदुस्तान भुला नहीं पाया है?

जफर इस्लाम की सूफी धारा को मानने वाले थे. वह शायर और कवि थे. उन्होंने उर्दू, फारसी, पंजाबी और ब्रज भाषा में साहित्य रचा. गालिब और जौक जैसे शायर उनके दरबार के रत्नों में शामिल थे.

जफर के पास अकबर की अदबी विरासत थी

दरअसल, यह अकबर जैसे मुगल बादशाहों की विरासत थी. जफर के पास अकबर जैसी आर्थिक ताकत तो नहीं थी, लेकिन उनकी धार्मिक, सांस्कृतिक और अदबी विरासत को उन्होंने मुगलिया सल्तनत के आखिरी दम तक संजोकर रखा था.

अकबर के राज में हिंदू, मुसलमान, सिख और बौद्धों को धार्मिक मान्यतायों और रीति-रिवाजों के मामले में पूरी आजादी मिली हुई थी. जिस दिल्ली पर जफर की हुकूमत हुआ करती थी, उसकी आधी आबादी हिंदू थी. उनके राज में दिल्ली के हिंदू रईस हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाते थे और बादशाह की देखादेखी मुस्लिम दरबारी संतों और साधुओं का सम्मान करते थे.

155 साल बाद भी हिंदुस्तान उन्हें भुला नहीं पाया

हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक ‘फूल वालों की सैर’ धूमधाम से मनाई जाती थी. आज भी हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर हिंदू और मुस्लिम श्रद्धा के साथ जाते हैं और फूल वालों की सैर जफर की मौत के डेढ़ सौ साल बाद भी जारी है.

1857 के आंदोलन के वक्त जब हिंदू और मुसलमानों के बीच टकराव की नौबत आई तो शाही दरबार की तरफ से जारी होने वाली घोषणाओं में बार-बार कहा गया कि यह दीन और धर्म की लड़ाई है. जफर अपनी सल्तनत में बहुत लोकप्रिय थे, इसलिए उनकी मौत के 155 साल बाद भी हिंदुस्तान उन्हें भुला नहीं पाया है.

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Published: 09 Sep 2017,01:47 PM IST

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