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26 जनवरी 1950 के दिन संविधान सभा के सदस्यों ने नए संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए और भारत एक गणराज्य बन गया. ठीक उसके बारह महीनों के बाद, संविधान के उन्हीं निर्माताओं ने, जो स्वतंत्रता के बड़े पैरोकार थे, जिन्होंने उस संविधान पर सहमति दी थी, उन्होंने ही अपनी कृति में ये कहकर संशोधन कर दिया कि इसमें ‘अत्यधिक स्वतंत्रता है’
पहले संशोधन ने संविधान को तीन तरह से बदला. इसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कमजोर किया. यह स्पष्ट किया कि सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में जाति आधारित आरक्षण संवैधानिक रूप से सही है और संपत्ति के अधिकार में संशोधन किया ताकि जमींदारी उन्मूलन कानून को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखा जा सके.
संविधान और मौलिक अधिकारों के मुद्दे का राजनीतिक बहस के केंद्र में हमेशा बने रहने की वजह से यह अहम है कि उस राजनीतिक और संवैधानिक इतिहास के लगभग भुला-बिसरा दिए गए पन्नों पर फिर से नजर डाली जाए जिसमें वर्तमान भारत की नागरिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं की स्थिति और राजनीतिक जीवन में उनकी वर्तमान भूमिकाओं को समझने के सूत्र छुपे हुए हैं.
त्रिपुरदमन सिंह की नयी पुस्तक “वे सोलह दिन: नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन” (पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया द्वारा प्रकाशित) संविधानिक इतिहास के उस अहम कालखंड को समझने के लिए एक नए परिप्रेक्ष्य के तौर पर पहले संशोधन की कहानी आज की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण अनुभवों को सामने रखती है.
फली एस नरीमन, स्वपन दासगुप्ता, मेघनाद देसाई, करण थापर जैसे कई विश्वसनीय लोगों ने इस किताब की तारीफ की है.
'वे सोलह दिन' नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन भारतीय संविधान के प्रथम संशोधन की दिलचस्प कहानी है. प्रचंड संसदीय बहसों और विरोध के बीच जून 1951 में पहला संविधान संशोधन किया गया. इस संशोधन ने कुछ नागरिक स्वतंत्रताओं और संपत्ति के अधिकारों को सीमित कर दिया और कानूनों की एक विशेष अनुसूची तैयार की, जो न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर थी. यह संशोधन देश के पहले आम चुनाव से ठीक पहले हुआ. कांग्रेस घोषणापत्र में जिन सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का उल्लेख था, उन्हें उदार संविधान और स्वतंत्र प्रेस से चुनौतियां मिल रही थीं. इसका सामना करने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कार्यपालिका की सर्वोच्चता को फिर से स्थापित करते हुए संविधानिक नियंत्रण और दबाव का एक ढांचा खड़ा कर दिया.
आखिर संविधान लागू होने के महज एक ही साल बाद ऐसी कौन-सी चुनौती देश के सामने आ खड़ी हुई थी? संसदीय बहसों, न्यायिक दस्तावेजों और विद्वानों की राय के आधार पर यह पुस्तक नेहरू, अंबेडकर, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे दिग्गजों के बारे में हमारी पारंपरिक समझ को एक चुनौती देती है. साथ ही यह पुस्तक, भारतीय संविधान के उदारवादी स्वरूप और उसकी पहली सरकार के अधिनायकवादी आवेगों के बीच की खाई को भी सामने लाती है.
त्रिपुरदमन सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ कॉमनवेल्थ स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में ब्रिटिश अकैडेमी पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो हैं. उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में जन्मे त्रिपुरदमन ने यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरविक में राजनीति एवं अंतरराष्ट्रीय अध्ययन की पढ़ाई की और यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज से मॉर्डन साउथ एशियन स्टडीज में एमफिल और इतिहास में पीएचडी की डिग्री हासिल की है.
वह नीदरलैंड्स के यूनिवर्सिटी ऑफ लाइडेन में विजिटिंग फेलो और और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च फेलो रहे हैं. त्रिपुरदमन रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के फेलो भी हैं. इससे पहले उनकी इम्पेरियल सोवर्निटी, लोकल पॉलिटिक्स और नेहरू नाम की किताबें पब्लिश हो चुकी हैं.
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