आखिर महिलाओं ने क्यों घेर ली संसद तक जाने वाली सड़क?

सरोज देवी ने बताया, पिछले एक साल से दहशत जीवन का स्थायी भाव बन गया है 

विनय सुल्तान
भारत
Published:
(फोटो: विनय सुल्‍तान)
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(फोटो: विनय सुल्‍तान)

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संसद मार्ग थाने के सामने 48 साल की सरोज परेशान-सी घूम रही हैं. उनके पति जयराज का पिछले आधे घंटे से कुछ पता नहीं चल रहा है. उन्होंने अपने साथ आई सरिता से ठेठ हरियाणवी लहजे में कहना शुरू, "बेबे, बेर ना कित गया बाळका का बाबू. ईब तो अड़े ही था. पत्रकार गेल गाड़ी कानी गया था. कागज दीखाणने. म्हने घणा डर लागे. कोई धोक्खा ना हो ज्या."

[बहन, पता नहीं बच्चों के पिता (हरियाणा में औरतें अपने पति के लिए यह संबोधन इस्तेमाल करती हैं) कहां गए. अभी तो यहीं थे. फिर एक पत्रकार के साथ गाड़ी की तरफ गए थे, कागज दिखाने के लिए. मुझे बहुत डर लगता है. कहीं कोई धोखा ना हो जाए.]

सरोज देवी: पिछले एक साल से दहशत जीवन का स्थायी भाव बन गया है (फोटो: विनय सुल्‍तान)

अखबार की तासीर है कि वो शाम तक बासी हो जाता है. लेकिन अखबार में दर्ज हादसे उन लोगों के लिए कभी बासी नहीं होते, जिन लोगों ने उन्हें भोगा होता है. अखबार में छपी खबर कतरन की शक्ल में उन जिंदगियों के साथ हमेशा के लिए चस्पा हो जाती हैं.

जयराज 9 अगस्त के अखबार की ऐसी ही एक कतरन दिखाने के लिए एक पत्रकार के साथ अपनी गाड़ी की तरफ बढे थे, जहां से उनका कोई पता नहीं लग रहा था. उनका फोन बंद था और यह बात सरोज को और ज्यादा परेशान किए दे रही थी. सामान्य स्थितियों में यह कोई बड़ी परेशानी का सबब नहीं होना चाहिए था. पिछले कुछ महीनों में सरोज और उनके परिवार ने जो भुगता है, उस लिहाज से यह बहुत स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी.

वाल्मीकि समुदाय से आने वाकी सरोज के लिए दुश्वारियों की शुरुआत पिछले साल अगस्त से शुरू हुई. उनके बड़े बेटे सुनीन ने जाट समुदाय से आने वाली ममता से शादी करने का साहस किया था. सूनीन रोहतक में ममता के घर पर किराएदार के तौर पर रहा करते थे. दोनों में प्यार हुआ और दोनों रोहतक से भागकर दिल्ली आ गए. यहां उन्होंने काली मंदिर में जाकर शादी कर ली.

खुद को कानूनी तौर पर पुख्ता करने के लिए सूनीन और ममता चंडीगढ़ हाईकोर्ट गए और वहां से अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन हासिल करने में कामयाब रहे.

सुनीन ने अपने से ऊंची जाट की लड़की से प्यार करने का जुर्रत की थी(फोटो: विनय सुल्‍तान)

चंडीगढ़ से सुनीन और ममता रोहतक लौट आए. यहां उन्होंने अपनी सलामती के लिए कोर्ट में दरियाफ्त की. कोर्ट के आदेश पर सुनीन को 20 दिन के लिए पुलिस सेफहाउस में भेज दिया गया. इसके बाद भी स्थितियां सुधरी नहीं. इधर सुनीन के परिवार को ममता की परिवार की तरफ से धमकियां मिलना शुरू हो गया था.

आखिरकार सुनीन और ममता रोहतक छोड़कर दिल्ली आ गाए. इधर रोहतक में पुलिस जांच नया मोड़ ले रही थी. आखिरकार ममता के पिता रमेश पुलिस के सामने यह स्थापित करने में कामयाब हो गए कि ममता बालिग नहीं है. ऐसी स्थिति में ममता और सुनीन की शादी कानूनी तौर पर संदिग्ध हो गई. रमेश ने सुनीन और उनके पिता जयवीर पर आरोप लगाया कि उन्होंने ममता के दस्तावेजों के साथ छेड़छाड़ करके कोर्ट के सामने उसे बालिग साबित किया है. इस मामले में रमेश की शिकायत पर सुनीन के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया.

11 जनवरी को सुनीन को दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया गया. 13 जनवरी उनकी कोर्ट में पेशी हुई. इस दौरान पेशी देखने आए उनके पिता जयवीर को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. सुनीन के छोटे भाई दिनेश और उनकी मां सरोज को रोहतक छोड़कर भागना पड़ा. कोर्ट में पेशी के बाद ममता को करनाल के नारी निकेतन भेज दिया गया.

सड़क किनारे खाना खाती ये प्रदर्शनकारी महिलाएं बिहार से दिल्ली आई हैं (फोटो: विनय सुल्‍तान)

मार्च 2018 में दिनेश और सरोज लौटकर रोहतक आ गए. रोहतक के बड़ा बाजार में मोबाइल की दुकान चलाने वाले दिनेश ही अपने भाई और पिता के मुकदमे के लिए पैरवी का इंतजाम कर रहे थे. इधर ममता को भी महीने में दो दफा पेशी के लिए रोहतक लाया जाने लगा. इन पेशियों के दौरान ममता सुनीन के परिवार से मिला करती.

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8 अगस्त, 2018 को ममता को ऐसी ही एक पेशी के लिए करनाल के नारी निकेतन से रोहतक लाया गया था. ममता ने अपने देवर दिनेश को पहले ही फोन करके बता दिया था. ममता को रोजमर्रा के कुछ सामानों की जरूरत थी. फोन पर ममता ने ताकीद की थी कि दिनेश पेशी पर अपनी मां सरोज को भी साथ में लाए.

दिनेश और सरोज 8 अगस्त की सुबह 10 बजे के करीब कोर्ट पहुंच चुके थे. उनके अलावा ममता के पिता रमेश भी कोर्ट में मौजूद थे. वो हर पेशी पर कोर्ट आकर अपनी बेटी से बात करने की कोशिश करते. लिहाजा दिनेश के लिए उनकी मौजूदगी असहज करने वाली नहीं थी.

दिनेश याद करते हैं:

"रमेश हर पेशी पर आते थे लेकिन उस दिन उनका रंग-ढंग थोड़ा अलग लग रहा था. वो कोर्ट के बाहर चक्कर पर चक्कर काटे जा रहे थे. कोर्ट में मेरी भाभी की पेशी के वक्‍त वो उनसे दूर ही रहे. पिछली पेशी पर ही भाभी ने उनसे बात करने से साफ मना कर दिया था.

कोर्ट में पेशी के बाद मैं हमेशा भाभी को गाड़ी तक छोड़ने जाया करता था. मैं भाभी के साथ आए हुए एएसआई नरेंद्र के साथ भाभी से दो कदम आगे चल रहा था. मेरे पीछे एक महिला हवालदार चल रही थीं. उसके बाद भाभी थीं. मेरी मां भाभी से बात करते हुए उनके साथ चल रही थीं. हम मिनी सचिवालय के गेट तक पहुंचे ही थे कि मुझे पटाखा दागने जैसी आवाज सुनाई दी. पीछे मुड़कर देखा तो भाभी की पीठ से खून निकल रहा था.

मेरे साथ चल रहे एएसआई नरेंद्र हमलावर से निपटने के लिए अपनी पिस्तौल निकाल ही रहे थे कि वो हमलवार के निशाने पर आ गए. उन्हें तीन गोली मारी गई. इसके बाद हमलावर मेरी भाभी की तरफ मुड़ा और उसने एक और गोली दाग दी. ये वाली उनकी पंसलियों के पास लगी थी.

इसके बाद हमलावर भागने लगा. मैंने उसका पीछा किया तो उसने एक फायर मेरी तरफ भी किया. वो मुझे लगा नहीं."

4 सितम्बर को संसद मार्ग पर परेशान हाल घूम रही सरोज के कान में महीने भर पहले दागी गई उन्हीं पांच गोलियों की आवाज गूंज रही थी. अपने पति को खोजते हुए उन्होंने दबी जबान में कहा, "किसी का क्या भरोसा. वो लोग रोज धमकी देते हैं कि हमारे पूरे परिवार को खत्म कर देंगे. आखिर हमारी गलती क्या है? कितने दिन हमको ऐसे ही दबाया जाएगा?"

सरोज को पता था कि उनके सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था.

सरोज की तरह हजारों औरतें 4 सितंबर को दिल्ली के संसद मार्ग पर जुटी हुई थीं. जनवादी महिला समिति के बैनर तले 23 राज्यों से आई महिलाएं यौन हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं. उनके हाथों में लहरा रही तख्तियों पर नारे दर्ज थे और उनकी आंखों में सवाल. सवाल, जिनका जवाब न तो सरकार के पास था, न ही सभ्य होने का दावा करते समाज के पास.

संसद मार्ग पर प्रदर्शन करतीं महिलाएं (फोटो: विनय सुल्‍तान)

इस पूरे प्रदर्शन की सबसे खास बात यह थी कि नेताओं की बजाए पीड़ित महिलाएं मंच पर थीं. पहली बार माइक पर बोलते हुए उनकी आवाज लरज रही थी. वाक्यों को एक कड़ी में जोड़ने में दिक्कत पेश आ रही थी. न अपनी बात कहने का शउर था और ही मुफीद अल्फाज. वो अपने ही रौ में अपनी बात कह रही थीं. यौन हिंसा से पीड़ित महिलाएं, अत्याचार का शिकार हुईं घरेलू कामगार महिलाएं, खेत में मजूरी करती महिलाएं, जिनकी मजदूरी मार ली गई.

मंच पर न तो दावे थे, न वादे और न ही आश्वासन. वहां महज ध्वनियां थीं, जो आधी आबादी की कसमसाहट से पैदा हुई थीं. अपने भोगे हुए यथार्थ को बयान करने के लिए इन महिलाओं ने व्याकरण की जरूरत को सिरे से नकार दिया था. या यूं कहा जाए कि सात दशक के लोकतंत्र में हमारी सरकारें अपने भीतर भाषा की तमीज ही पैदा नहीं कर पाईं कि इन महिलाओं की बात समझ सकें.

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