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आज विश्व खाद्य दिवस World Food Day है. जलवायु परिवर्तन, हिंसक टकराव और आर्थिक दबाव समेत अनेक विकराल चुनौतियों से वैश्विक खाद्य संकट लगातार बढ़ता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के अनुसार इन संकटों की वजह से दुनिया भर में भूख की मार झेल रहे लोगों की संख्या वर्ष 2022 के शुरुआती महीनों में 23 करोड़ 20 लाख से बढ़कर, 34 करोड़ 50 लाख तक पहुंच गई है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 2023 में हालात और भी खराब होने की आशंका है. पिछले तीन सालों में भूख से पीड़ितों की संख्या बार-बार नए ऊंचे स्तर तक पहुंची है. आइए हम जानते हैं आखिर खाद्य संकट इतना क्यों गहरा है, क्या समस्याएं हैं.
संघर्ष, COVID, जलवायु संकट और बढ़ती लागत ने 2022 में दुनियाभर में 828 मिलियन लोगों के लिए संकट पैदा कर दिया है.
2019 के बाद से हर रात करीब 828 मिलियन लोग भूखे सोते हैं.
भोजन अभाव से प्रभावित लोगों की संख्या, पिछले तीन सालों में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है. करीब 10 लाख लोग अकाल के हालात में रह रहे हैं, जहां भुखमरी और मौत एक दैनिक वास्तविकता है.
जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक चारागाहों का बनना, जंगलों की कटाई और शहरीकरण के कारण पृथ्वी की 40 फीसदी जमीन की दशा खराब हो चुकी है.
दुनिया भर के सभी महाद्वीपों में सिंचाई योग्य भूमि का 20 से 50 प्रतिशत हिस्सा इतना नमकीन हो गया है कि वो पूरी तरह से उपजाऊ नहीं बचा है, जिसके कारण उन जमीनों में अपनी फसलें उगाने वाले लगभग डेढ़ अरब लोगों के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट का कहना है कि जमीन की गुणवत्ता खत्म होने के कारण 44 लाख करोड़ डॉलर का आर्थिक उत्पादन यानी दुनिया की जीडीपी का करीब आधे से ज्यादा खतरे में है.
इस समय संपूर्ण मानवता का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा यानी करीब तीन अरब लोग स्वस्थ भोजन की एक खुराक का प्रबंध करने में समर्थ नहीं है.
विश्व खाद्य दिवस (World Food Day) से एक दिन पहले वर्ल्ड हंगर इंडेक्स (World Hunger Index) का डेटा सामने आया है, जिसमें भारत गिरते-गिरते अब 107वें पायदान पर पहुंच गया है.
इस सूची में भारत का लगातार लुढ़कते जाना इस देश में बहुत सारे लोगों के लिए भोजन की गंभीर समस्या को उजागर करता है. साथ ही ये विकसित, विकासशील और गरीब देशों के बीच के बड़े अंतर को भी उजागर करता है.
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 16.3% आबादी कुपोषित है. पांच साल से कम उम्र के 35.5% बच्चे अविकसित हैं. भारत में 3.3% बच्चों की पांच साल की उम्र से पहले ही मौत हो जाती है.
दुनियाभर में तमाम प्रोग्राम और संयुक्त राष्ट्र की कोशिशों के बावजूद खाद्य असामनता और कुपोषण को अभी तक खत्म नहीं किया जा सका है. खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक, इसका एक बड़ा कारण देशों के बीच संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक मंदी है. वहीं, साल 2020 में आई कोरोना वायरस महामारी ने इस अंतर को और बढ़ाने के काम किया है.
फरवरी में यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद खाद्य सामग्री को लेकर एक और संकट खड़ा हो गया.
भुखमरी और खाद्य को लेकर दुनियाभर में असमानता की एक तस्वीर हमें इससे भी मिलती है कि अलग-अलग देशों में लोगों को कितने पोषक तत्व मिल रहे हैं.
डेटा वेबसाइट, Our World Data के मुताबिक, दुनियाभर में कैलोरी, कार्ब्स और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों में भी भारी असामनता है.
नीचे दिए गए चार्ट से हमें पता चलता है कि अमेरिका, कनाडा और कुछ यूरोपीय देशों में जहां प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 3500 kcal मिल रही हैं, वहीं भारत में ये आंकड़ा हजार किलो कैलोरीज (kcal) कम है. वहीं, अफ्रीका के कई देश ऐसे हैं, जहां एक व्यक्ति को एक दिन में 2000 से भी कम kcal मिल रही हैं. दक्षिण सुडान, कॉन्गों और लीबिया की हालत ऐसे है कि वहां का डेटा तक उपलब्ध नहीं है.
ऐसी ही तस्वीर फैट और प्रोटीन के सेवन से भी देखने को मिलती है. वेबसाइट के 2017 तक के डेटा के मुताबिक, केवल अमेरिका, ऑस्ट्रिया और आइसलैंड ऐसे देश हैं जहां प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 160-180 ग्राम फैट का सेवन कर रहा है. एशियाई और अफ्रीकी देशों में दक्षिण अफ्रीका (81.95) और चीन (97.59 ग्राम) के अपवाद को हटा दें, तो भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन फैट का सेवन 56.84 ग्राम, पाकिस्तान में 73.36 ग्राम, बांग्लादेश में 33.95 ग्राम, अफगानिस्तान में 30.62 ग्राम, नाइजीरिया में 49.52 ग्राम, जिम्बॉव्वे में 57.04 ग्राम और मैडागास्कर में 23.49 ग्राम था.
यही हाल एक और जरूरी पोषक तत्व प्रोटीन को लेकर है. जहां विकसित देशों में हर शख्स रोजाना 100 ग्राम से ज्यादा प्रोटीन का सेवन कर रहा है, वहीं, भारत, पाकिस्तान, नामीबिया और सुडान जैसे देशों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन केवल 60 से 70 ग्राम प्रोटीन का सेवन कर रहा है.
खाद्य असामनता का ये असर विकसित और गरीब देशों की जीवन प्रत्याशा पर भी देखने को मिलता है. जहां ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे देशों की जीवन प्रत्याशा ठीक है, वहीं गरीब देश नाइजीरिया में ये 52.70 साल है. भारत की हालत भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं है. Our World Data के मुताबिक, भारत में जीवन प्रत्याशा 67.20 साल है.
ये आंकड़े बताते हैं कि जहां दुनिया के कुछ देशों के पास पर्याप्त भोजन है, वहीं कुछ देश ऐसे हैं जो अपने नागरिकों को पोषक तत्व भी नहीं दे पा रहे हैं.
सबसे पहले हम भारत के परिदृश्य में इसी साल खेती-किसानी का हाल देखें तो इस साल की रबी की फसल को हीटवेव से काफी भयंकर नुकसान पहुंचा. इस अप्रैल-मई में हीटवेव ने अपना 122 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया.
हीटवेव की वजह से भारत के कई हिस्सों में तापमान 50 डिग्री के आस-पास पहुंच गया था, जिसका असर गेहूं की फसल पर भी पड़ा. इस साल देश में 111.32 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ, जो पिछले साल की तुलना में 3.8 मिलियन टन कम है.
फल सब्जियों की बात करें तो आम, अंगूर, बैंगन और टमाटर की खेती को भारी नुकसान हुआ. गर्मी की वजह से कलियां ही मर गईं थीं. ऐसे में फसल तैयार होने का सवाल ही नहीं है.
इसके परिणामस्वरूप किसान कर्ज में चला गया.
उसके बाद जब बारिश का मौसम आया तो आसमान मेहरबान नहीं हुआ, जिससे जुलाई-अगस्त में सूखे जैसी स्थिति का समाना करना पड़ा.
अब मॉनसून पर आते हैं. उत्तर भारत में ज्यादातर किसान जुलाई में धान की बुवाई करते हैं, लेकिन इस साल जब किसान मॉनसूनी बारिश की उम्मीद लगाए बैठे तब मॉनसून देरी और कम समय के लिए आया. धान के लिए ज्यादा पानी की जरूरत होती है. ऐसे में धान की फसल को नुकसान हुआ.
धान का कटोरा कहे जाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश, झारखंड, बंगाल और बिहार के 91 जिलों के 700 से ज्यादा ब्लॉकों ने इस साल सूखे जैसे हालात का सामना किया है, जिससे जमीन सूखी पड़ी रही हैं और यहां धान की बुवाई में 50 से 75 फीसदी की कमी देखी गई है.
धान की कम बुवाई से चावल उत्पादन पर भी असर दिखेगा. अनुमानित तौर पर इस साल चावल उत्पादन में 6 फीसदी की कमी देखी जा सकती है.
जब ऐसा लगा कि बारिश जा चुकी है तो सितंबर अपने साथ मॉनसून लेकर आ गया. उसके बाद अक्टूबर में भी जमकर बरसात हुई, जिसकी वजह से कटाई के लिए खड़ी फसल खेतों में ही बर्बाद हो गई.
अगस्त 2022 में भारी बरसात हुई, 2001 के बाद से भारत में यह 8वीं सबसे ज्यादा बारिश थी.
वैश्विक स्तर पर खेती प्रभावित हो रही है. इससे भोजन की व्यापक कमी का खतरा बढ़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार, मानवता की दो से अधिक पीढ़िया प्रचुरता में रही हैं. लेकिन हम उस मीठे पानी के संसाधनों की उपेक्षा कर रहे हैं, जो हमारे लिए फसल उगाना संभव बनाते हैं. अगर हम ऐसा करते रहे तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, पिछले दो दशकों में ताजे पानी की उपलब्ध मात्रा में प्रति व्यक्ति 20 प्रतिशत की गिरावट आई है और करीब 60 प्रतिशत सिंचित फसल योग्य भूमि में पानी की कमी है.
इस कमी के नतीजे दूरगामी हैं, क्योंकि सिंचित कृषि से दुनिया भर में उत्पादित कुल भोजन का 40 प्रतिशत हिस्सा आता है.
दुनिया भर की लगभग दस प्रतिशत नदियां खारे पानी के प्रदूषण से प्रभावित हैं.
ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से लंबे समय तक सूखा पड़ रहा है. अफ्रीका और पश्चिमी अमेरिका जैसे कई स्थानों पर ज्यादा समय तक सूखा पड़ने के रिकॉर्ड बन रहे हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि यह जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख उदाहरण है.
इंसानी विकास ने पृथ्वी के 70 प्रतिशत से अधिक भूमि क्षेत्र को बदल दिया है, जिसे ‘ग्लोबल लैंड आउटलुक’ ने "अद्वितीय पर्यावरणीय गिरावट" करार दिया है. कई जगहों पर मिट्टी की, पानी को रोकने और छानने की क्षमता कम हो रही है, जिससे फसल उगाना और पशु-पालन में मुश्किलें आ रही हैं. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगर इस सदी में मौजूदा भूमि क्षरण की प्रवृत्ति जारी रहती है, तो खाद्य आपूर्ति में बाधा पैदा हो सकती है. जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसम घटनाएं, जैसे कि भारी बारिश के बाद सूखे का कहर, भूमि क्षरण में तेजी ला सकता है.
‘क्लाइमेट ऑफ द पास्ट’ पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि सिंधु घाटी के तापमान तथा मौसम के पैटर्न में बदलाव की वजह से ग्रीष्मकालीन मॉनसूनी बारिश में धीरे-धीरे कमी आने लगी जिस वजह से हड़प्पाई शहरों के आस-पास कृषि कार्य किया जाना मुश्किल या असंभव हो गया. 1800 ईसा पूर्व तक इस उन्नत सभ्यता ने अपने-अपने शहर छोड़ दिए और हिमालय के निचले हिस्से में स्थित छोटे गांवों की तरफ जाने लगे थे. शोधकर्ताओं ने कहा कि इसी तरह की मौसमी परेशानियों के चलते संभवत: सभ्यता का खात्मा हुआ था.
जलवायु परिवर्तन, खाद्य संकट और इसके परिणाम हमारे समाने हैं. लेकिन न तो सरकार के स्तर पर, न ही समाज के स्तर पर इन तमाम खतरों और संकटों से निपटने के लिए कोई ठोस पहल होती दिखाई दे रही है. नेता जुमलेबाजी करके खुश हैं. जनता पर्यावरण दिवस जैसे आयोजन से ही संतुष्ट है, लेकिन एकजुट होकर कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर रहा है. भोजन के
तंत्र में कुल मिलाकर एक बड़े बदलाव की जरूरत है. भोजन, पशुओं का चारा या दूसरी चीजें कैसे पैदा की जाएं. इससे लेकर सप्लाई चेन और उत्पादकों से ग्राहकों को जोड़ने की प्रक्रिया में बदलाव करना होगा. अगर हम अभी नहीं जागे तो आगे न केवल खाद्य संकट विकराल होगा बल्कि जीवन स्तर भी खतरे में आ जाएगा.
संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया है कि भोजन की कमी, भुखमरी और कुपोषण की समस्या से दुनिया का हर देश पीड़ित है. इसलिए भोजन का नुकसान और बर्बादी रोकने के लिये तत्काल कार्रवाई करनी होगी.
साल 2019 में उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध कुल भोजन का 17 फीसदी हिस्सा फेंक दिया गया और वह बर्बाद हो गया.
विश्व में कुल उत्पादित भोजन के 14 प्रतिशत का नुकसान होता है. वहीं, घरों, फुटकर, रेस्तरां और अन्य खाद्य सेवाओं में 17 प्रतिशत भोजन की बर्बादी होती है. यह प्रति वर्ष 400 अरब डॉलर के नुकसान के बराबर है.
भारत में प्रति व्यक्ति हर साल औसतन 50 किलो तक खाना बर्बाद होता है.
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के घरों में हर साल लगभग 68.7 मिलियन टन खाना बर्बाद होता है.
पर्याप्त खाद्य सुरक्षा के बावजूद यूएन के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 190 मिलियन भारतीय कुपोषित हैं.
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