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क्या यह उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति का अंत है?

क्या यह उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति का अंत है?

IANS
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क्या यह उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति का अंत है?
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लखनऊ, 23 मई (आईएएनएस)| उत्तर प्रदेश में आम चुनाव के नतीजों ने सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के लिए जश्न मनाने का कोई मौका नहीं दिया क्योंकि इनका जातीय गणित यहां औंधे मुंह गिरा है।

यह महागठबंधन जनवरी में अस्तित्व में आया और कहा गया कि यह उप्र में भाजपा को मात देकर सत्ता में उसकी वापसी की राह रोकेगा। नतीजों के रुझान ने गठबंधन को बिना ताकत का बना दिया है।

ब्रांड मोदी ने इनके जातीय गणित को ध्वस्त कर दिया।

अपने पारिवारिक झगड़ों से परेशान समाजवादी पार्टी नेतृत्व ने सालों पुरानी अदावत को दरकिनार करते हुए बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन किया।

इनका गणित साफ था। 40 फीसदी पिछड़ा (ओबीसी) और 21 फीसदी दलित एक साथ आकर राज्य में नया इतिहास लिखेंगे।

2014 में संसदीय चुनाव में एक भी सीट नहीं जीतने वाली और 2017 के विधानसभा चुनाव में महज 19 सीट जीतने वाली बसपा को भी यह गणित जादुई दिखा और उसने गठबंधन पर सहमति जताई।

भाजपा ने गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित पर अपना ध्यान केंद्रित कर इनके सभी आकलन को गड़बड़ा दिया। पार्टी ने इन जातीय समूहों को अपनी तरफ खींच कर गणित को बदल दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कह कर जाति युद्ध को वर्ग युद्ध में बदल दिया कि 'मेरी जाति गरीब की जाति है।'

इसके अलावा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने आक्रामक हिंदुत्व अभियान के जरिए भी जातीय गोलबंदी को और कमजोर बनाया।

चुनाव के नतीजों ने न केवल जाति की राजनीति की ताकत को ध्वस्त किया है बल्कि गठबंधन के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

नतीजों से यह पता चल रहा है कि सपा और बसपा एक-दूसरे को अपने वोट ट्रांसफर करने में सफल नहीं रहीं और दलितों तथा ओबीसी के बीच का तनावपूर्ण सामाजिक समीकरण राजनीति पर भारी पड़ गया।

बसपा को तो गठबंधन से फिर भी फायदा हुआ क्योंकि उसने संसद में अपनी उपस्थिति तय कर ली है, घाटा समाजवादी पार्टी को हुआ है। यादव परिवार के दो सदस्य बदायूं से धर्मेद्र यादव और फिरोजाबाद से अक्षय यादव चुनाव हार गए हैं। यह वंशवाद की राजनीति पर भी आघात है जिसे सपा ने बढ़ावा दिया।

बसपा और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन का फैसला बतौर पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव का था। मुलायम सिंह यादव ने इस पर आपत्ति भी जताई थी। यह पहला चुनाव है जब अखिलेश ने कोई चुनाव अपने पिता मुलायम सिंह यादव के मार्गदर्शन के बिना लड़ा। मुलायम अपने क्षेत्र मैनपुरी तक ही सिमटे रहे।

अब इस फैसले पर सवाल उठ सकते हैं और आने वाले दिनों में हो सकता है कि अखिलेश को अपनी पार्टी में इसे लेकर दिक्कत का सामना करना पड़े।

(ये खबर सिंडिकेट फीड से ऑटो-पब्लिश की गई है. हेडलाइन को छोड़कर क्विंट हिंदी ने इस खबर में कोई बदलाव नहीं किया है.)

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