advertisement
हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं.
बुलबुल-ए-हिंद, जहान-ए-उस्ताद और दबीर-उद्दौला जैसे लकब से पहचाने जाने वाले दाग देहलवी (Daagh Dehlvi) उर्दू के सबसे ज्यादा लोकप्रिय शायरों में से एक हैं. उनकी शायरी में दिल्ली की तहज़ीब, जिंदगी के दर्द और मोहब्बत में मिली रुसवाई नजर आती है.
25 मई 1831 को दिल्ली में पैदा हुए दाग देहलवी का असली नाम इब्राहीम था लेकिन वो नवाब मिर्जा खान के नाम से जाने गए. उनकी जिंदगी का बेहतरीन वक्त लाल किला (Red Fort Delhi) के माहौल में गुजरा. ऐसे रंगीन और अदबी माहौल में उनको शायरी का शौक पैदा हुआ, और उन्होंने जौक को अपना गुरू बना लिया.
मोहब्बत का असर जाता कहाँ है
हमारा दर्द-ए-सर जाता कहाँ है
दिल-ए-बेताब सीने से निकल कर
चला है तू किधर जाता कहाँ है
अदम कहते हैं उस कूचे को ऐ दिल
इधर आ बे-ख़बर जाता कहाँ है
कहा जाता है कि दाग देहलवी ने उर्दू गजल को एक नया लहजा दिया और साथ ही उसे उर्दू के आसान अल्फाज में ढालने का काम किया. उन्होंने उर्दू गजल को नई दुनिया दी. उनकी शायरी की नई रुत पूरे हिंदुस्तान में मशहूर और मकबूल हुई. उनके शागिर्दों की तादाद हजारों तक हुआ करती थी. इसमें फकीर से लेकर बादशाह तक और विद्वान से लेकर जाहिल तक, हर तरह के लोग शामिल होते थे.
उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
साल 1857 में वो दौर आया जब हिंदुस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हुआ. इस दौरान दाग़ देहलवी दिल्ली छोड़कर रामपुर चले गए, जहां वो नवाब यूसुफ अली खान के मेहमान की तरह रहे. दिल्ली छोड़कर जाने पर वो लिखते हैं...
दिल्ली से चलो दाग़ करो सैर दकन की
गौहर की हुई क़द्र समुंदर से निकल कर
दाग देहलवी ने रामपुर में कई साल गुजारे और अपनी शोहरत में इजाफा करते रहे. और एक वक्त ऐसा आया, जब उन्होंने हैदराबाद कूच किया. हैदराबाद में वो नवाब महबूब अली खां के पास पहुंचे, जहां उन्होंने दाग को इज्जत बख्शी और वो नवाब के उस्ताद बन गए. हैदराबाद के नवाब ने ही उनको बुलबुल-ए-हिंद, जहान-ए-उस्ताद, दबीर-उद्दौला, नाजिम-ए-जंग और नवाब फसीह-उल-मुल्क के खिताबात से नवाजा.
दाग देहलवी के कुछ और शेर इस तरह हैं...
जिस में लाखों बरस की हूरें हों,
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई.
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं,
जहां बजते हैं नक़्क़ारे वहां मातम भी होता है.
एक बार दाग देहलवी अजमेर गए और जब वो वहां से वापस आने लगे तो उनके शागिर्द नवाब अब्दुल्लाह खां ने कहा कि “उस्ताद आप जा रहे हैं, जाते हुए अपनी कोई निशानी तो देते जाइए.” ये सुनकर दाग ने कहा, “दाग़ क्या कम है निशानी का यही याद रहे.”
इसी तरह दुनिया को अपनी निशानी देते हुए दाग देहलवी ने साल 1905 में हैदराबाद में रहते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनकी कलम से निकली उनकी निशानियां आज भी हमारे बीच मौजूद हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)