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Josh Malihabadi Life Story: 'शायर-ए-इंकलाब' के नाम से प्रसिद्ध कलमकार की कहानी

Josh Malihabadi उर्दू जुबान से बहुत लगाव रखते थे और इसकी शुद्धता पर बहुत गौर करते थे.

मोहम्मद साक़िब मज़ीद
साहित्य
Published:
<div class="paragraphs"><p>Josh Malihabadi Life Story: 'शायर-ए-इंकलाब' के नाम से प्रसिद्ध कलमकार की कहानी</p></div>
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Josh Malihabadi Life Story: 'शायर-ए-इंकलाब' के नाम से प्रसिद्ध कलमकार की कहानी

(फोटो- नमिता चौहान/क्विंट हिंदी)

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काम है मेरा तग़य्युर नाम है मेरा शबाब

मेरा ना'रा इंक़लाब ओ इंक़लाब ओ इंक़लाब

ये अल्फाज उर्दू शायर जोश मलीहाबादी (Josh Malihabadi) की कलम से निकले हैं. एक ऐसा शायर जिसने पाकिस्तान (Pakistan) के जनरल अयूब (General Ayyub) से कहा था कि शब्दों का सही उच्चारण कीजिए....एक ऐसा शायर जिसको सबसे गर्म मिजाज शायरों की फेहरिस्त में शुमार किया जाता है. एक ऐसा कलमकार जिसे पढ़कर फैज अहमद फैज (Faiz Ahmed Faiz) और इकबाल (Allama Iqbal) की याद आती है.

'शायर-ए-इंकलाब' की दास्तान

जोश मलीहाबादी की पैदाइश 05 दिसंबर 1898 को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की राजधानी लखनऊ (Lucknow) के मलीहाबाद (Malihabad) में हुई थी, जिनका पूरा नाम शब्बीर अहमद हसन खान था. शायरी, जोश साहब के खून में थी, उनके पिता, दादा और परदादा भी शायर थे. जोश साहब को 'शायर-ए-इंकलाब' यानी क्रांति का कवि कहा गया क्योंकि उन्होंने ब्रितानी हुकूमत के दौरान देश के सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर बेहद बेबाक तरीके से लिखा, जो आज भी प्रासंगिक है.

क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें

उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

दीवारों के नीचे आ आ कर यूँ जमा हुए हैं ज़िंदानी

सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें

भूखों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं

तक़दीर के लब को जुम्बिश है दम तोड़ रही हैं तदबीरें

आँखों में गदा की सुर्ख़ी है बे-नूर है चेहरा सुल्ताँ का

तख़रीब ने परचम खोला है सज्दे में पड़ी हैं तामीरें

क्या उन को ख़बर थी ज़ेर-ओ-ज़बर रखते थे जो रूह-ए-मिल्लत को

उबलेंगे ज़मीं से मार-ए-सियह बरसेंगी फ़लक से शमशीरें

क्या उन को ख़बर थी सीनों से जो ख़ून चुराया करते थे

इक रोज़ इसी बे-रंगी से झलकेंगी हज़ारों तस्वीरें

क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे

इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें

संभलों कि वो ज़िंदाँ गूँज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए

उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें

उर्दू शायर सरदार जाफरी ने इस नज्म के बारे में कहा था कि यह जोश मलीहाबादी की पहली इंकलाबी नज्म थी जो स्वतंत्रता आंदोलन के उत्साह से भरी थी. उर्दू कविता में यह एक नया चलन था.

उर्दू जुबान की बेहतरी के लिए छोड़ा मुल्क

जोश मलीहाबादी उर्दू जुबान से बहुत लगाव रखते थे और इसकी शुद्धता पर बहुत गौर करते थे. उर्दू के लिए इस तरह का लगाव उनके भारत से जाने की वजहों में से एक था क्योंकि उन्हें डर था कि भारत में उर्दू का कोई स्थान नहीं होगा. हालांकि उनका ये खौफ गलत साबित हुआ.

1956 में जोश साहब ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया. उस वक्त के पीएम जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन वो नहीं माने. हालांकि पाकिस्तान जाने के बाद उर्दू जुबान को लेकर बड़े अफसरों से उनकी बहस के किस्से मशहूर हैं.

जोश मलीहाबादी के पोते फर्रुख जमाल मलीहाबादी अपनी किताब "जोश: मेरे बाबा-शख्स और शायर" में लिखते हैं कि

एक बार जनरल अयूब खान ने जोश साहब को खुश करने के इरादे से कहा कि आप एक महान आलम हैं. इस पर जोश साहब ने तुरंत बोल पड़े कि सही लफ्ज आलिम (विद्वान) है, आलम नहीं. जोश साहब की बेबाकी से जनरल अयूब तिलमिला उठे और उन्होंने जोश मलीहाबादी की सीमेंट एजेंसी को बंद करने का हुक्म सुना दिया
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इसके अलावा जोश मलीहाबादी की एक पहचान शायर-ए-फितरत की भी है. उन्होंने प्रकृति के नजारों को बेहद ही खूबसूरत तरीके से अपनी शायरी का हिस्सा बनाया. वो अपनी नज्म 'अलबेली सुबह'  में लिखते हैं...

कली पे बेले की किस अदा से पड़ा है शबनम का एक मोती

नहीं ये हीरे की कील पहने कोई परी मुस्कुरा रही है

खटक ये क्यूँ दिल में हो चली फिर चटकती कलियो? ज़रा ठहरना

हवा-ए-गुलशन की नर्म रो में ये किसी की आवाज़ आ रही है?

किसानों और मजदूरों को भी बनाया कलाम का हिस्सा

जोश साहब ने अपनी शायरी के जरिए किसानों और मजदूरों की आवाज उठाने की भी कोशिश की है. जब हिंदुस्तान में जमीदारी कानून खत्म किया गया और नए कानून लाए गए, उस वक्त जोश मलीहाबादी ने किसानों की ओर उम्मीद भरी निगाह से देखा और लिखा.

बनाएंगे नई दुनिया किसान और मजदूर,

यही सजाएंगे दीवान-ए-आम-ए-आज़ादी.

जोश मलीहाबादी साहब को शायर-ए-शबाब भी कहा गया. वो इंकलाबी होने के साथ-साथ एक इश्क मिजाज शायर और वस्ल-ए-महबूब भी थे.

ज़ालिम ये ख़मोशी बेजा है इक़रार नहीं इंकार तो हो

इक आह तो निकले तोड़ के दिल नग़्मे न सही झंकार तो हो

सीने में ख़ताएँ मुज़्तर हैं इनआम का वो इक़रार करें

मंसूर हज़ारों अब भी हैं ऐ 'जोश' सिले में दार तो हो

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया

जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया

उस ने वा'दा किया है आने का

रंग देखो ग़रीब ख़ाने का

मेरे रोने का जिस में क़िस्सा है

उम्र का बेहतरीन हिस्सा है

कश्ती-ए-मय को हुक्म-ए-रवानी भी भेज दो

जब आग भेज दी है तो पानी भी भेज दो

22 फरवरी 1982 को पाकिस्तान के इस्लामाबाद में जोश मलीहाबादी ने अपनी जिंदगी की आखरी सांसें ली. जोश साहब के गुजर जाने के बाद पाकिस्तान की सरकार ने उनके नाम पर डाक टिकट जारी करके उनकी शताब्दी मनाई. उन्हें 2012 में देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार हिलाल-ए-पाकिस्तान से भी नवाजा गया.

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