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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के लिए 'देश' सिर्फ 'कागज पर बना नक्शा नहीं', तो फिर क्या?

Sarveshwar Dayal Saxena ने अपनी कविताओं के जरिए समाज में फैली कुरीतियों, जात-पांत, देश के भ्रष्टाचार और चोर बाजारी पर बात की.

मोहम्मद साक़िब मज़ीद
साहित्य
Published:
<div class="paragraphs"><p>Sarveshwar Dayal Saxena के लिए 'देश' सिर्फ 'कागज पर बना नक्शा नहीं', तो फिर क्या?</p></div>
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Sarveshwar Dayal Saxena के लिए 'देश' सिर्फ 'कागज पर बना नक्शा नहीं', तो फिर क्या?

(फोटो- विभूषिता सिंह/क्विंट हिंदी) 

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यदि तुम्हारे घर के

एक कमरे में आग लगी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में सो सकते हो?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाशें सड़ रहीं हों

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

यदि हाँ

तो मुझे तुम से

कुछ नहीं कहना है.

देश कागज़ पर बना

नक़्शा नहीं होता

कि एक हिस्से के फट जाने पर

बाक़ी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें

और नदियां, पर्वत, शहर, गांव

वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें

अनमने रहें.

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे तुम्हारे साथ

नहीं रहना है.

सोचिए...ये लाइन लिखते हुए, हिंदी कवि (Hindi Poet) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (Sarveshwar Dayal Saxena) के दिमाग में क्या रहा होगा? क्या वही, जो इसको पढ़ते हुए हमारे और आपके दिमाग में आता है? ना जाने क्या सोचकर उन्होंने ये पंक्तियां लिखी थी, जो आज के दौर में भी फिट बैठती हैं. मौजूदा वक्त की दुनिया के समाज को उनकी ये लाइनें पढ़नी और समझनी चाहिए कि एक अगर एक कमरे में आग लगी हो, तो दूसरे कमरे को क्या खतरा हो सकता है और उसके लिए क्या करना उचित है.

हम बात कर रहे हैं उस दूरदर्शी कवि की रचनाओं पर बात करने वाले हैं, जिनमें हिंदुस्तान के गांवों के लिए सहानुभूति, समाजवाद का असर, बगावत की आवाज, राष्ट्र की जिम्मेदारी और पूरी दुनिया के लिए पाठ भी है.

सितंबर 1927 में उत्तर प्रदेश के बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने इलाहाबाद में अपनी शिक्षा पूरी की. वो कवि के साथ एक पत्रकार भी रहे और उन्होंने आकाशवाणी, हिंदी अखबार ‘दिनमान’ और कुछ पत्रिकाओं के लिए भी काम किया. दिनमान में उनके द्वारा लिखा गया स्तंभ ‘चरचे और चरख़े’ खूब पसंद किया गया.

वो अपनी एक कविता के ज़रिए समाज में फैली कुरीतियों, जात-पांत, देश के भ्रष्टाचार और चोर बाजारी पर बात करते हुए कहते हैं...

जारी है-जारी है

अभी लड़ाई जारी है.

यह जो छापा तिलक लगाए और जनेऊधारी है

यह जो जात पात पूजक है यह जो भ्रष्टाचारी है

यह जो भूपति कहलाता है जिसकी साहूकारी है

उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है.

यह जो काला धन फैला है, यह जो चोर बाज़ारी हैं

सत्ता पाँव चूमती जिसके यह जो सरमाएदारी है

यह जो यम-सा नेता है, मतदाता की लाचारी है

उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है.

जारी है-जारी है

अभी लड़ाई जारी है.

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कविताओं में गांवों की झलक

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं में भारत के गांवों में रहने वाले लोगों की जिंदगी के लिए सहानुभूति और समाजवादी विचारधारा की झलक देखने को मिलती है. वो अपने एक कविता संग्रह की भूमिका लिखते हुए कहते हैं कि

मैं यह जानता हूं कि कविता से समाज नहीं बदला जा सकता. जिससे बदला जा सकता है वह क्षमता मुझमें नहीं है. फिर मैं क्या करूं? चुप रहूं? उसे खुश करने का नाटक करूं, भड़ैंती करूं? वह मेरे मान का नहीं. सच तो यह है कि मैं कविता लिखकर केवल अपना होना प्रमाणित करता हूं. मैं यह मानता हूं कि हम जिस समाज में हैं, जिस दुनिया में हैं वहां हमें अपना होना प्रमाणित करना है.

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कविताओं के अलावा नाटक, उपन्यास, यात्रा-संस्मरण और बाल-साहित्य में भी अहम योगदान दिया है.

भेड़िया गुर्राता है

तुम मशाल जलाओ.

उसमें और तुममें

यही बुनियादी फ़र्क़ है

भेड़िया मशाल नहीं जला सकता.

अब तुम मशाल उठा

भेड़िए के क़रीब जाओ

भेड़िया भागेगा.

करोड़ों हाथों में मशाल लेकर

एक-एक झाड़ी की ओर बढ़ो

सब भेड़िए भागेंगे.

फिर उन्हें जंगल के बाहर निकाल

बर्फ़ में छोड़ दो

भूखे भेड़िए आपस में गुर्राएँगे

एक-दूसरे को चीथ खाएंगे.

भेड़िए मर चुके होंगे

और तुम?

हिंदी साहित्य के विद्वान माने जाने वाले अज्ञेय ने, सर्वेश्वर सक्सेना का जिक्र करते हुए कहा था कि

समकालीन सत्य और यथार्थ को जो कवि सफल और सबल हाथों से पकड़ सके हैं, जो सच्चे अर्थ में समकालीन जीवन में जुड़ाव रखते हैं- उनमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक विशेष जगह है.

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ऐसी बहुत सी कविताएं लिखी हैं, जो समाज को जिंदा रखने का काम करती हैं. आखिरी हिस्से में आपको बताते हैं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं में समाहित वो बातें, जो उन्होंने पूरी दुनिया को नज़र में रखते हुए कहा था...

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा

कुछ भी नहीं है

न ईश्वर

न ज्ञान

न चुनाव

काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत

फाड़ी जा सकती है

और ज़मीन की सात परतों के भीतर

गाड़ी जा सकती है.

जो विवेक

खड़ा हो लाशों को टेक

वह अंधा है

जो शासन

चल रहा हो बंदूक की नली से

हत्यारों का धंधा है

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे

अब एक क्षण भी

तुम्हें नहीं सहना है.

याद रखो

एक बच्चे की हत्या

एक औरत की मौत

एक आदमी का

गोलियों से चिथड़ा तन

किसी शासन का ही नहीं

सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन.

आख़िरी बात

बिल्कुल साफ

किसी हत्यारे को

कभी मत करो माफ़

चाहे हो वह तुम्हारा यार

धर्म का ठेकेदार,

चाहे लोकतंत्र का

स्वनामधन्य पहरेदार.

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