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साल 1931 में अंग्रेजों द्वारा पहली जातीय जनगणना (Caste Census) किए जाने के 90 साल बाद, बिहार (Bihar) ने जातीय गणना की रिपोर्ट जारी कर दी गई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में OBC और EBC की आबादी 63% है. वहीं इससे मुस्लिम जातियों और उपजातियों के अनुपात की जानकारी भी सामने आई है.
द क्विंट ने 'Pasmanda Muslim Mahaz' के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष और दो बार राज्यसभा सांसद रह चुके अली अनवर अंसारी से बात की. वंचित मुसलमानों की असलियतों को उजागर करने के लिए जातीय गणना कराने की उनकी लड़ाई एक दशक से ज्यादा पुरानी है.
उन्होंने पहली बार इस मुद्दे को 18 दिसंबर 2009 को संसद में स्पेशल मेंशन के रूप में उठाया था. हालांकि, उनका दावा है कि तब किसी ने उनका समर्थन नहीं किया था. मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे के समर्थन से, इसे 2010 में लोकसभा में उठाया गया था, लेकिन यह कभी अमल में नहीं आया.
क्या बिहार का जातीय गणना मुस्लिम समुदाय को सोच में डालेगा क्योंकि मुसलमानों के अंदर भी जाति आधारित आंकड़े दिए गए हैं?
हां, उम्मीद है कि यह एक बड़ा असर पैदा करेगा. 1931 के बाद यह पहली जाति-आधारित गणना है, जिसमें हमें किसी राज्य में मुसलमानों और ओबीसी की साफ तस्वीर मिली है. अब तक, आम गलतफहमी हमेशा यही रही है कि मुसलमान एक अखंड और सजातीय समूह है. इसके अलावा गणना, प्रतिनिधित्व और जनसंख्या के जरिए हर तरह से केवल 'हिंदू बनाम मुस्लिम' कहानी ही चलती रही है.
इसे सामाजिक और आर्थिक नजरिए से भी देखा जाना चाहिए. अब हमारे पास बिहार जातीय गणना के साथ सामाजिक पहलू है, हमें आर्थिक पहलू की जरूरत है कि लोगों के पास कितनी जमीन और संपत्ति है. तब हमें सभी जाति समूहों की सही स्थिति का पता चलेगा.
क्या ऐसे कोई मिथक हैं जिन्हें बिहार जातीय गणना ने खारिज कर दिया है?
राज्य में 17.7% आबादी मुसलमानों की है. जगणना से यह भी पता चला है कि 'रफ्तार' या जिस दर से मुस्लिम आबादी बढ़ रही है, वह बमुश्किल 0.8% के आसपास है. इसमें हिंदुओं की तुलना में, गिरावट आई है लेकिन कुल मिलाकर ये रेट स्थिर और धीमी है. यह बीजेपी द्वारा अक्सर प्रचार की जाने वाली कहानी को पूरी तरह से खारिज कर देता है कि मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है और हिंदू आबादी से आगे निकल जाएगी.
सामान्य वर्ग में बेशक मुसलमानों में सैयद, पठान, शेख और ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ हैं, लेकिन शेखों का प्रतिशत (3.82%) ब्राह्मणों (3.66%) से ज्यादा है. यहां तक कि सबसे पिछड़े समूह भी मुसलमानों के हैं.
क्या बिहार की जातीय गणना आखिरकार आरक्षण और प्रतिनिधित्व की बहस को सही दिशा में ले जाएगी?
हां, ऐसा जरूर होना चाहिए क्योंकि मुसलमानों को भी यकीनन कभी सही प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. एक या दो जातियों के ही सांसद चुने गये हैं. पूरे समुदाय के रूप में पसमांदा को स्वीकार नहीं किया गया है.
और पसमांदा का अर्थ है 'जो पीछे रह गए', इसमें दलित मुस्लिम और दलित शामिल हैं. पसमांदा-वर्ग को दर्शाता है, जाति को नहीं.
राहुल गांधी ने हाल ही में कहा था- "केंद्र सरकार के 90 सचिवों में से केवल 3 ओबीसी हैं, जो भारत के केवल 5% बजट को संभालते हैं."
जो भी मुसलमान पीछे रह गए हैं, चाहे वह नीति-निर्धारण में हो, सरकारी या निजी क्षेत्र में, उन्हें उनका उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए.
क्या बिहार की जातीय गणना भी आरक्षण की 50% सीमा पर बहस शुरू करती है?
गणना से आरक्षण की 50% सीमा पर सवाल उठेंगे, साथ ही इसमें ओबीसी, ईबीसी और मुसलमानों के लिए 27% आरक्षण शामिल था, लेकिन अब हम राज्य की जनसंख्या में उनके अनुपात के बारे में जानते हैं.
हर वर्ग को उसका हक मिलेगा, खासकर राजनीतिक प्रतिनिधित्व, पार्टियों को भी उन्हें नेतृत्व या पदाधिकारी के रूप में शामिल करना होगा. “हमारी नौकरी में हमारे आदमी बढ़ेंगे.”
इसके अलावा, केवल 3% ब्राह्मण हर जगह हैं, सभी क्षेत्रों, संस्थानों, नौकरियों, मीडिया, शिक्षा आदि पर हावी हैं.
लड़ाई जाति और धर्म को सेकेंडरी थॉट मानने की होनी चाहिए. यह गणना मंडल रिपोर्ट से भी "दो कदम आगे" है क्योंकि मंडल में ईबीसी को शामिल नहीं किया गया था.
पीएम मोदी ने गणना पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा- ''वे देश को जाति के आधार पर बांटने की कोशिश कर रहे हैं.'' इस पर आपका क्या कहना है?
2024 के अगले लोकसभा चुनाव में बिहार की जातीय गणना का असर देखने को मिलेगा. पीएम मोदी गणना की अनुमति नहीं देंगे, भले ही वह खुद को ओबीसी होने का दावा करते हों. उनका विरोध इस डर से है कि अब तक उन्हें जो ओबीसी वोट मिले हैं, वे बिखर जाएंगे. इसके अलावा अगर वह जातीय जनगणना कराएंगे तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण सेकेंडरी हो जाएगा.
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