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बीजेपी के स्टार प्रचारकों में पीएम मोदी के बाद सबसे ज्यादा डिमांड योगी आदित्यनाथ की है. योगी पूरे देश में बीजेपी उम्मीदवारों को जिता रहे हैं, लेकिन अपने ही गढ़ गोरखपुर में बुरी तरह से फंस गए हैं. क्योंकि जातीय समीकरण के आगे यहां न तो उनका जादू चल रहा है और न ही पीएम मोदी का. ऐसे में इस बार गोरखपुर में बीजेपी, पीएम मोदी के नाम पर नहीं बल्कि गोरक्षपीठ के नाम पर चुनाव लड़ेगी.
उपचुनाव में मिली हार से बीजेपी ने सबक लिया है, अब न तो वो किसी नए प्रयोग के मूड में है और ना ही किसी गलतफहमी में. लगभग तय सा है कि इस बार बीजेपी नहीं बल्कि गोरक्षपीठ मैदान में होगी. बीजेपी की समूची सियासत फिर गोरक्ष मठ की ओर मुड़ गई है. हर बार की तरह मठ में ही सियासी बाजार सजेगा और यहीं से दांव-पेंच बुने जाएंगे.
अब सवाल ये है कि जिस गोरक्षपीठ से बीजेपी ने उपचुनाव में दूरी रखी थी, आखिर, उसका कद इतना बड़ा क्यों हैं? पूर्वांचल, खासतौर से गोरखपुर और आसपास के जिलों में गोरक्षपीठ का अलग धार्मिक महत्व है. इस पीठ से लाखों की संख्या में श्रद्धालु के तौर पर हर जाति के लोग जुड़े हैं.
लिहाजा, इस पीठ से जुड़ा कोई शख्स चुनावी मैदान में हो, श्रद्धालु उसे सिर माथे पर बैठाते हैं. महंत दिग्विजयनाथ से लेकर योगी आदित्यनाथ इसकी मिसाल हैं. ऐसे में बीजेपी को लगता है कि अगर गोरक्षपीठ से जुड़े किसी शख्स को उम्मीदवार बनाया गया तो बात बन सकती है.
गोरखपुर में निषादों के बाद दूसरे नम्बर पर ब्राह्मण वोटर है. ऐसे में बीजेपी के पास ब्राह्मण उम्मीदवार उतारने का भी ऑप्शन है. बीजेपी ने पिछली बार उपेन्द्र दत्त शुक्ला को चुनाव मैदान में उतारा था, हालांकि उसे मुंह की खानी पड़ी.
ऐसे में चर्चा है कि सियासी मैदान में नफा-नुकसान को देखते हुए मठ से जुड़े किसी शख्स को गोरखपुर से उम्मीदवार बनाया जा सकता है. इस रेस में कई नाम आ रहे हैं. इसमें मंदिर के सर्वेसर्वा माने जाने वाले द्वारिका तिवारी और दूसरे नंबर पर योगी कमलनाथ हैं, जिन्हें योगी आदित्यनाथ के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है.
सूत्रों के मुताबिक, योगी आदित्यनाथ ने इन दोनों नामों को पार्टी आलाकमान के पास भेज दिया है. अगर योगी की चली तो इन्हीं दोनों में से कोई एक मैदान में उतर सकता है.
एसपी-बीएसपी गठबंधन के अलावा गोरखपुर उपचुनाव में मिली हार का एक बड़ा कारण मठ से बाहर का उम्मीदवार होना माना जाता है. जानकार बताते हैं कि उपचुनाव के दौरान टिकट बंटवारे में सीएम योगी आदित्यनाथ की नहीं चली थी और बीजेपी ने उपेंद्र शुक्ला को उम्मीदवार बनाया था. उपेंद्र शुक्ला, योगी के विरोधी माने जाने वाले शिवप्रताप शुक्ला के करीबी हैं. और दूसरी वजह हिंदू युवा वाहिनी, जिसकी बदौलत योगी चुनाव लड़ते थे, वो चुनाव से दूर रही.
साल 2017 लोकसभा उपचुनाव के पहले गोरखपुर को योगी आदित्यनाथ का अभेद्य किला माना जाता था. कहा जाता है कि गोरखपुर में योगी की मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. लेकिन डेढ़ साल पहले योगी सीएम क्या बने, गोरखपुर में उनकी सियासत ही बदल गई. और इस बार तो ये सीट उनके राजनीतिक करियर के लिए बड़ा चैलेंज है. क्योंकि अगर वो जीत गए तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर हार गए तो सब कुछ गया.
लिहाजा, गोरखपुर को लेकर योगी आदित्यनाथ जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं. हर कदम के पीछे नफे-नुकसान का पूरा आकलन हो रहा है. कुल मिलाकर कहें तो योगी एक सीएम नहीं बल्कि नेता की हैसियत से गोरखपुर में कार्यकर्ताओं को एकजुट करने में लगे हैं. गोरखपुर को लेकर पार्टी इस तरह फंसी हुई है कि अभी तक उम्मीदवार के नाम पर सहमति नहीं बन पाई है.
गोरखपुर में सियासी रूप से निषाद काफी सशक्त माने जाते हैं. इनकी संख्या लगभग 4.5 लाख के आसपास है. इसी गुणा-गणित को देखते हुए योगी आदित्यनाथ ने निषाद पार्टी को अपने साथ जोड़ा. लेकिन ऐन वक्त पर अखिलेश ने रामभुआल निषाद को मैदान में उतारकर पेंच फंसा दिया. ऐसा लग रहा है कि योगी अपने ही जाल में फंस गए.
यही नहीं बीजेपी को अभी कांग्रेस उम्मीदवार के नाम का भी इंतजार है. माना जा रहा है कि अगर कांग्रेस ने किसी ब्राह्मण को मैदान में उतार दिया तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़नी तय हैं.
गोरखपुर की राजनीति का एक और चेहरा है. यहां पर ब्राह्मण और राजपूतों के बीच आपस में नहीं जमती. नब्बे के दशक में इस इलाके में वीरेंद्र शाही और हरिशंकर तिवारी के बीच अदावत चलती थी. दोनों एक दूसरे पर वार करने का कोई मौका नहीं चूकते थे. इस बीच वीरेंद्र शाही का मर्डर हो गया.
बताया जाता है कि राजपूतों का झुकाव गोरक्षपीठ की तरफ ज्यादा रहता है, लिहाजा ब्राह्मणों का एक बड़ा धड़ा मंदिर में श्रद्धा रखने के बावजूद यहां से जुड़े नेताओं को पसंद नहीं करता है.
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Published: 03 Apr 2019,09:19 PM IST