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केरल में 25 अप्रैल को चर्चों के आठ आध्यात्मिक नेताओं (धर्मगुरुओं) ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से तिरुवनंतपुरम में मुलाकात की है. एक ओर इस ईसाई प्रतिनिधिमंडल और बीजेपी राज्य नेतृत्व, जिसका प्रतिनिधित्व बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के सुरेंद्रन ने किया, ने इस मुलाकात को 'लाभदायक' बताया है. वहीं दूसरी ओर इस मौके पर केरल में ईसाइयों के कुछ महत्वपूर्ण संप्रदाय (चर्च ऑफ साउथ इंडिया (सीएसआई), मारथोमा चर्च और लैटिन चर्चेस ऑफ सेंट्रल एंड साउदर्न केरल) के प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति भी चर्चा का विषय है. लेकिन इनके प्रतिनिधि वहां उपस्थित क्यों नहीं रहे?
PM मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी जोकि जो दक्षिणी राज्य में ईसाई वोटर्स को लुभा रही है, उनके प्रति केरल में अब तक क्रिश्चियन लीडरशिप बिखरी हुई है. यदि मोदी से मिलने वाला प्रतिनिधिमंडल इस बात का संकेत है कि केरल के ईसाइयों के बीच बीजेपी का समर्थन बढ़ रहा है तो, यहां पर हमें इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि केरल में चर्च के भीतर जाति और एक्यूमेनिकल आधार पर बीजेपी को लेकर एक खाई (अंतर) बन गई है. उसकी वजह समझने की कोशिश करते हैं.
केरल की राजधानी में नरेंद्र मोदी से मुलाकात करने वाले बिशप्स (bishops) और कार्डिनलों (cardinals) पर एक बारीक नजर डालने से पता चलता है कि कौन सा सार्वभौम संप्रदाय (एक्यूमेनिकल) बीजेपी को एक व्यवहार्य राजनीतिक विकल्प के तौर पर ढूंढ रहा है. बैठक में सभी सात संप्रदाय (जिनका प्रतिनिधित्व आठ चर्च के धर्मगुरुओं द्वारा किया गया) एपिस्कोपल चर्च थे. सार्वभौमिक तौर पर, सात संप्रदायों में से पांच कैथोलिक थे, जबकि अन्य दो (ऑर्थोडॉक्स और जैकोबाइट चर्च) कैथोलिक संस्कारों या अनुष्ठानों के करीब खड़े होने के दौरान, पूर्वी एपिस्कोपल चर्चों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्होंने केरल में अपना इतिहास विकसित किया है. मुख्य रूप से, पीएम मोदी के साथ बैठक में जिन चर्चों ने हिस्सा लिया उन्होंने राज्य में विभिन्न ईसाई संप्रदायों के प्रमुख जाति ईसाइयों या सीरियाई ईसाइयों का प्रतिनिधित्व किया.
मुलाकात के दौरान जिन सीरियाई ईसाई संप्रदायों का प्रतिनिधित्व किया गया था, उनमें सिरो-मालाबार चर्च, मलंकारा ऑर्थोडॉक्स चर्च, जैकोबाइट सीरियन चर्च, ननाया सीरियन चर्च, चलेडियन सीरियन चर्च और सिरो-मलंकारा कैथोलिक चर्च शामिल थे.
राज्य के ओबीसी ईसाइयों का प्रतिनिधित्व केवल एक ईसाई संप्रदाय, वेरापोली के लैटिन कैथोलिक चर्च द्वारा किया गया था. इसके अलावा, सीएसआई, पेंटेकोस्टल और अन्य इंजील चर्चों सहित केरल के प्रोटेस्टेंट संप्रदायों में से किसी ने भी बैठक में हिस्सा नहीं लिया. प्रोटेस्टेंट संप्रदाय के मारथोमा चर्च को भी पीएम से मुलाकात करने का आमंत्रण दिया गया था, लेकिन वह मौजूद नहीं रहा.
केरल में चर्च के भीतर होने वाली गड़गड़ाहट राजनीति के लिए महत्वपूर्ण क्यों है? 2011 की जनगणना के मुताबिक केरल की 18.4 फीसदी आबादी ईसाई है. वहीं राज्य में हिंदुओं और मुसलमानों की जनसंख्या के आंकड़े क्रमश: 54.7 फीसदी और 26.6 फीसदी हैं. चुनावी तौर पर देखें तो मुस्लिम वोट के समान ही क्रिश्चियन वोट पारंपरिक रूप से दशकों से कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (UDF) की झोली में आ रहे हैं. हालांकि, हाल ही में, खास तौर पर 2021 के विधान सभा चुनावों में इस वोटिंग बेस के भीतर राजनीतिक वफादारी में एक स्पष्ट बदलाव दिखाई दिया है. मध्य केरल के चर्च ने बीजेपी के प्रति गर्मजोशी दिखाई है.
इसकी शुरुआत चर्चों की सीमाओं के भीतर हुई जहां कथित 'लव जिहाद' और 'नारकोटिक्स जिहाद' चिंता का विषय बन गए. काफी समय पहले 2021 में पाला में सिरो-मालाबार चर्च के बिशप मार जोसेफ कल्लारंगट ने केरल में मुसलमानों पर 'नशीले पदार्थों के साथ क्रिश्चियन युवाओं को भ्रष्ट करने और उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए लुभाने' का आरोप लगाया था. भले ही पाला मध्य केरल के कोट्टायम जिले में पड़ता है, लेकिन सिरो-मालाबार चर्च जोकि उत्तर में कोझिकोड जिले के थमारस्सेरी में स्थित है, उस चर्च ने 'लव जिहाद' पर एक बुकलेट प्रकाशित की थी, जिसमें मुस्लिम पुरुषों पर क्रिश्चियन महिलाओं को धर्म परिवर्तन के लिए फंसाने (लव जिहाद) का आरोप लगाया गया था.
कोझिकोड के एक प्रमुख चर्च के एक चर्च एल्डर ने नाम न छापने की शर्त पर द क्विंट को बताया कि "राज्य की ईसाई आबादी में ठहराव को लेकर चिंता बढ़ रही है. कैथोलिक चर्चों में वे हैं जिन्होंने एक या दो से अधिक बच्चे चाहने वाले विवाहित जोड़ों के लिए प्रोत्साहन का वादा किया है."
हालांकि, जनसांख्यिकी के आधार पर राज्य की ईसाई आबादी में गिरावट का कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं, ऐसे में यह चिंता निराधार है कि समुदाय तीन दशकों के भीतर राज्य में मुस्लिम आबादी का आधा ही बचेगा.
इस बीच, क्रिश्चियन एलायंस फॉर सोशल एक्शन (CASA) जैसे अर्ध-राजनीतिक ईसाई संगठनों के उदय ने भी आम लोगों या चर्च जाने वालों को बीजेपी की ओर आकर्षित किया है. CASA नेतृत्व, जो समुदाय में महत्वपूर्ण प्रभाव का प्रयोग करता है, उसने इस्लाम के लिए ईसाइयों के कथित "आकर्षण" का जोरदार विरोध किया है. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि ये संगठन क्रिश्चियन वोटों के किस वर्ग को बीजेपी की ओर झुका पाएंगे.
जहां एक ओर उत्तर केरल में जनसांख्यिकीय डर ने मुख्य रूप से चर्च को जकड़ कर रखा है, वहीं मध्य केरल में चर्च की चिंता का विषय कुछ अलग ही है.
एक कैथोलिक पादरी, जोकि कोट्टायम जिले से मलप्पुरम जिले की सीमा से लगे एक शहर में चले गए थे, ने द क्विंट को बताया कि "केरल ईसाइयों के बीच एक कहावत है: 'यदि आप अच्छी सड़कें देखना चाहते हैं, तो आपको मलप्पुरम जिले में जाना चाहिए. ड्राइविंग खराब है, लेकिन सड़कें टॉप-टियर हैं.' यह कथन इसलिए मायने रखता है क्योंकि उत्तर केरल में मलप्पुरम जिला इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) का गढ़ है. आरोप यह है कि मुस्लिम लीग के सांसद अपने चुनावी क्षेत्र के निवासियों (जो बड़े पैमाने पर मुस्लिम हैं) के लिए असंगत तौर पर विकास लाते हैं."
मध्य केरल के जिलों में जहां क्रिश्चियन आबादी मुस्लिम आबादी से काफी अधिक है, वहां लीग विरोधी भावना काफी प्रबल है. उदाहरण के तौर पर, इडुक्की में, जहां क्रिश्चियन आबादी 43.42 फीसदी है, जबकि मुस्लिम आबादी 7.41 प्रतिशत है. इडुक्की स्थित चर्च के एक बुजुर्ग ने द क्विंट को बताया कि 2021 के चुनाव में बागान मालिकों के गठबंधन ने IUML की प्रसिद्धि के खिलाफ पैरवी की थी. इडुक्की से उत्तर केरल में माइग्रेशन सामान्य बात है, जिसकी वजह से जिला अप्रत्यक्ष रूप से मालाबार क्षेत्र में भी पार्टियों के चुनावी भाग्य का फैसला करने की क्षमता रखता है.
दरअसल, इस साल मार्च की शुरुआत में ऐसे संकेत मिले थे कि एक संयुक्त मोर्चा बनने के लिए एलडीएफ के भीतर केरल कांग्रेस के विभिन्न गुट विलय कर सकते हैं.
इडुक्की में एक प्रीस्ट ने अफसोस जताते हुए कहा कि "यूडीएफ बड़े पैमाने पर उन मुस्लिम नेताओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है जो मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों का समर्थन करते हैं. इस वजह से अब एलडीएफ भी ईसाई राजनीतिक नेताओं के लिए एक व्यवहार्य विकल्प बन गया है."
यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि मध्य केरल में सबसे प्रमुख एपिस्कोपल चर्च मुख्य तौर पर सीरियाई ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं. तथ्य यह है कि इसी बीच मुस्लिम लीग अपने स्वयं के कमजोर करने वाले लीडरशिप विवादों से जूझ रही है, जिससे ईसाई मतदाताओं के बीच का भय कम नहीं हो रहा है.
इस बीच, लैटिन कैथोलिकों ने बड़े पैमाने पर कांग्रेस का समर्थन किया है. हाल ही में विजिनजाम पोर्ट के विरोध में लैटिन कैथोलिक चर्च ने कांग्रेस का समर्थन लिया था, जिसके (कांग्रेस के) नेता विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे थे. संक्षेप में कहा जाए तो कांग्रेस ने, विशेष तौर पर एर्नाकुलम जिले में लैटिन कैथोलिक चर्चों की चिंताओं का प्रतिनिधित्व करना जारी रखा है. इसके साथ ही पार्टी केरल के लंबे तटों के आसपास रहने वाले क्रिश्चियन मछुआरा समुदाय के हितों का भी प्रतिनिधित्व करती आ रही है.
कम प्रमुखता और संख्या वाले प्रोटेस्टेंट संप्रदाय बीजेपी से दूर रहे हैं, जबकि एपिस्कोपल चर्चों के माध्यम से जनसांख्यिकीय और राजनीतिक प्रभुत्व की चिंता को दूर किया गया है. त्रिशूर जिले के एक वरिष्ठ सीएसआई प्रीस्ट ने द क्विंट से कहा कि "सीएसआई काफी हद तक यह छवि पेश करने की कोशिश कर रहा है कि वे अराजनैतिक हैं इसलिए सीएसआई के एक भी नेता ने पीएम के साथ बैठक में भाग नहीं लिया. लेकिन संकेत यह है कि, यह विरोधवादी संप्रदाय बीजेपी की तरफ नहीं झुकेगा क्योंकि वे पारंपरिक रूप से कांग्रेस या अधिकतर एलडीएफ का समर्थन करते रहे हैं." इसी तरह, मारथोमा चर्च (एक अन्य प्रमुख प्रोटेस्टेंट संप्रदाय) ने अपने प्रतिनिधियों को बैठक में नहीं भेजा था.
इसकी वजह क्या है? दरअसल जहां बीजेपी सत्ता में है उन राज्यों में इंजील मिशनों पर धर्म परिवर्तन का आरोप लगाया जाता है. एक ईसाई प्रीस्ट ने कहा कि "बीजेपी को सपोर्ट करना उनके हित में नहीं है.अन्य राज्यों के पादरियों और मिशनरियों के अनुसार वे बीजेपी सरकार के तहत उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं, ऐसे में अगर हम यहां बीजेपी को सपोर्ट करते हैं तो यह अन्य राज्यों में उनके पादरियों और मिशनरियों के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात होगा."
हालांकि, बीजेपी अगर प्रमुख ईसाई संप्रदायों (जिनकी लीडरशिप भगवा पार्टी का समर्थन करने के लिए उत्सुक दिखाई दे रही है) को लुभाना जारी रखती है, तो यूडीएफ वोट उन जिलों में बीजेपी के तरफ विभाजित हो सकते हैं, जहां ईसाई आबादी काफी अधिक है. एलडीएफ सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के दो साल पूरे करने के करीब है, ऐसे में क्या केरल के आगामी विधानसभा चुनाव में ईसाई वोट पर भगवा लहर दिखाई देगी? विधानसभा चुनावों से पहले ही कांग्रेस के लिए जो चिंता हो सकती है वह यह कि बीजेपी और केरल चर्च का जो मेलजोल हुआ है उसका असर क्या 2024 के लोकसभा चुनावों में दिख सकता है.
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