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मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान का चौथा कार्यकाल वैसा नहीं है जैसा उन्होंने सोचा था. पिछले तीन कार्यकाल में उन्होंने खुद के हिसाब से शासन किया. मध्यप्रदेश उनके हवाले था और उन्होंने काफी हद तक वही किया, जो वे चाहते थे. बीजेपी के शीर्ष नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं था. इन नेताओं में एलके आडवाणी भी थे, जो उनके मेंटर, संरक्षक और मार्गदर्शक थे.
लेकिन इस बार स्थिति अलग है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बगावत करने और कमलनाथ सरकार को गिराने के बाद सीएम के रूप में लौटे चौहान को महसूस हो रहा है मानो उन्हें चौथी पारी में ‘कांटों का ताज’ सौंप दिया गया हो.
23 मार्च की शाम जल्दबाजी में हुए शपथग्रहण समारोह के बाद से चौहान के लिए कुछ भी सही नहीं हुआ है. उन्हें कैबिनेट गठित करने की अनुमति तब तक नहीं दी गयी जब तक कि उनकी एक सदस्यीय सरकार कांग्रेस के दबाव में नहीं आ गयी. इनमें विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने विरोध करते हुए राष्ट्रपति के नाम चिट्टी तक लिख डाली.
और तब आयी सबक सिखाने की बारी. नयी दिल्ली में कोरोना वायरस के प्रसार की निगरानी के लिए बनी इंटर मिनिस्टेरियल टीम की जांच में मध्यप्रदेश को विपक्ष शासित राज्यों महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के साथ लताड़ लगायी गयी. यह टीम कोरोना वायरस के फैलाव और लॉकडाउन को लागू करने की निगरानी के लिए है.
मध्यप्रदेश को इस सूची में शामिल करना समझ से परे है. इतना जरूर है कि यह राज्य वायरस से बुरी तरह प्रभावित रहा है जिसमें रिपोर्ट किए जा रहे दैनिक आंकड़ों को देखें तो इंदौर चिंताजनक हॉटस्पॉट बनकर उभरा है.
लेकिन बीजेपी शासित गुजरात की स्थिति अच्छी नहीं है. वास्तव में मध्यप्रदेश के मुकाबले गुजरात से अधिक बेचैन करने वाली खबरें आ रही हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा सूची के मुताबिक कोविड के सबसे ज्यादा कन्फर्म मामलों में गुजरात देश भर में दूसरे नम्बर पर है. इसकी तुलना एमपी से करें तो वह 6ठे नंबर पर बहुत पीछे है.
दूसरी ओर चौहान आरएसएस के चहेते और आडवाणी के भी प्रिय रहे हैं. कभी संभावित प्रधानमंत्रियों में नरेंद्र मोदी के साथ उनका नाम भी एक साथ लिया जाता था. उन्होंने शायद ही कभी दोनों बड़े नेताओं के सामने सिर झुकाया हो. वास्तव में उन्होंने खुद को अलग तरीके से स्थापित करने की कोशिश की. इफ्तार में स्कल कैप पहनना (जिसे मोदी कभी नहीं पहनते), मुस्लिम महिलाओं से राखी बंधवाना, अल्पसंख्यकों के लिए विशेष योजनाएं चलाना वगैरह-वगैरह.
राज्य में केंद्रीय टीम भेजे जाने को मध्यप्रदेश के राजनीतिक गलियारे में चौहान के लिए चेतावनी के तौर पर देखा गया कि यह शीर्ष नेतृत्व की ओर से स्पष्ट संदेश है कि निगरानी में वे हैं न कि कोविड-19. इससे मुख्यमंत्री के तौर पर चौहान की उम्र को लेकर लगायी जा रही अटकलों को समर्थन मिला.
लेकिन मध्यप्रदेश में दबी जुबान में यह चर्चा जोरों पर है कि वायरस की महामारी का प्रकोप खत्म होने और लॉकडाउन हट जाने के बाद आलाकमान उन्हें लेकर कदम उठाएगा. अगर उन्हें हटाया नहीं भी जाता है तो यह सुनश्चित करेगा कि वे एक कठपुतली से अधिक न रह जाएं.
जब से बीजेपी 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों मामूली अंतर से हारी है तब से ही यह तनातनी चल रही है. यह छिपी हुई बात नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष के रूप में अमित शाह जोर-जबरदस्ती से सरकार बनाने को उतारू रहे हैं. उनके मन में यह बात भी साफ थी कि चौहान मुख्यमंत्री नहीं होंगे.
कमलनाथ सरकार को गिराने के लिए सिंधिया से बगावत कराने और उनके साथ पर्याप्त विधायकों को जुटाने की पहल शाह और मध्यप्रदेश में उनके वफादारों ने की थी.
मकसद एक ऐसी बीजेपी सरकार का गठन करना था जो शाह के प्रति जवाबदेह हो. चौहान कहीं तस्वीर में नहीं थे. वास्तव में जब कांग्रेस सरकार अस्थिर हो रही थी, तब जो नाम हवा में तैर रहे थे उनमें शाह के वफादार नरेंद्र सिंह तोमर और चौहान को चुनौती देते रहे नरोत्तम मिश्रा के नाम शामिल थे.
विडंबना यह है कि यह कोविड ही था, जिसने चौहान की मदद की. समय बीतता जा रहा था और केंद्र सरकार राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू करने के लिए बेचैन हो रही थी, ताकि तेजी से फैलते वायरस को रोका जा सके. ऐसे में बीजेपी के आलाकमान को सरकार का नेतृत्व चौहान को सौंपना पड़ा. यह आखिरी मिनटों में हुआ फैसला था. इसमें 24 मार्च से पहले सरकार देने की बेचैनी थी, जब मोदी ने राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा की.
इस तरह चौहान ने 23 मार्च की रात 9 बजे डिफॉल्ट सीएम के तौर पर शपथ ली.
बहरहाल सामान्य स्थिति हमेशा के लिए छिन गयी लगती है. वायरस लगातार दहशत फैला रहा है, लॉकडाउन का विस्तार हो गया है और माना जा रहा है कि यह 3 मई से आगे भी जा सकता है और चौहान अब भी मुख्यमंत्री हैं. मगर, वे बहुत दुखी मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने सीमित अधिकार के साथ अपनी शुरुआत की है. बीजेपी ने कांग्रेस की सरकार जरूर पलट दी, लेकिन इससे न तो पार्टी को और न ही कमलनाथ के उत्तराधिकारी को खुश होने का अवसर दिया है.
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